सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा: पंजीकृत दस्तावेज प्रामाणिक माना जाता है, गड़बड़ी साबित करने का दारोमदार प्रामाणिकता को चुनौती देने वाले पर
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर कहा है कि किसी दस्तावेज को प्रामाणिक माना जाता है यदि वह पंजीकृत है और इसमें गड़बड़ी साबित करने का दारोमदार उस व्यक्ति पर होता है जो संबंधित पंजीकृत दस्तावेज की प्रामाणिकता को चुनौती देता है।
वर्ष 2001 में दायर इस मुकदमे में वादी (महिला) का आरोप था कि बचाव पक्ष ने पिता की मौत के बाद सम्पत्ति को दाखिल खारिज कराने के लिए दस्तावेज तैयार कराने के नाम पर 1990 में सादे कागज पर उसके हस्ताक्षर ले लिये थे। ट्रायल कोर्ट और प्रथम अपीलीय अदालत ने मुकदमा खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने संबंधित फैसलों को पलटते हुए वादी के पक्ष में फैसला सुनाया था।
हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर अपील में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह मुद्दा था कि क्या वादी द्वारा 1990 में किया गया जनरल पॉवर ऑफ अटर्नी और सेल डीड्स धोखाधड़ी और जालसाजी का परिणाम है? इस सवाल की जांच करते हुए, बेंच ने 'प्रेम सिंह एवं अन्य बनाम बीरबल 8 (2006) 5 एससीसी 353' मामले में दिये गये फैसले का उल्लेख किया जिसमें कहा गया था कि ऐसा माना जाता है कि कोई भी पंजीकृत दस्तावेज वैध तरीके से निष्पादित किया गया होता है। कोर्ट ने 'अनिल ऋषि बनाम गुरबक्श सिंह (2006) 5 एससीससी 558' मामले में दिये गये फैसले का भी उल्लेख किया, जिसमें यह व्यवस्था दी गयी थी कि प्रामाणिकता साबित करने का दारोमदार हटाने के लिए केवल संबंधों में विश्वास की वकालत करने से अधिक की आवश्यकता होगी और इसे ठोस साक्ष्य पेश करके साबित किया जाना चाहिए। रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों का हवाला देते हुए कोर्ट ने निष्कर्ष दिया कि प्रतिवादियों के भरोसे के दुरुपयोग के तथ्य को साबित करने में वादी विफल रही है।
इस मामले में एक अन्य मुद्दा यह था कि क्या वादी द्वारा दायर किये गये मुकदमे लिमिटेशन (निर्धारित समय सीमा) के भीतर थे? कोर्ट ने इस बारे में भी लिमिटेशन एक्ट, 1963 की धारा 17 में वर्णित लिमिटेशन पर धोखाधड़ी के प्रभाव को लेकर भी विचार विमर्श किया। न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी की बेंच ने कहा :
"इसलिए लिमिटेशन एक्ट 1963 की धारा 17 के इस्तेमाल के लिए दो चीजों पर विचार किया जाना और उसे साबित करना जरूरी होता है। पहली चीज- धोखाधड़ी की मौजूदगी और दूसरी- इस तरह की धोखाधड़ी का पता चलना। मौजूदा मामले में, वादी धोखाधड़ी की मौजूदगी स्थापित करने में विफल रही है, इसलिए धोखाधड़ी का पता लगाने का कोई औचित्य नहीं है। इस प्रकार, वादी को इस प्रावधान के तहत लाभ नहीं दिया जा सकता है।"
हाईकोर्ट के फैसले को निरस्त करते हुए और अपील मंजूर करते हुए बेंच ने आगे कहा :
"मौजूदा मामले में, यद्यपि 1990 के जनरल पावर ऑफ अटर्नी (जीपीए) में विसंगतियां कुछ संदेह पैदा करती हैं, लेकिन धोखाधड़ी के समर्थन में वादी द्वारा ठोस सबूत उपलब्ध करा पाने में विफलता के कारण इस मामले को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। बल्कि, इस मामले में गवाह, मुंशी और अन्य स्वतंत्र गवाह स्पष्ट तौर पर बचाव पक्ष के मामले का समर्थन करते हैं। यदि कोई संदेह है भी तो ये साक्ष्य संदेह को दूर कर देते हैं और न्याय का तराजू डिफेंडेंट्स के पक्ष में झुका देते हैं। 81. यह समझने के लिए पर्याप्त है कि वादी धोखाधड़ी के आरोप को साबित नहीं कर सकी, इसलिए ये मुकदमे लिमिटेशन कानून द्वारा प्रतिबंधित हैं। 82. जैसा कि 1990 के जीपीए के अनुरूप बाद के खरीदारों के स्वत्वाधिकार (टाइटल) साबित हो गये थे, इनकी प्रामाणिकता पर संदेह करने का कोई कारण नजर नहीं आता।"
केस का नाम : रतन सिंह बनाम निर्मल गिल [सिविल अपील नंबर 3681 – 3682 / 2020]
कोरम : न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी
वकील : सीनियर एडवोकेट टी एस दोआबिया, एडवोकेट जगजीत सिंह छाबड़ा, सुभाशीष भौमिक
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