आरोपी को बचाव का मौका देने के लिए उसके सामने अभियोगात्मक सामग्री रखना आवश्यक, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का फैसला

Update: 2019-08-28 02:35 GMT

"अभियोगात्मक सामग्री (incriminating material) को अभियुक्त के समक्ष रखा जाना चाहिए, जिससे आरोपी को अपना बचाव करने का उचित मौका मिले। यह 'ऑडी अल्टेरम पार्टम' के सिद्धांतों के अनुरूप है।" यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने एक केस की सुनवाई के दौरान की।

सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया है कि जो भी अभियोगात्मक सामग्री साक्ष्य में सामने आई है, उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत उसके परीक्षण के दौरान अभियुक्त के सामने रखी जानी चाहिए, जिससे आरोपी को अपने बचाव का पूरा मौका मिले।

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ की पीठ ने कहा कि यह 'ऑडी अल्टेरम पार्टम' के सिद्धांतों की मान्यता में है, जिससे आरोपी को अपना बचाव करने का उचित मौका मिले।

इस मामले (समसूल हक बनाम असम राज्य) में शीर्ष अदालत के समक्ष दी गयी दलील यह थी कि यदि आरोपी के समक्ष CrPC की धारा 313 के तहत उसके बयान में परिस्थितियां नहीं रखी गई हैं, तो उन्हें पूरी तरह से अदालत के विचार से बाहर रखा जाना चाहिए क्योंकि अभियुक्त के पास उन्हें समझाने का कोई मौका नहीं था। यह कहा गया कि पूछे गए प्रश्न वास्तव में अभियुक्त के सामने अभियोजन के मामले को अनिवार्य रूप से नहीं रखते हैं। इस विवाद से सहमत होकर, पीठ ने देखा:

"अभियोगात्मक सामग्री (incriminating material) को अभियुक्त के समक्ष रखा जाना चाहिए, जिससे आरोपी को अपना बचाव करने का उचित मौका मिले। यह 'ऑडी अल्टेरम पार्टम' के सिद्धांतों के अनुरूप है।"

"पूर्वोक्त टिप्पणियों को करते हुए, इस न्यायालय ने शिवाजी साहबराव बोबड़े बनाम महाराष्ट्र राज्य में 3 न्यायाधीशों की पीठ के अपने पहले के फैसले का भी उल्लेख किया, जिसमें अभियुक्त के समक्ष, अभियोजन पक्ष के साक्ष्यों में मौजूद एवं आरोपी के खिलाफ जाने वाली परिस्थिति को लेकर एक महत्वपूर्ण परिस्थिति पर सवाल न रखने को एक चूक माना गया था, और यह देखा गया था कि यह एक आवश्यकता है कि आरोपी का ध्यान प्रत्येक अभियोगात्मक सामग्री की ओर आकर्षित किया जाए ताकि वह उसे समझा सके। आमतौर पर ऐसी स्थिति में, जो सामग्री आरोपी के समक्ष नहीं रखी गयी है उस सामग्री को हटा या त्याग दिया जाना चाहिए।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह माना जाता है कि जहां CrPC की धारा 313 के तहत एक अनिवार्य परीक्षण को असावधानी पूर्वक किया गया है, वह मामला ट्रायल कोर्ट को फिर से ट्रायल करने हेतु प्रेषित किया जा सकता है, इस निर्देश के साथ कि मामला उस चरण से शुरू किया जाए जिस चरण पर अभियोजन पक्ष ने अपना मामला खत्म किया था।"

अपील में एक और विवाद यह था कि आईपीसी की धारा 109 (आईपीसी की धारा 107 के लिए सजा का प्रावधान) के तहत आरोपित व्यक्ति को आईपीसी की धारा 34 के तहत मुख्य अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। पीठ ने कहा:

"IPC की धारा 34 एक अलग अपराध नहीं बनाती है और यह अभियुक्त की भागीदारी है जिसके चलते अपराध करने का इरादा स्थापित होता है और तब IPC की धारा 34 आकर्षित होती है। आईपीसी की धारा 34 की सहायता से एक व्यक्ति की अपराध में भागीदारी को सिद्ध करने हेतु, अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि आपराधिक कृत्य, एक से अधिक लोगों की वास्तविक भागीदारी के द्वारा किया गया था और यह कृत्य तयशुदा रूप से सभी भागीदार लोगों के सामान आशय (common intention) से किया गया था।"

अंत में रिकॉर्ड पर मौजूद सबूत को ध्यान में रखते हुए पीठ ने आरोपी को बरी कर दिया। 


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