मिलावटी हल्दी पाउडर बेचने के आरोपी को सुप्रीम कोर्ट ने किया बरी, 38 साल पुराने आपराधिक मामले का अंततः किया निपटारा

Update: 2020-07-31 05:24 GMT

Supreme Court of India

सुप्रीम कोर्ट ने 38 साल पहले शुरू हुए एक आपराधिक मामले का अंततः निपटारा करते हुए मिलावटी हल्दी पाउडर बेचने के आरोपी को बरी कर दिया।

कोर्ट ने अन्य चीजों के अलावा इस बात का उल्लेख किया कि इस मामले में सरकारी विश्लेषक ने इस बात का उल्लेख नहीं किया कि हल्दी पाउडर के नमूने में कीड़े लगे थे या वह मानव उपभोग के योग्य नहीं था। इस तरह के मंतव्य के अभाव में खाद्य अपमिश्रण निरोेधक कानून, 1954 की धारा 2(1ए)(एफ) के मानदंड पूरा किया हुआ नहीं कहा जा सकता।

मिलावटी हल्दी पाउडर बेचने के लिए प्रेमचंद को 1982 में खाद्य अपमिश्रण निरोधक कानून की विभिन्न धाराओं के तहत आरोपित किया गया था।

सरकारी विश्लेषक की रिपोर्ट में कहा गया था कि इकट्ठा किये गये नमूने में चार जीवित झींगुर और दो जिंदा घुन पाये गये थे। आरोपी के खिलाफ ट्रायल कोर्ट में 13 साल तक आपराधिक मामला चला था, लेकिन वह बरी हो गया।

सरकार ने हाईकोर्ट में अपील दायर की थी, जिसने नौ दिसम्बर 2009 को फैसला सुनाते हुए आरोपी को दोषी करार दिया था और छह माह की जेल की सजा सुनायी थी।

प्रेमचंद ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी और कहा था कि सरकारी विश्लेषक ने अपनी रिपोर्ट में कहीं उल्लेख नहीं किया था कि हल्दी पाउडर का नमूने में 'कीड़े-मकोड़े'थे या वह 'मानव उपभोग की दृष्टि से उपयुक्त' नहीं था।

न्यायमूर्ति एन वी रमन, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की खंडपीठ ने एक दशक से अधिक समय के बाद अपील मंजूर करते हुए रिकार्ड में दर्ज साक्ष्यों के हवाले से कहा,

"हमने देखा है कि मेडिकल आफिसर (वादकर्ता का गवाह संख्या 2) की जिरह से इस बात का खुलासा हुआ है कि उसे आंखों से सामान्य तौर पर देखने पर नमूने में कोई घुन/कीड़ा नहीं मिला था। यद्यपि खाद्य निरीक्षक (वादकर्ता का गवाह संख्या 1) ने कहा था कि नमूने को अगले ही दिन सरकारी विश्लेषक को भेज दिया गया था, लेकिन इससे संबंधित पार्सल रसीद को उपलब्ध नहीं कराया गया था। सरकारी विश्लेषक के कार्यालय में 20 अगस्त 1982 को नमूना प्राप्त हो गया था और 18 दिन के विलम्ब से सात सितम्बर 1982 को रिपोर्ट तैयार हुई थी। इस बात का कोई साक्ष्य भी मौजूद नहीं है कि इस कथित अवधि के दौरान नमूने से छेड़छाड़ नहीं की गयी, इसलिए संदेह का लाभ अभियुक्त के पक्ष में जाता है।

इतना ही नहीं, सरकारी विश्लेषक की रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख नहीं किया गया है कि नमूने में 'कीड़े-मकोड़े़ थे या यह 'मानव उपभोग के लिए उपयुक्त़ नहीं था। इस तरह के विश्लेषण के अभाव में अभियोजन पक्ष खाद्य अपमिश्रण कानून की धारा 2(1ए)(एफ) की आवश्यकताओं को स्थापित करने में असफल रहा है (देखेः- दिल्ली प्रशासन बनाम सत स्वरूप शर्मा, 1994 एसयूपीपी (3) एससीसी4 324)

साथ ही, अभियोजन पक्ष द्वारा न तो ट्रायल कोर्ट में और न ही हाईकोर्ट में ही संबंधित अधिनियम की धारा 16(एक) के तहत अपराध साबित करने के लिए कोई साक्ष्य भी प्रस्तुत किया गया था।"

केस नं.: क्रिमिनल अपील नं. 2255/2010

केस नाम: प्रेमचंद बनाम हरियाणा सरकार

कोरम: न्यायमूर्ति एन वी रमन, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी

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