आप एक समुदाय को टारगेट नहीं कर सकते और उन्हें एक विशेष तरीके से ब्रांड नहीं कर सकते: सुप्रीम कोर्ट ने सुदर्शन टीवी के शो 'यूपीएससी ज़िहाद' पर रोक लगाई
सुप्रीम कोर्ट ने सुदर्शन टीवी को मुसलमानों द्वारा संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाएं पास करने पर आधारित अपने विवादित कार्यक्रम 'बिंदास बोल' की बची हुई कड़ियों को अगले आदेश तक प्रसारण करने से रोक दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी प्रथम दृष्टया टिप्पणी में कहा कि काय्रक्रम का उद्देश्य मुस्लिमानों को अपमानित करना है।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, इंदु मल्होत्रा और केएम जोसेफ की पीठ ने मंगलवार को शो के प्रसारण पर रोक लगाने के लिए दायर याचिका पर सुनवाई की। सुदर्शन टीवी के मुख्य संपादक सुरेश चव्हाणके द्वारा आयोजित शो के खिलाफ याचिका में आरोप लगाया गया था कि यह यूपीएससी में मुसलमानों के प्रवेश को सांप्रदायिक रूप दे रहा था।
"इस स्तर पर, प्रथम दृष्टया, अदालत को यह प्रतीत होता है कि कार्यक्रम का उद्देश्य मुस्लिम समुदाय का अपमान करना है, यह चित्रित करने का कपटपूर्ण प्रयास है कि मुसलमानों का संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं को पास करना सिविल सेवाओं में घुसपैठ का प्रयास है।"
Justice Chandrachud asks Shyam Divan to defer the telecast of the show until the court hears the matter day after tomorrow.
— Live Law (@LiveLawIndia) September 15, 2020
Divan : I staunchly resist it as a freedom of speech issue.#SudarshanNews #SureshChavhanke
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि उक्त कार्यक्रम में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में मुसलमानों की अधिकतम आयु सीमा और प्रयासों की संख्या के बारे में तथ्यात्मक रूप से गलत बयान दिए गए थे।
कोर्ट ने कहा, "संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों के शासन के तहत स्थिर लोकतांत्रिक समाज की स्थापना समुदायों के सह-अस्तित्व पर आधारित है। भारत सभ्यताओं, संस्कृतियों और मूल्यों का मिश्रण है। किसी समुदाय को अपमानित करने के किसी भी प्रयास को इस न्यायालय द्वारा समर्थन नहीं किया जाना चाहिए, जो कि संवैधानिक अधिकारों का संरक्षक है।"
चैनल और चव्हाणके की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दिवान ने यह कहते हुए टेलीकास्ट पर रोक का विरोध किया कि प्रसारण पर रोक का आदेश फ्री स्पीच का उल्लंघन करेगा।
उन्होंने दावा किया कि यह शो "खोजी पत्रकारिता" का हिस्सा है और इस बात से इन्कार किया कि कार्यक्रम के जरिए मुस्लिम समुदाय का अपमान किया जा रहा है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यह शो एक ऐसे पत्रकार के बारे में है जो विदेशी चंदे के बारे में खुलासा करता है जो ऐसे विदेशी स्रोतों से आ रहा है, जिनमें रिश्ते भारत के साथ मित्रवत नहीं है।
जब दिवान ने कहा कि यह फ्री स्पीच का मुद्दा है तो जस्टिस चंद्रचूड़ ने असहमति दर्ज की।
उन्होंने कहा, "यह फ्री स्पीच का मुद्दा नहीं है। जब आप कहते हैं कि जामिया के छात्र सिविल सेवाओं में घुसपैठ करने की साजिश का हिस्सा हैं, तो यह स्वीकार्य नहीं है। आप एक समुदाय को लक्षित नहीं कर सकते हैं और उन्हें एक विशेष तरीके से ब्रांड नहीं कर सकते हैं। यह एक समुदाय को बदनाम करने का दुर्भावनापूर्ण प्रयास है।"
जज ने कहा, "राष्ट्र के सर्वोच्च न्यायालय के रूप में, हम आपको यह कहने की अनुमति नहीं दे सकते हैं कि मुस्लिम नागरिक सेवाओं में घुसपैठ कर रहे हैं। आप यह नहीं कह सकते कि पत्रकार को पूर्ण स्वतंत्रता है।"
हस्तक्षेपकर्ताओं की ओर से पेश एडवोकेट शादान फरासत ने शो के आपत्तिजनक हिस्सों के स्क्रीनशॉट की ओर बेंच का ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने कहा कि शो के चार एपिसोड 11 से 14 सितंबर को प्रसारित किए गए थे और शेष एपिसोड 15 से 20 सितंबर तक प्रसारित किए जाने थे।
एक अन्य हस्तक्षेपकर्ता की ओर से पेश एडवोकेट शाहरुख आलम ने कहा कि यह शो भाषण के दायरे से बाहर चला गया है, यह अपने दर्शकों से सक्रिय बातचीत का आग्रह करता है, जो अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ कट्टर विचारों को प्रसारित कर रहे हैं।
सेवानिवृत्त सिविल सेवकों के एक समूह की ओर से पेश एडवोकेट गौतम भाटिया ने कहा कि हेट स्पीच से निपटते हुए पूर्व संयम के खिलाफ विचार करना अलग मुद्दा है।
भाटिया ने कहा, "घृणा भाषण विचारों के मुक्त बाजार के विचार को कमजोर कर देते हैं। लक्षित समुदाय को प्रतिक्रिया देने या बचाव करने के अवसर से वंचित किया जाता है। घृणा भाषण के मामले में पूर्व संयम पर विचार अलग है"।
सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि न्यायालय को केवल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक सीमित न रखते हुए मामले के व्यापक मुद्दों पर विचार करना चाहिए।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने सॉलिसिटर जनरल से पूछा कि मंत्रालय से किसी ने 11 सितंबर से 14 सितंबर तक टेलीकास्ट होने वाले शो के चार एपिसोड पर अपना दिमाग लगाया था तो एसजी ने जवाब दिया कि उन्हें इस पहलू पर निर्देश लेना होगा।
इससे पहले लंच से पहले की सुनवाई में जस्टिस चंद्रचूड़ ने शो के खिलाफ तीखी टिप्पणियां की थी। उन्होंने कहा था, "यह कार्यक्रम बहुत कपटपूर्ण है। एक विशेष समुदाय के नागरिक जो एक ही परीक्षा से गुजरते हैं और एक ही पैनल को साक्षात्कार देते हैं। यह यूपीएससी परीक्षा पर भी सवाल उठाता है। हम इन मुद्दों से कैसे निपटते हैं? क्या इसे बर्दाश्त किया जा सकता है?"
जस्टिस चंद्रचूड़ ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, "... यह कैसे इतना कट्टर हो सकता है? ऐसे समुदाय को लक्षित करना जो सिविल सेवाओं में शामिल हो रही है!",
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने श्याम दीवान से कहा, "हम आपके मुवक्किल से कुछ संयम की उम्मीद करते हैं, निस्संदेह आपको समय देंगे। आपका मुवक्किल जो कर रहा है, उसे राष्ट्र का नुकसान हो रहा है",
पीठ ने इस तथ्य पर भी विचार किया कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को राष्ट्रीय सुरक्षा और स्थिरता को खतरे में डालने के लिए एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है और नियमों को लागू करने की आवश्यकता पर विचार किया।
जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा, "कोई भी स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं है, पत्रकारिता की स्वतंत्रता भी नहीं है।"
Justice Joseph refers to the program code and says that it prohibits telecast of shows "promoting communal attitude".
— Live Law (@LiveLawIndia) September 15, 2020
That is against the diversity and harmony of our country, Justice Joseph.#SudarshanNews
याचिकाकर्ता फिरोज इकबाल खान की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अनूप चौधरी ने कहा, यह शो "स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक" है, वहीं वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने कहा कि यह राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित एक खोजी रिपोर्ट थी।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि मीडिया को विनियमित करना बहुत मुश्किल होगा और यह लोकतंत्र के लिए विनाशकारी हो सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि "कट्टर" चीजें अक्सर दोनों सिरों से बोली जाती हैं, "मैं इसके दाएं और बाएं हिस्से में नहीं जाना चाहता।"
हालांकि 28 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने शो का प्रसारण रोकने के लिए पूर्व-प्रसारण निषेधाज्ञा जारी करने से इनकार कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन ऑफ इंडिया, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन और सुदर्शन न्यूज को नोटिस जारी किए थे।
अदालत ने कहा था कि उसे "49-सेकंड क्लिप के असत्यापित प्रतिलेख" के आधार पर प्रसारण पूर्व निषेधाज्ञा लागू करने से बचना होगा। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और केएम जोसेफ की पीठ ने कहा कि याचिका ने 'संवैधानिक अधिकारों की रक्षा' पर महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए हैं।
"प्रथम दृष्टया, याचिका संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण पर असर डालने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाती है। मुक्त भाषण और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के साथ, न्यायालय को स्व-विनियमन के मानकों की स्थापना पर एक विचारशील बहस को बढ़ावा देने की आवश्यकता होगी। मुक्त भाषण के साथ, ऐसे अन्य संवैधानिक मूल्य हैं, जिन्हें संतुलित और संरक्षित करने की आवश्यकता है, जिसमें नागरिकों के हर वर्ग के लिए समानता और निष्पक्ष उपचार का मौलिक अधिकार शामिल है।"
याचिकाकर्ता ने कहा कि कार्यक्रम के दौरान विचारों का प्रसारण केबल टेलीविजन नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम 1995 के तहत नैतिकता और समाचार प्रसारण मानक विनियमों के साथ, प्रोग्राम कोड का उल्लंघन होगा।
मामले में पूर्व सिविल सेवकों द्वारा एक हस्तक्षेप आवेदन भी दायर किया गया था, जो 'घृणास्पद भाषण' के कार्रवाई की मांग कर रहा था।
"माननीय न्यायालय के समक्ष यह व्याख्यात्मक कार्य है कि, वह उस भाषण, जो केवल अपमानजनक, खराब है, इसलिए अनुच्छेद 19 (1) (a) के तहत कवर किया गया है और घृणास्पद भाषण, जिसे अनुच्छेद 153 A और B और अन्य प्रावधानों, के तहत उचित रूप से दंडित किया गया है, में अंतर करे।"
भारतीय संवैधानिक प्रावधानों, मिसालों, अंतर्राष्ट्रीय और तुलनात्मक संवैधानिक कानूनों के सर्वेक्षण बाद हस्तक्षेपकर्तओं ने लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार का प्रस्ताव दिया था-
-आक्रामक भाषण घृणा भाषण से अलग है;
-संविधान आपत्तिजनक भाषण की रक्षा करता है लेकिन घृणा भाषण की रक्षा नहीं करता है। आईपीसी की धारा 153 ए और 153 बी की व्याख्या की जानी चाहिए, जिससे दोनों के बीच अंतर साफ हो सके।
-आक्रामक भाषण केवल भाषण है जो अपराध या आक्रोश की व्यक्तिपरक भावनाओं का कारण बनता है और इससे ज्यादा कुछ नहीं। इस तरह के भाषण को गलत, नासमझ और अनुचित माना जा सकता है लेकिन यह अवैध नहीं है।
-घृणा भाषण अपराध की व्यक्तिपरक भावनाओं से परे जाता है और निष्पक्ष रूप से संवैधानिक समानता को कम करने का प्रभाव पैदा करता है, एक संदेश भेजता है कि एक व्यक्ति या लोगों का एक समूह बराबर के योग्य नहीं है और समाज के बराबरी के हकदार नहीं हैं...।
-अभद्र भाषा के निर्धारण में, इसलिए, न्यायिक और अन्य राज्य निकायों द्वारा एक प्रासंगिक जांच की आवश्यकता है, (a) इस्तेमाल किए गए वास्तविक शब्द, (b) के अर्थ जो वे इच्छित प्राप्तकर्ता को मिलती हैं, (c) समान भाषा का कोई भी इतिहास, (d)और संभावित परिणाम।
-अभद्र भाषा प्रत्यक्ष (हिंसा और भेदभाव के लिए आवह्न) हो सकती है, लेकिन यह अप्रत्यक्ष, माध्यम से, आग्रह के साथ भी हो सकती है, और जो डॉग-ह्विसलिंग के रूप में लोकप्रिय है। इसलिए, न्यायिक निकायों के लिए प्रश्न में भाषण की बारीकियों और विशिष्ट इतिहास के प्रति संवेदनशील होना आवश्यक है।
-आपत्तिजनक भाषण और नफरत के बीच अंतर को निम्नलिखित उदाहरणों की मदद से समझा जा सकता है:
i) आलोचना, मजाक, और सम्मानित और श्रद्धेय धार्मिक या सांस्कृतिक प्रतीकों का उपहास करना अपमानजनक हो सकता है लेकिन यह घृणा भाषण नहीं है। किसी धार्मिक या सांस्कृतिक समुदाय के सदस्यों का बहिष्कार करने का आह्वान करना या उनका यह कहना कि वे स्वभाव से हिंसक हैं या उनका समुदाय राष्ट्रविरोधाा है, घृणा फैलाने वाला भाषण है।
ii) धार्मिक विश्वासों या परंपराओं का मजाक उड़ाना अपमानजनक हो सकता है लेकिन यह घृणा भाषण नहीं है। किसी भी विश्वास के सदस्यों के प्रति दोहरी निष्ठा का आरोप - और विश्वास के आधार पर विश्वासघात का सुझाव - घृणास्पद भाषण का गठन करता है।
iii) भाषण जो उत्पीड़न और अधीनता की प्रथाओं से ऐतिहासिक रूप से अविभाज्य रहा है, घृणास्पद भाषण है। (देखें माननीय न्यायालय द्वारा अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत "चमार" शब्द के उपयोग की जांच, स्वराण सिंह बनाम राज्य)
इससे पहले, दिल्ली हाईकोर्ट ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों और पूर्व छात्रों के एक समूह द्वारा दायर याचिका का निपटारा किया था, सूचना और प्रसारण मंत्रालय को कार्यक्रम कोड के कथित उल्लंघन के लिए चैनल को भेजे गए नोटिस पर निर्णय लेने के लिए कहा था। । शो के टेलीकास्ट पर मंत्रालय के अंतिम निर्णय तक रोक थी।
अपने आदेश में हाईकोर्ट के जस्टिस नवीन चावला एक प्रथम दृष्टया अवलोकन किया था कि शो के ट्रेलर ने प्रोग्राम कोड का उल्लंघन किया है। 10 सितंबर को, केंद्र ने यह देखने के बाद कि सामग्री को प्रोग्राम कोड का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, शो के प्रसारण की अनुमति दी थी। इसके बाद 11 सितंबर को इस शो का प्रसारण हुआ।