सुप्रीम कोर्ट ने दुबई कोर्ट के आदेश पर उठाए सवाल, कहा- नाबालिग बच्चे पर यात्रा प्रतिबंध लगाना मानवाधिकार का उल्लंघन

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक विदेशी कोर्ट के आदेश पर कड़ी असहमति जताई। उक्त आदेश में एक ऐसे बच्चे पर यात्रा प्रतिबंध लगाया गया था, जिसके माता-पिता वैवाहिक विवाद में शामिल थे। कोर्ट ने कहा कि ऐसे आदेश "अत्याचारी", मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले और घर में नजरबंद करने के समान हैं।
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की खंडपीठ बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले पर विचार कर रही थी, जिसमें याचिकाकर्ता-पिता ने अपने बेटे की कस्टडी मांगी थी। इसमें आरोप लगाया गया कि उसकी पूर्व पत्नी उसकी जानकारी के बिना परिवार के दुबई स्थित घर से बच्चे को ले गई। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि इसके बाद दुबई कोर्ट ने बेटे पर यात्रा करने पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था।
आदेश पर आपत्ति जताते हुए जस्टिस सूर्यकांत ने याचिकाकर्ता के वकील से कहा:
"[यह ऐसा मामला है] जहां पत्नी को वस्तुतः एकांत कारावास में रखा जा रहा है, फिर आपने एक न्यायालय से आदेश प्राप्त किया, क्योंकि वे न्यायालय इस तरह के अत्याचारी आदेश पारित करने के लिए जाने जाते हैं। यह मानवाधिकारों का पूर्ण उल्लंघन है... कि आपको देश से बाहर जाने की अनुमति नहीं है। मानवाधिकारों, नागरिक अधिकारों में दृढ़ता से विश्वास करने वाला कोई भी न्यायालय यह आदेश पारित नहीं करेगा कि आपको और बच्चे को इस स्थान से बाहर जाने से रोका जाए। यह घर में कैद करने या जेल में डालने के बराबर है। इसे हाउस अरेस्ट के रूप में जाना जाता है! क्या कोई न्यायालय किसी दोषी के बिना एकांत कारावास का आदेश पारित कर सकता है [...]? और आप चाहते हैं कि हम इस देश में उस आदेश का पालन करें! कृपया ऐसा न करें...
याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए सीनियर एडवोकेट निखिल गोयल की दलीलें सुनने के बाद न्यायालय ने मुलाकात के अधिकार (और अन्य सहायक राहत) प्रदान करने की सीमा तक सीमित नोटिस जारी किया।
सुनवाई के दौरान जस्टिस कांत ने गोयल से यह दिखाने के लिए कहा कि दुबई में रह रहा परिवार किस तरह से काम कर रहा है। उन्होंने पूछा कि जिस न्यायालय ने तलाक का आदेश जारी करते हुए याचिकाकर्ता को बच्चे की कस्टडी दी थी, उसके पास अधिकार क्षेत्र है। जब गोयल ने उत्तर दिया कि पक्षकार दुबई में रह रहे हैं तो जज ने पलटवार करते हुए कहा कि पक्षकार फैमिली कोर्ट को अधिकार क्षेत्र नहीं दे सकते। यह देखा गया कि पति और पत्नी ईसाई है और वह शरिया कानून से बंधे नहीं हैं।
जस्टिस कांत ने टिप्पणी की,
"उस न्यायालय द्वारा तलाक याचिका पर विचार करने का कोई सवाल ही नहीं था।"
इस बिंदु पर गोयल ने जोर देकर कहा कि दुबई कोर्ट ने कहा कि वह गैर-मुस्लिम कानून पर विचार करेगा। अंततः, जस्टिस कांत ने उनसे कहा कि राहत पर निर्णय लेने से पहले न्यायालय याचिकाकर्ता के आचरण, बच्चे के कल्याण (उसे अच्छी शिक्षा प्रदान की जा रही है या नहीं आदि) और याचिकाकर्ता को मिलने-जुलने का अधिकार मिलने के बारे में खुद को संतुष्ट करेगा।
जज ने यह भी टिप्पणी की कि मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट का निर्णय सही था। हाईकोर्ट ने अपने इस निर्णय में मुद्दों को तय करने का काम फैमिली कोर्ट पर छोड़ दिया था।
केस टाइटल: एक्स बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य।