दिल्ली हाईकोर्ट ने ठहराया बिहार सरकार को एक आईएएस अधिकारी के जीवन व स्वतंत्रता को पीड़ित या अत्याचार करने के लिए जिम्मेदार [निर्णय पढ़े]

Update: 2019-07-12 06:40 GMT

दिल्ली हाईकोर्ट बिहार के उस आईएएस अधिकारी के बचाव में आ गया है,जिसे राज्य सरकार ने इसलिए व्यवस्थित रूप से लक्षित किया या निशाना बनाया क्योंकि वह राज्य के परिवहन माफिया के खिलाफ अपनी ईमानदारी का धर्मयुद्ध लड़ रहा था। जस्टिस ज्योति सिंह व जस्टिस विपिन सांघी की पीठ ने राज्य सरकार की इस बात के लिए आलोचना की है कि उसने आईबी द्वारा खराब तरीके से निष्पादित रिपोर्ट के आधार पर अधिकारी को अंतर-कैडर हस्तांतरण या तबादले के तहत हरियाणा जाने से रोक दिया। उसके जीवन व स्वतंत्रता को खतरा होने के बावजूद भी उस पर लगातार अत्याचार का कारण बनी।

इस मामले में बिहार की विजिलेंस ब्यूरों ने अधिकारी को भ्रष्टाचार के झूठे मामले में फंसा दिया क्योंकि वह परिवहन माफिया के खिलाफ लड़ रहा था। भ्रष्टाचार के मामले में बरी होने के बाद अधिकारी ने आईएएस कैडर रूल्स 1954 के रूल 5(2) के तहत हरियाणा में अंतर-कैडर तबादले की मांग की। उसने बताया कि उसके व उसके परिवार के जीवन व स्वतंत्रता को खतरा है। इससे पहले उसने राज्य सरकार से एक बाॅडी गार्ड उपलब्ध कराने की भी मांग थी,परंतु वह भी उसे नहीं दिया गया। उसके तबादले की मांग को केंद्र सरकार से आईबी की एक रिपोर्ट के आधार पर खारिज कर दिया क्योंकि आईबी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि उसे किसी तरह का कोई खतरा नहीं है। इसके बाद अधिकारी ने केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण के समक्ष एक अर्जी दायर की और सरकार के निर्णय को चुनौती दी। अधिकरण ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि अधिकारी की मांग पर फिर से विचार किया जाए और राज्य सरकार से कहा कि वह अधिकारी के तबादले के लिए अपनी सहमति दे दे। परंतु राज्य सरकार ने अंतर-कैडर के तहत तबादले के लिए अपनी सहमति देने की बजाय केंद्रीय नियुक्ति के अपनी सहमति भेज दी,जिसे केंद्र सरकार ने उम्मीदवार की अपात्रता के तहत खारिज कर दिया। जिसके बाद हाईकोर्ट के समक्ष याचिका दायर की गई।
दिल्ली हाईकोर्ट ने पाया कि राज्य सरकार ने आईबी की रिपोर्ट पर विश्वास गलती की है क्योंकि वह रिपोर्ट जमीनी हकीकत से बहुत दूर थी। वह रिपार्ट उन जांच-पड़ताल पर आधारित थी कि क्या अधिकारी ने उन पर हुए किसी हमले की कोई शिकायत की है या नहीं। जो कि धमकी या खतरे के मामले की जांच के लिए अपनाया गया गलत तरीका था।कोर्ट ने कहा कि-
''खतरे का मूल्यांकन हाल की घटनाओं के आधार पर किया जाना चाहिए और इसका मूल्यांकन उन लोगों द्वारा किया जाना है,जो यह कार्य करने के लिए उचित या तर्कसंगत हो। जो सभी प्रासंगिक और संबंधित परिस्थितियों और पिछली घटनाओं को ध्यान में रख सके।''
कोर्ट ने राज्य सरकार द्वारा जानबूझकर अधिकारी के जीवन व स्वतंत्रता को कमजोर या दुर्बल करने के मामले पर भी प्रकाश ड़ाला,जो उनके अनुरोधों को संभालने के इतिहास से स्पष्ट है। अधिकारी को उसका वेतन,भत्ते या एरियर नहीं दिए गए। उसकी एपीएआर रेटिंग को भी जानबूझकर कम आंका गया। इतना ही नहीं राज्य सरकार ने अधिकरण के आदेश को भी दरनिकार किया। अंतर-कैडर तबादले के लिए सहमति न भेजकर राज्य सरकार ने केंद्रीय नियुक्ति के लिए अपनी सहमति भेज दी। जबकि उनको पता था कि उनकी इस सहमति को केंद्र सरकार अपात्रता के आधार पर खारिज कर देगी।कोर्ट ने कहा कि-
''सभी मौलिक अधिकारों में जीवन व स्वतंत्रता का अधिकार सबसे बहुमूल्य है क्योंकि अगर इस अधिकार की रक्षा नहीं की गई तो अन्य अधिकारों को कोई मूल्य या मतलब नहीं रह जाएगा। क्या हमारे में हाथ में जो स्थिति है,उसके प्रति अपनी आंख बंद कर सकते है और ऐसी स्थिति आने का इंतजार करे जब असल में कोई अनहोनी घटना हो जाए और भगवान न करे अधिकारी या उसके परिवार को कोई नुकसान पहुंचा दिया जाए। हमारा मानना है कि अगर हम ऐसे मामलों में काम नहीं करेंगे,जहां मामले के तथ्य सहायता के लिए रो रहे है,तो हम अपनी संवैधानिक ड्यूटी निभाने में फेल हो जाएंगे।''
कोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया है कि वह अधिकारी को पांच लाख रुपए मुआवजे के तौर पर दे। कोर्ट ने माना है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले अधिकारों में जीवन व स्वतंत्रता का अधिकार सबसे पवित्र या अटूट अधिकार है।इसलिए अनुच्छेद 226 का प्रयोग करते हुए हाईकोर्ट ने अनुच्छेद 21 के तहत मिले मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने के मामले में मुआवजा देने का आदेश दिया है। इस अनुच्छेद का प्रयोग हाईकोर्ट लोक कानून अधिकारक्षेत्र के तहत गलत काम करने वाले को दंडित करने और उस राज्य का दायित्व तय करने,जो अपने अधिकारी या नागरिकों और उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के अपने सार्वजनिक निर्वहन में विफल रही है,के लिए कर सकती है।
इसी के साथ कोर्ट ने आदेश दिया है कि राज्य सरकार ने जो केंद्रीय नियुक्ति के लिए अपनी सहमति भेजी है,उसे अंतर-राज्य कैडर के लिए सहमति माना जाए।हालांकि कैडर के निर्णय को वरियता या प्राथमिकता देने का काम केंद्र सरकार के अधीन है और कोर्ट उसके लिए निर्देश जारी नहीं कर सकती है।

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