एक देश की यात्रा करने की अनुमति मांगकर उसके बजाय दूसरे देशों में जाना कदाचार : दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि चिकित्सा की मजबूरी के आधार पर नियोक्ता से एक देश की यात्रा करने की अनुमति मांगकर इसके बजाय विभिन्न देशों में जाना कादाचार या दुव्र्यवहार के समान है। ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू की जा सकती है।
एक अंजू बाला की याचिका पर फैसला सुनाते हुए यह टिप्पणी न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत ने की है। अंजू की सेवाएं बतौर प्रबंधक के रूप में प्रतिवादी, गेल (इंडिया) लिमिटेड द्वारा समाप्त कर दी गई थी।
अंजू ने अपनी बेटी के इलाज के लिए चीन जाने के लिए प्रतिवादी से चाइल्ड केयर लीव ली थी, लेकिन यह पाया गया कि उसने चीन, सिंगापुर, मलेशिया, हांगकांग, बैंकाक आदि की यात्रा की थी।
कोर्ट ने कहा कि-
''याचिकाकर्ता ने अपनी बेटी के इलाज के लिए चीन जाने की अनुमति मांगी थी, लेकिन स्वीकृत तथ्य या सच्चाई ये है कि उसने विभिन्न देशों की यात्रा की है, जबकि इसके लिए प्रतिवादियों से पूर्व अनुमति नहीं ली गई थी। इस प्रकार बिना अनुमति के विभिन्न देशों में जाना एक कदाचार है। इसलिए प्रतिवादियों को पूछताछ या जांच शुरू करने के लिए स्वतंत्रता है। अगर उन्हें उचित लगता है तो नए सिरे से कदम उठाए जाए और याचिकाकर्ता को भी सुनवाई का अवसर दिया जाए।''
बहरहाल, यह देखते हुए कि याचिकाकर्ता ने वास्तव में अपनी बेटी का सबसे अच्छा इलाज कराने के लिए गेल से अनुमति लेने के बाद देश छोड़ा था। न्यायमूर्ति कैत ने कहा कि इससे यह प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि याचिकाकर्ता की अनुपस्थिति स्वेच्छा से या जानबूझकर थी।
कोर्ट ने कहा कि-
''याचिकाकर्ता को आपातकालीन स्थिति में देश छोड़ना पड़ा था। और फिर उसे अपनी इच्छाओं के खिलाफ विपरीत परिस्थितियों में वहां रहना पड़ा। दूसरे शब्दों में, याचिकाकर्ता द्वारा विदेश यात्रा पर जाना आकस्मिक और मजबूरी था और यह उसने स्वेच्छा से नहीं की थी। फिर भी उसने अपनी बेटी का उपचार चीन में कराया।''
मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, (1978) 1 एससीसी 248 मामले में दिए गए फैसले का हवाला देते कहा गया कि नियमों के अनुसार विदेश यात्रा के लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता थी, परंतु याचिकाकर्ता के पास नियमों के गैर अनुपालन के लिए एक न्यायसंगत स्पष्टीकरण है, इसलिए मेडिकल इमरजेंसी के चलते चाइल्ड केयर लीव पर विदेश की यात्रा पर जाना स्वेच्छा से या जानबूझकर नहीं माना जा सकता है।
सतीश चंद्र वर्मा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एंड अदर्स, 2019 (2) एससीटी 741 (एससी) मामले में दिए गए फैसले का भी संदर्भ दिया गया था। यह दावा करने के लिए कि याचिकाकर्ता को विदेश यात्रा करने का मौलिक अधिकार था, विशेष रूप से जब उसने विदेश की यात्राओं में बारे में प्रतिवादियों को सूचित कर दिया था और छुट्टी बढ़ाने के लिए भी आवेदन किया था।
याचिकाकर्ता को राहत देते हुए, अदालत ने उस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया है जिसमें उसने सेवाओं के सभी लाभ के साथ उसे फिर से नौकरी पर रखने की मांग की थी। अदालत ने कहा कि पहली बार कंपनी द्वारा उसकी सेवाएं समाप्त करने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया विसंगतियों से ग्रसित थी।
अदालत ने याचिकाकर्ता की उन दलीलों के प्रति सहमति जताई,जिनमें कहा गया था कि प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता को बाल देखभाल अवकाश या चाइल्ड केयर लीव स्वीकृत की थी। परंतु शपथ पत्र की कमी के लिए चलते इनको रद्द करने के लिए उसे कभी सूचित नहीं किया गया था। इसके अलावा, प्रतिवादियों द्वारा तैयार की गई चार्जशीट भी कभी भी याचिकाकर्ता को नहीं दी गई थी।
अदालत ने कहा कि-
''जब याचिकाकर्ता की छुट्टी रद्द करने और उसे ड्यूटी फिर से ज्वाइन करने का निर्देश देने के लिए कोई आदेश पारित की नहीं किया गया था। जबकि विधिवत रूप से स्वीकृत छुट्टी केवल चार्जशीट में रद्द कर दी गई थी। ऐसे में याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई कदाचार का आरोप नहीं लगाया जा सकता है और न ही उक्त आरोप पत्र जारी किया जा सकता है।''
यूनियन ऑफ इंडिया व अन्य बनाम दीनानाथ शांताराम कारेकर और अन्य, एआईआर 1988 एससी 2722 का भी हवाला दिया गया। इस मामले में माना गया था कि चार्जशीट की वास्तविक सेवा के अभाव में, पूरी कार्यवाही को रद्द या समाप्त कर दिया जाता है।
सीसीएल प्राप्त करने के लिए शपथ पत्र प्रस्तुत न करने के संबंध में, अदालत ने कहा,
''सीसीएल यानि चाइल्ड केयर लीव के लिए आवेदन करते समय हलफनामे की आवश्यकता के बारे में ,जब याचिकाकर्ता को इस तरह के किसी भी हलफनामे को प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं थी और उसे छुट्टी की विधिवत मंजूरी दे दी गई थी, तो कल्पना करके ,कोई यह नहीं कह सकता है कि दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया गया,जबकि असल में वह दस्तावेज कभी मांगा ही नहीं गया था। ऐसे में याचिकाकर्ता ने चीन जाकर कोई कदाचार या दुव्र्यवहार नहीं किया है।''
अदालत ने याचिकाकर्ता की इन दलीलों के साथ भी सहमति व्यक्त की कि किसी भी परिस्थिति में, क्या नियुक्ति प्राधिकारी या नियुक्त करने वाले प्राधिकारी के अधीनस्थ प्राधिकरण, याचिकाकर्ता को उसकी सेवा से हटाने का आदेश पारित कर सकता था ? या किसी भी परिस्थिति में, नियुक्ति प्राधिकारी या नियुक्त करने वाले प्राधिकारी के अधीनस्थ प्राधिकरण, याचिकाकर्ता को उसकी सेवा से हटाने का आदेश पारित नहीं कर सकता था।
गेल ने इस संबंध में तर्क दिया था कि गेल के कर्मचारी ''सरकार के कर्मचारी'' नहीं हैं और इसलिए अनुच्छेद 311 (1) के तहत वह शासनादेश इस मामले में लागू नहीं होता है कि निष्कासन /बर्खास्तगी की सजा का आदेश नियुक्ति प्राधिकारी या नियुक्त करने वाले प्राधिकारी के अधीनस्थ प्राधिकरण नहीं दे सकता है।
आगे कहा गया कि गेल कर्मचारी (आचरण, अनुशासन और अपील) नियम, 1986 के तहत कार्यकारी निदेशक को अधिकारी ई -4 ग्रेड के लिए अनुशासनात्मक प्राधिकारी के रूप में निर्धारित किया गया है। इस प्रकार अनुशासनात्मक प्राधिकरण को चार्जशीट जारी करने के लिए नियुक्ति प्राधिकारी होने की आवश्यकता नहीं है। हालांकि एक प्राधिकारी नियुक्ति प्राधिकारी के अधीनस्थ है,लेकिन यदि वह आरोपित अधिकारी से वरिष्ठ है तो प्रभारी ज्ञापन जारी करने के लिए सक्षम है।
हालाँकि, अदालत ने 'यूपी राज्य बनाम राम नरेश राय, (1970) 3 एससीसी 173',मामले के अनुपात पर विश्वास जताया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि- ''... एक सरकारी अधिकारी को बर्खास्त करने के लिए नियुक्त अधिकारी के अलावा अन्य अधिकारी को शक्ति प्रदान की जा सकती है। बशर्ते वह नियुक्ति कार्यालय या प्राधिकारी के पद से अधीनस्थ न हो।''
साथ ही अदालत ने याचिकाकर्ता की सेवाओं को सभी परिणामी लाभों के साथ बहाल करने का निर्देश दिया था और उस अवधि के लिए 50 प्रतिशत का वेतन भी देने के लिए था,जिसमें उसने काम नहीं किया था।
याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व एडवोकेट ए.के. भारद्वाज के साथ एडवोकेट जागृति सिंह और गेल का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता वी.के. गर्ग के साथ एडवोकेट नूपुर दुबे और अमित कुमार ने किया।
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