अर्नब गोस्वामी मामलाः ए समरी, बी समरी और सी समरी क्या है? अमित देसाई ने बॉम्बे हाईकोर्ट में किया स्पष्ट

Update: 2020-11-08 11:05 GMT

2018 के आत्महत्या के एक मामले में हिरासत में लिए गए अर्नब गोस्वामी की जमानत याचिका पर बॉम्बे हाईकोर्ट में हुई सुनवाई में शनिवार को महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट अमित देसाई ने पुलिस द्वारा दर्ज की गई 'ए समरी',' बी समरी 'और' सी समरी' रिपोर्ट की अवधारणाओं को समझाया।

उल्लेखनीय है कि रायगढ़ पुलिस ने इंटीरियर डिजाइनर अन्वय नाइक की आत्महत्या के मामले में 2019 में 'ए समरी' रिपोर्ट दाखिल की थी। बाद में, इस मामले को दोबारा खोल दिया गया, जिसके कारण रिपब्लिक टीवी के प्रमुख अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी हुई, जिसका नाम नाइक के सुसाइड नोट में बताया गया है।

सुनवाई के दौरान, जस्टिस एसएस शिंदे और एमएस कार्णिक की डिवीजन बेंच ने देसाई से 'ए समरी', 'बी समरी' और 'सी समरी' के बीच अंतर पूछा। गोस्वामी के वकीलों ने दलील दी थी कि मजिस्ट्रेट द्वारा 'ए समरी' रिपोर्ट की स्वीकृति के बाद पुलिस को दोबारा जांच के लिए न्यायिक आदेश की आवश्यकता होती है।

इसके जवाब में देसाई ने बॉम्बे पुलिस मैनुअल का हवाला दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि 'ए समरी' रिपोर्ट, ऐसे मामले में दायर की जाती है, जहां अपराध किया जाता है लेकिन सबूत का पता नहीं लग पाया है या आरोपी नहीं मिले हैं।

दूसरी ओर, 'बी' समरी रिपोर्ट, ऐसे मामले में दायर की जाती है, जहां आरोप झूठे पाए जाते हैं या जांच पूरी होने के बाद आरोपियों के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिलता है। 'सी समरी' रिपोर्ट उन मामलों में दर्ज की जाती है, जहां एफआईआर तथ्य की गलती के आधार पर की गई, पाई जाती है।

"यदि यह" ए "समरी है, तो इसका मतलब है कि सबूत पर्याप्त नहीं थे लेकिन अपराध हुआ था। यदि यह गलत अभियुक्त का मामला था, तो यह 'बी' समरी होता।"

उन्होंने बताया कि 'ए समरी' का मतलब है कि सबूतों की कमी के कारण जांच पूरी होनी बाकी है। दूसरी ओर, 'बी समरी' और 'सी समरी' रिपोर्टों का मतलब है कि जांच पूरी हो गई है और या तो अपराध नहीं किया गया है या आरोप गलत अपराध‌ियों के खिलाफ है।

उन्होंने कहा, "जब मजिस्ट्रेट 'ए' समरी को स्वीकार करता है, तो इसका मतलब है कि अपराध हुआ है। यह ड‌िस्चार्ज या क्लोज़र का मामला नहीं है। इसका मतलब है कि यह अपराध का वास्तविक मामला था लेकिन जांच में सबूत इकट्ठा नहीं हो पाए।"

देसाई ने कहा, "ए समरी अपूर्ण जांच को दर्शाता है। बी और सी समरी में, जांच पूरी हो गई है और या तो कोई अपराध नहीं हुआ या आरोपी गलत है। अंतर महत्वपूर्ण है।"

इन दलीलों के आधार पर, उन्होंने याचिकाकर्ताओं के तर्क को खारिज कर दिया कि मजिस्ट्रेट ने मामले को बंद कर दिया था। याचिकाकर्ताओं के इस तर्क को स्वीकार करने के लिए कि एक मामले में, जहां ए समरी दायर की जा चुकी है, जांच को पुनर्जीवित करने के लिए न्यायिक आदेश आवश्यक है, का मतलब जांच एजेंसी की शक्तियों पर रोक लगाना होगा। उन्होंने आतंकवाद के एक मामले के उदाहरण के जर‌िए इस बिंदु को समझाने की कोशिश की।

देसाई ने कहा, "आतंकवाद का एक मामला लें, जहां सबूत नहीं मिल पा रहे हैं। कुछ समय के बाद, पुलिस मजिस्ट्रेट के सामने 'ए' सारांश दाखिल करती है। कुछ समय बाद, पुलिस को आतंकवादी के सबूत मिलते हैं। क्या पुलिस को उसे गिरफ्तार करने के लिए मजिस्ट्रेट के आदेश का इंतजार करना चाहिए?"

उन्होंने जोड़ा, "धारा 173 (8) के तहत आगे की जांच करने के लिए जांच अधिकारी की शक्ति और उसी के लिए न्यायालय के आदेश की शक्ति अलग-अलग है।"

निर्मल सिंह कहलोन बनाम पंजाब राज्य में भरोसा रखा गया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह कहना एक बात है कि निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय के पास पर्यवेक्षण क्षेत्राधिकार होगा, .......लेकिन यह अन्य बात है कि जांच अधिकारी के पास मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना जांच करने का अधिकार क्षेत्र नहीं होगा।

देसाई ने महाराष्ट्र पुलिस अधिनियम की धारा 4 का भी उल्लेख किया, जिसके अनुसार पुलिस बल का संचालन राज्य सरकार में निहित और व्यवहार्य है इसलिए तो राज्य सरकार के पास जांच का निर्देश देने की शक्ति है।

उन्होंने खंडपीठ को बताया कि‌ फिर भी मजिस्ट्रेट, जिसने क्लोज़र का आदेश पारित किया था, को एफआईआर को दोबारा खोले जाने की सूचना दी गई थी ताकि वह मामले की निगरानी कर सके। (सकीरी वासु बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य के संदर्भ में)

उन्होंने कहा कि मामले में मजिस्ट्रेट ने धारा 164 के तहत बयान भी दर्ज किए थे और उन बयानों की रिकॉर्डिंग की अनुमति देने का मतलब है कि मजिस्ट्रेट जांच के खोले जाने के बारे में जानते हैं और उसे मंजूरी दी है।

पीड़िता का निष्पक्ष और पूर्ण जांच का अधिकार

शिकायतकर्ता की दुर्दशा की चर्चा करते हुए, जिसने अपने पिता और दादी को खो दिया, देसाई ने कहा कि वह लगभग एक साल से "न्याय के लिए दरवाजे खटखटा" रही थी।

उन्होंने कहा, "आज राज्य सबूत जुटाने की प्रक्रिया में है। अनुच्छेद 14 पीड़िताा पर भी लागू होता है। पीड़िताा को भी निष्पक्ष और पूर्ण जांच का मौलिक अधिकार है ... फरवरी से, पीड़िता (अदन्या नाइक) न्याय के लिए दरवाजे खटखटा रही है। पीड़िता को ट्विटर में क्लोजर रिपोर्ट के बारे में पता चला... याचिकाकर्ता के पास अधिकार हैं, पीड़िता के पास भी अधिकार हैं। यह राज्य का कर्तव्य है कि वह पीड़िता और आरोपी के अधिकारों को संतुलित करे।"

उन्होंने कहा कि जब जांच चल रही हो तो उसे रोका नहीं जा सकता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि एक सुसाइड नोट है, जिस पर लोगों के नाम है और इस प्रकार यह एक ऐसा मामला है जिसकी जांच की जानी चाहिए।

नारायण मल्हारी थोराट बनाम विनायक देवरा भगत पर भरोसा कायम किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने आत्महत्या के एक मामले को रद्द करने के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट की आलोचना की थी, जहां सुसाइड नोट में आरोपी का नाम था।

कल सुनवाई खत्‍म होने के बाद, पीठ ने अंतरिम जमानत पर आदेश सुरक्षित रखा। आदेश कल दोपहर 3 बजे सुनाए जाएंगे।

सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे और अबद पोंडा ने गोस्वामी के लिए अंतरिम जमानत की मांग थी, लेकिन पीठ ने इसे मंजूरी देने से इनकार कर दिया। पीठ ने स्पष्ट किया कि हाईकोर्ट में मामले के लंब‌ित रहने तक याचिकाकर्ता संबंधित अदालत के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के तहत नियमित जमानत के लिए आवेदन कर सकता है। यदि ऐसा कोई आवेदन किया जाता है, तो अदालत ने आदेश दिया, उसको संबंधित अदालत द्वारा दाखिल करने के चार दिनों के निस्तार‌ित किया जाना चाहिए।

वहीं, गोस्वामी को आज अलीबाग से तलोजा जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। रिपोर्टों के अनुसार, पुलिस ने कहा कि उसे ‌हिरासत में किसी और के फोन पर सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते पाए जाने के बाद स्थानांतरित किया गया।

गोस्वामी को एक स्थानीय स्कूल में रखा गया था, जिसे अलीबाग जेल के लिए COVID-19 सेंटर बनाया गया है।

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