सुप्रीम कोर्ट ने कथित तौर पर सीमा पार ड्रग्स तस्करी की अनुमति देने के लिए बीएसएफ कमांडेंट पर लगाई गई सजा को रद्द किया

Update: 2023-04-15 02:00 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले और आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें बीएसएफ एक्ट और एनडीपीएस एक्ट के विभिन्न प्रावधानों के तहत बीएसएफ के एक पूर्व कमांडेंट की दोषसिद्धि को इस आधार पर बरकरार रखा गया था कि उसके खिलाफ कोई प्रत्यक्ष और पुख्ता सबूत नहीं है।

जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की खंडपीठ ने कहा,

"अपीलकर्ता के खिलाफ प्रत्यक्ष और ठोस साक्ष्य के अभाव में, भले ही जीएसएफसी अपीलकर्ता के अपराध के प्रति आश्वस्त था, दी गई सजा बहुत कठोर थी, इस बात पर ध्यान देते हुए कि अपीलकर्ता, तब भी, पहली बार अपराधी होगा, और आदतन अपराधी नहीं हो । यह तर्क हो सकता है कि आरोपों में सच्चाई की कुछ झलक है, फिर भी हमारे विचार से जो सजा दी गई, वह अनुपातहीन थी।"

तथ्य

अपीलकर्ता 1956 बटालियन (बीएन) (बीएसएफ) के कमांडेंट के रूप में कार्यरत थे, जिसका हेडक्वार्टर पंजाब में ममदोट के पास था। 5 अप्रैल, 1995 को स्थानीय पुलिस ने तलाशी ली और एसिटिक एनहाइड्राइड के कुछ जेरीकैन पाकिस्तान स्थित क्षेत्र और सीमा से लगे भारतीय नागरिकों खेतों में पाए गए बताए गए। उक्त पदार्थ नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेंस एक्ट, 1985 की धारा 9ए के तहत एक नियंत्रित पदार्थ है।

स्थानीय पुलिस ने लखविंदर सिंह और सुरजीत सिंह उर्फ पहलवान नामक दो व्यक्तियों को आरोपी के रूप में नामजद करते हुए और उन्हें तस्कर दिखाते हुए पुलिस स्टेशन फिरोजपुर, पंजाब में एक एफआईआर दर्ज की थी।

7 अप्रैल, 1995 को अपीलकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि, अपीलकर्ता के घर की तलाशी में कोई आपत्तिजनक सामग्री बरामद नहीं हुई।

9 अप्रैल, 1995 को एक जांच का आदेश दिया गया था जिसमें दर्ज किया गया था कि एक इंस्पेक्टर दीदार सिंह, जिनके पास उस क्षेत्र का कमांड और कंट्रोल था, जिसके आसपास कथित जेरीकैन्स बरामद किए गए थे, ने बयान दिया कि वह इस घटना में अपीलार्थी के कहने पर शामिल हुआ था।

जांच रिपोर्ट के आधार पर, अपीलकर्ता को 4 जुलाई, 1995 को सीमा सुरक्षा बल अधिनियम, 1968 (बीएसएफ अधिनियम) की धारा 40 (अच्छी व्यवस्था और अनुशासन का उल्लंघन) और धारा 46 (नागरिक अपराध) के तहत चार्जशीट किया गया था, जिसे बाद में हटा दिया गया।

20 अक्टूबर, 1995 को एक नया आरोप पत्र दायर किया गया था, जिसमें बीएसएफ अधिनियम की धारा 46 के तहत दो आरोप शामिल थे, जो कि एनडीपीएस एक्ट की धारा 25 (अपराध करने के लिए उपयोग किए जाने वाले परिसर आदि की अनुमति के लिए सजा) के उल्लंघन में किए गए नागरिक अपराध के लिए थे। बीएसएफ एक्ट की धारा 40 के तहत एक चार्ज और शामिल किया गया।

इस बीच अपीलकर्ता 31 साल, 6 महीने और 22 दिनों तक बल में सेवा देने के बाद 31 अगस्त, 1995 को सेवानिवृत्त हो गया।

10 अप्रैल, 1996 को सामान्य सुरक्षा बल न्यायालय (GSFC) ने अपीलकर्ता को दोषी ठहराया और उसे 10 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई; एक लाखा रुपये का जुर्माना लगाया और उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया।

अपीलकर्ता ने संबंधित प्राधिकरण के समक्ष वैधानिक याचिका दायर की जिसे 2 नवंबर, 1996 को खारिज कर दिया गया।

अपीलकर्ता ने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के समक्ष अपने मुकदमे और विवादित आदेश को रद्द करने के लिए एक आपराधिक रिट याचिका दायर की और सभी परिणामी आदेशों को रद्द करने और पेंशन और अन्य लाभों को जारी करने के निर्देश मांगे।

इस बीच, अन्य सह-अभियुक्त लखविंदर सिंह को किसी सबूत के अभाव में निचली अदालत ने आरोप मुक्त कर दिया। हाईकोर्ट ने उक्त रिट याचिका को खारिज कर दिया जिसे उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी।

निष्कर्ष

न्यायालय ने अपने विभिन्न निर्णयों पर भरोसा करते हुए कहा कि अर्धसैनिक बलों सहित सशस्त्र बलों में अत्यधिक अनुशासन और कमांड की एकता अनिवार्य है लेकिन आनुपातिकता का सिद्धांत अभी भी लागू है।

न्यायालय द्वारा यह राय दी गई थी कि अपीलकर्ता को केवल सूबेदार दीदार सिंह द्वारा दिए गए बयान के आधार पर दोषी ठहराया गया था - जिसने अपीलकर्ता के इशारे पर और उसके निर्देश पर घटना में अपनी संलिप्तता स्वीकार की थी, पूरी तरह से अनुचित था।

न्यायालय ने कहा, जैसा कि यहां पहले जोर दिया गया है, सूबेदार दीदार सिंह के बयान को छोड़कर, अपीलकर्ता को फंसाने के लिए उनके खिलाफ कोई सामग्री नहीं है। इसलिए, अन्य सामग्री के बिना, जो अपीलकर्ता या उसके अपराध की ओर इशारा करती हों, अकेले एक व्यक्ति का बयान, उसकी दोषसिद्धि का आधार नहीं होना चाहिए।

अदालत ने कहा,

"हाईकोर्ट को यह संज्ञान लेना चाहिए था कि उठाए गए मुद्दों की गंभीरता को देखते हुए, उसे सबूतों की छानबीन करने की शक्ति से वंचित नहीं किया गया था, यहां तक कि एक आपराधिक रिट याचिका में भी।"

न्यायालय ने नवाब शकाफत अली खान बनाम नवाब इमदाद जाह बहादुर (2009) 5 एससीसी 162 में अपने फैसले पर भरोसा किया और दोहराया कि अनुच्छेद 226 और/या 227 के तहत हाईकोर्ट को अपने विवेक का प्रयोग करना है।

इस प्रकार, अदालत ने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के आक्षेपित फैसले और आदेश के साथ-साथ जीएसएफसी द्वारा दी गई सजा को रद्द कर दिया।

इसने आगे कहा कि अपीलकर्ता को उसकी सेवानिवृत्ति की तारीख से आज तक पूर्ण सेवानिवृत्ति लाभों का हकदार ठहराया गया है और निर्देश दिया कि उसे देय सभी भुगतानों को संसाधित किया जाएगा और बारह सप्ताह के भीतर किया जाएगा।

केस टाइटल: बीएस हरि कमांडेंट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य।

साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (एससी) 303


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