अपंजीकृत परिवारिक समझौता पक्षकारों के खिलाफ पूर्ण विबंध (Estoppel) के रूप में काम करेगा-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर कोई पारिवारिक समझौता पंजीकृत नहीं है तो भी यह उन सभी मूल पक्षकारों के खिलाफ पूर्ण विबंध या एस्टापल के रूप में काम करेगा जो इस समझौते के पक्षकार थे।
जस्टिस एल.नागेरश्वरा राॅव व जस्टिस एम.आर शाह की पीठ इस मामले में उस अपील (थुलसिधारा बनाम नारायणप्पा) पर सुनवाई कर रही थी जो कर्नाटक हाईकोर्ट के एक आदेश के खिलाफ दायर की गई थी। हाईकोर्ट ने निचली दोनों अदालतों के फैसले को पलटते हुए कहा था कि दस्तावेज डी 4 जिसे पालुपति की तरह प्रदर्शित किया गया है,का पंजीकरण जरूरी है। जबकि निचली दोनों अदालतों ने कहा था कि इसके पंजीकरण की जरूरत नहीं है। निचली अदालत व पहली अपीलेट कोर्ट ने इसी कागजात के आधार पर मामले में दायर केस या सूट को खारिज कर दिया था।
हाईकोर्ट के आदेश का विरोध करते हुए प्रतिवादियों ने शीर्ष कोर्ट के समक्ष दलील दी कि भले ही पारिवारिक समझौते का पंजीकरण न हुआ हो, तो भी यह उन सभी मूल पक्षकारों के खिलाफ पूर्ण विबंध या एस्टापल के रूप में काम करेगा जो इस समझौते के पक्षकार थे।
उन्होंने इसके लिए काले और अन्य बनाम डिप्टी डायरेक्टर आॅफ कंसोलिडेशन और अन्य केस में दिए गए फैसले का हवाला दिया।
पीठ ने कहा कि दस्तावेज डी-4 को पालुपति कहा जा सकता है,जिसका मतलब है बंटवारे की संपत्तियों की सूची। इसे एक पारिवारिक समझौता भी कहा जा सकता है,जिसके पंजीकरण की जरूरत नहीं थी।
सुब्रह्ा एम.एन बनाम विट्ठला एम.एन केस का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि पंजीकरण के बिना भी परिवार के निपटारे/परिवार की व्यवस्था के लिखित दस्तावेज का उपयोग,इस दस्तावेज के तहत की गई व्यवस्था की व्याख्या करने व पक्षकारों के आचरण को स्पष्ट करने के लिए सहयोगी सबूत के तौर पर प्रयोग किया जा सकता है।
हाईकोर्ट के विष्कर्ष परिणाम को पलटते हुए पीठ ने कहा कि-
''यह ध्यान देने की जरूरत है िकइस मामले में डीड या दस्तावेज 23 अप्रैल 1971 का है,जिसके तहत विवादित संपत्ति को कृष्णाप्पा के पक्ष में लिखा गया था। यह दस्तावेज पंचायत व पंचों के समक्ष तैयार किया गया था,जिस पर गांव के लोग/पंचायत के लोगों के हस्ताक्षर है। इतना ही नहीं इस पर परिवार के सभी सदस्यों के भी हस्ताक्षर है,जिनमें याचिकाकर्ता भी शामिल था। उसके बावजूद भी याचिकाकर्ता ने बंटवारे पर आपत्ति जताई और कहा कि दस्तावेज डी-4 में कोई बंटवारा नहीं लिखा गया था,जबकि मामले में पेश सभी सबूतों व याचिकाकार्त के बयान,जिसमें उसने मौखिक तौर पर खुद माना है कि यह दस्तावेज 1971 में तैयार किया गया था। इतना ही नहीं उसने खुद माना है कि उसे उसका हिस्सा मिल गया है,जिसकी पुष्टि 23 अप्रैल 1971(दस्तावेज डी-4) को तैयार दस्तावेज से हो रही है। वहीं 23 अप्रैल 1971 को तैयार दस्तावेज/बंटवारे का कागज/पालुपति के बनाए जाने की बात विभिन्न गवाहों के बयान से साबित हो गई है। परंतु हाईकोर्ट ने इन कागजात पर सिर्फ इस आधार पर विचार करने से इंकार कर दिया कि इसका पंजीकरण नहीं हुआ है।
हालांकि यह कोर्ट पहले की काले(सुपरा) के केस में मान चुकी है कि पारिवारिक समझौतों का भले की पंजीकरण न हुआ हो,वह इस समझौते में शामिल सभी पक्षकारों खिलाफ पूर्ण विबंध या एस्टापल के रूप में काम करेगा।