अहमदाबाद शहर में नियमित रूप से धारा 144 लगाने के ख़िलाफ़ याचिका

Update: 2019-12-29 06:32 GMT

गुजरात हाईकोर्ट में अहमदाबाद शहर में सीआरपीसी की धारा 144 और गुजरात पुलिस अधिनियम की धारा 37 के तहत बार-बार प्रतिबंध लगाए जाने के ख़िलाफ़ एक याचिका दायर की गई है। याचिका में कहा गया है कि ऐसा शहर में शांति और व्यवस्था को किसी तरह का तत्काल ख़तरा नहीं होने के बावजूद किया जा रहा है।

"यह आदेश याचिकाकर्ता और अन्य निर्दोष नागरिकों के अधिकार पर ग़ैरआनुपातिक प्रतिबंध है जबकि वे किसी भी तरह से आम जीवन में शांति और व्यवस्था के लिए ख़तरा नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि धारा 144 ग़लत कार्य करनेवालों के ख़िलाफ़ ही जारी की जानी चाहिए न कि सहूलियतों और लाभ के लिए निर्दोष नागरिकों के ख़िलाफ़ इसका प्रयोग किया जाना चाहिए," याचिकाकर्ता ने कहा।

याचिका में कहा गया कि अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त शहर में धारा 144 के एक का आदेश ख़त्म होने से पहले ही दूसरा आदेश जारी कर देते हैं और इस तरह अप्रैल 2016 से लगातार शहर में इस तरह का प्रतिबंध जारी है।

"धारा 144(4) के अनुसार, इस धारा के तहत जारी कोई भी आदेश जारी होने की तिथि से दो महीने से ज़्यादा समय तक वैध नहीं रहता। जीपी अधिनियम की धारा 37(3) के प्रावधानों के अनुसार, राज्य सरकार की अनुमति के बिना कोई भी इस तरह की कोई निषेधाज्ञा 15 दिनों से अधिक समय तक लागू नहीं रह सकता है।" याचिका में कहा गया है।

धारा 144 ज़िला मजिस्ट्रेट या किसी भी कार्यपालक मजिस्ट्रेट को राज्य सरकार की ओर से यह अधिकार है कि वह किसी व्यक्ति या आम लोगों को किसी क्षेत्र या किसी जगह पर "कुछ विशेष कार्य" को करने से रोकने का आदेश दे सकता है अगर उस मजिस्ट्रेट को लगता है कि उसके निर्देश से :

क़ानून के तहत नियुक्त व्यक्ति को रोकने, परेशान करने या उसको नुक़सान पहुँचाने से रोका जा सकता है

मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा के ख़तरे को रोका जा सकता है

आम जीवन की शांति भंग करने का प्रयास या दंगा को रोका जा सकता है

याचिकाकर्ता ने कहा कि बार बार यह आदेश जारी करने का मतलब यह है कि अधिकारी की नज़र में वर्षों से इस शहर में इस तरह के आसन्न ख़तरे को टालने की ज़रूरत रही है।

याचिकाकर्ता ने कहा,

"…यह आदेश इस बारे में कुछ नहीं कहता कि इस तरह के आदेश के पीछे तथ्य क्या हैं। इसमें सिर्फ़ यह कहा जाता है कि आयुक्त की नज़र में आम जीवन में व्यवस्था बनाए रखने की ज़रूरत है। किसी ठोस तथ्य के अभाव में इस तरह की राय बनाना इसे ग़ैरक़ानूनी ठहराता है। यह भी कहा गया कि प्रतिवादी नम्बर 2 की राय भी काल्पनिक है जो किसी वस्तुनिष्ठ तथ्य पर आधारित नहीं है और यह अपने संतोष के लिए वैधानिक अर्हता को यंत्रवत दुहराने जैसा है ।" 

यह आरोप लगाया गया है कि आदेश के तहत अहमदाबाद शहर में सार्वजनिक स्थल पर सामाजिक मिलन या गाने या संगीत बजाने को भी अपराध बना दिया गया है; और इसलिए ये आदेश स्पष्ट रूप से मनमाना और भेदभावपूर्ण है। याचिकाकर्ता ने कहा कि इस तरह के आदेश ऐसे लोगों के रास्ते में आता है जो नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध करते हुए सत्ताधारी पार्टी के ख़िलाफ़ अपनी शांतिपूर्ण असहमति दिखाना चाहते हैं और इस तरह यह उनके असहमति होने के अधिकार का अतिक्रमण है।

यह भी कहा गया कि इन आदेशों को उचित तरीक़े से अधिसूचित भी नहीं किया गया या उसे सार्वजनिक सूचना के रूप में जारी भी नहीं किया गया और इस तरह से इस संदर्भ में क़ानून का उल्लंघन हुआ है।

याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि यह आदेश अनुच्छेद 19(1) के तहत अहमदाबाद के निवासियों के मौलिक अधिकारों का अकारण अतिक्रमण है…उनको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण ढंग से सभा करने और स्वतंत्र होकर घूमने-फिरने के उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है।

…यह आदेश अनुच्छेद 19(2)-(4) के तहत उचित प्रतिबंध नहीं है क्योंकि यह राज्य के वैधानिक हित में जारी नहीं किया जाता है," याचिकाकर्ता ने कहा। इस बारे में श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2013) 12 SCC 73 मामले में आए फ़ैसले का संदर्भ दिया गया।

याचिकाकर्ता ने या भी कहा कि ये आदेश बिना किसी अधिकार के जारी किए जा रहे हैं और इस तरह ख़राब क़ानून के तहत आता है।

"धारा 144 के अधीन ज़िला मजिस्ट्रेट, सबडिविजनल मजिस्ट्रेट या किसी भी कार्यपालक मजिस्ट्रेट को है जिसे सरकार ने ऐसा अधिकार दिया है। पर यह आदेश पुलिस आयुक्त जारी किया जाता है और इसलिए यह उसके क्षेत्राधिकार के बाहर है और इसे बिना किसी अधिकार के जारी किया गया है," याचिकाकर्ता ने कहा।

यह भी कहा गया कि यह आदेश सुप्रीम कोर्ट के इस स्थापित सिद्धांत का भी उल्लंघन करता है कि राज्य ऐसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध नहीं लगा सकता जो कि नुक़सानदायक नहीं है और जिससे हिंसा नहीं भड़क सकती है।

याचिकाकर्ता ने रमेश थापर बनाम मद्रास राज्य 1950 SCR 594 मामले में आए फ़ैसले का भी हवाला दिया।

याचिकाकर्ता ने इन दलीलों के साथ अदालत से आग्रह किया कि सीआरपीसी और गुजरात पुलिस अधिनियम के उपरोक्त प्रावधानों के तहत जारी किए गए इस आदेश को निरस्त किया जाए और प्रतिवादी अथॉरिटीज़ को यह निर्देश दिया जाए कि आगे अगर इस तरह का आदेश जारी किया जाता है तो इस आदेश की प्रतियाँ प्रमुख जगहों पर लगाई जाए और अख़ाबरों में इसके बारे में इस्तहार दिया जाए, और रेडियो, टेलिविज़न पर प्रचारित प्रसारित करने के अलावा ट्विटर, फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर गुजराती और अंग्रेज़ी में इसे साझा किया जाए। 


आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें




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