एक आपराधिक मुकदमे में एक गवाह की गवाही को केवल मामूली विरोधाभासों या चूक के कारण खारिज नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एक आपराधिक मुकदमे में एक गवाह की गवाही को केवल मामूली विरोधाभासों या चूक के कारण खारिज नहीं किया जा सकता है।
मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना, न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए चिकित्सा साक्ष्य का बहुत अधिक पुष्टिकारक महत्व है।
कोर्ट पटना हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर विचार कर रही थी, जिसमें ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित निर्णय को संशोधित करते हुए अपीलकर्ता-आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 307 से धारा 324 (धारा 34 के साथ पठित) के तहत दोषी ठहराया गया था और शस्त्र अधिनियम की धारा 27 के तहत उनकी सजा की पुष्टि की गई थी।
अपील में, यह तर्क दिया गया था कि अभियोजन पक्ष के गवाहों द्वारा दिए गए विरोधाभासी बयानों ने अभियोजन की कहानी की वास्तविकता पर संदेह की एक गंभीर छाया डाली और इस प्रकार, अपीलकर्ताओं को गलत तरीके से दोषी ठहराया गया है और वे आरोप मुक्त किये जाने के हकदार हैं।
कोर्ट ने रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों का हवाला देते हुए कहा कि हाथ या पैर पर लगी चोटों के संबंध में घटना के समय को लेकर मामूली विरोधाभास हैं, लेकिन गवाहों का निरंतर कथन यह है कि अपीलकर्ता बंदूकों के साथ हथियारबंद घटनास्थल पर मौजूद थे और उन्होंने शिकायतकर्ता को घायल किया।
"हालांकि, एक आपराधिक मुकदमे में एक गवाह की गवाही को केवल मामूली विरोधाभासों या चूक के कारण खारिज नहीं किया जा सकता है, जैसा कि 'नारायण चेतनराम चौधरी और अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार' मामले में इस कोर्ट द्वारा कहा गया है। इस कोर्ट ने गवाही में विरोधाभासों के मुद्दे पर विचार करते हुए एक आपराधिक मुकदमे में सबूत का मूल्यांकन करते हुए, यह माना कि केवल तथ्यात्मक विवरणों में विरोधाभास गवाहों की गवाही को अविश्वसनीय मानने का आधार हो सकता है, न कि मामूली विरोधाभास।"
कोर्ट ने यह भी कहा कि अभियोजन के मामले की पुष्टि करने के लिए एक चिकित्सा गवाह का साक्ष्य मूल्य बहुत महत्वपूर्ण है। अदालत ने कहा कि इस मामले में जांच किए गए डॉक्टर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि शिकायतकर्ता को लगी सभी चोटें आग्नेयास्त्रों के कारण हुई थीं।
यह केवल प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही पर एक जाँच नहीं है, यह स्वतंत्र गवाही भी है, क्योंकि यह अन्य मौखिक साक्ष्यों से बिल्कुल अलग कुछ तथ्यों को स्थापित कर सकता है। इस कोर्ट द्वारा यह बार-बार कहा गया है कि अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए चिकित्सा साक्ष्य का बहुत अधिक पुष्टि मूल्य है क्योंकि यह साबित करता है कि चोटें कथित तरीके से हुई हो सकती हैं।
अपील को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष के गवाहों के साक्ष्य स्थापित करते हैं कि दो अपीलकर्ताओं ने शिकायतकर्ता के शरीर पर चोट पहुंचाई है।
अपील खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा,
" इस प्रकार, दो अपीलकर्ताओं के खिलाफ सीआरपीसी की धारा 324 के तहत आरोप स्थापित होता है। एक बार अपीलकर्ताओं के खिलाफ धारा 324 आईपीसी के तहत स्वेच्छा से आग्नेयास्त्र से चोट पहुंचाने का आरोप स्थापित हो जाता है, जो एक खतरनाक हथियार है, तो वे शस्त्र अधिनियम की धारा 27 द्वारा निर्धारित हथियारों का उपयोग करने की सजा से बच नहीं सकते हैं।"
मामले का विवरण
अनुज सिंह @ रामानुज सिंह @ सेठ सिंह बनाम बिहार सरकार | 2022 लाइव लॉ (एससी) 402 | सीआरए 150/2020 | 22 अप्रैल 2022
कोरम: सीजेआई एनवी रमना, जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस हिमा कोहली
अधिवक्ता: अपीलकर्ता के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता अंजना प्रकाश, प्रतिवादी राज्य के लिए अधिवक्ता अभिनव मुखर्जी, अधिवक्ता साकेत सिंह और हस्तक्षेपकर्ता के लिए अधिवक्ता गौरव अग्रवाल
हेडनोट्स
आपराधिक मुकदमा - एक आपराधिक मुकदमे में एक गवाह की गवाही को केवल मामूली विरोधाभासों या चूक के कारण खारिज नहीं किया जा सकता है - केवल तथ्यात्मक विवरणों में विरोधाभास गवाहों की गवाही को अविश्वसनीय बनाने का आधार हो सकता है, न कि मामूली विरोधाभास। [संदर्भ :- 'नारायण चेतनराम चौधरी और अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार (2000) 8 एससीसी 457] (पैरा 17)
आपराधिक मुकदमा -
अभियोजन द्वारा पेश किए गए चिकित्सा साक्ष्य का बहुत अधिक पुष्टिकारक महत्व है क्योंकि यह साबित करता है कि चोट कथित तरीके से हुई हो सकती है - यह केवल प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही की पड़ताल नहीं है, यह स्वतंत्र गवाही भी है, क्योंकि यह अन्य मौखिक साक्ष्यों से बिल्कुल अलग कुछ निश्चित तथ्य स्थापित कर सकता है। (पैरा 18)
भारतीय दंड संहिता, 1860; धारा 324 - निम्नलिखित अवयवों की उपस्थिति अनिवार्य है जो इस प्रकार हैं:- 1. अभियुक्त द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को स्वेच्छा से चोट पहुँचाना, और 2. ऐसी चोट पहुँचाई गयी। (पैरा 21)
भारतीय दंड संहिता, 1860; धारा 324 - शस्त्र अधिनियम, 1950; धारा 27 - एक बार अपीलकर्ताओं के खिलाफ धारा 324 आईपीसी के तहत स्वेच्छा से आग्नेयास्त्र से चोट पहुंचाने का आरोप स्थापित हो जाता है, जो एक खतरनाक हथियार है, वे शस्त्र अधिनियम की धारा 27 द्वारा निर्धारित हथियारों का उपयोग करने की सजा से बच नहीं सकते हैं। (पैरा 22)
सारांश – सुप्रीम कोर्ट पटना उच्च न्यायालय के उस फैसले के खिलाफ अपील पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित निर्णय को संशोधित करते हुए अपीलकर्ता-आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 307 से धारा 324 (धारा 34 के साथ पठित) के तहत दोषी ठहराया गया था और शस्त्र अधिनियम की धारा 27 के तहत उनकी सजा की पुष्टि की गई थी।
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