विभागीय कार्यवाही में न्यायिक पुनर्विचार के चरण में साक्ष्यों की फिर से सराहना नहीं हो सकतीः सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि संवैधानिक न्यायालय न्यायिक पुनर्विचार की शक्ति के प्रयोग में मामले का फैसला ऐसे नहीं कर सकता कि जैसे यह मामले का पहला चरण हो, कि जैसे जांच अभी भी की जा रही हो और जांच रिपोर्ट तैयार की जा रही हो। एक अनुशासनात्मक कार्यवाही में न्यायिक पुनर्विचार के चरण में साक्ष्यों की फिर से सराहना नहीं हो सकती हैअनुशासनात्मक कार्यवाही में न्यायिक पुनर्विचार के चरण में साक्ष्यों की फिर से सराहना नहीं हो सकती हैजैसे कि आपराधिक मुकदमे में अगली ऊंची अदालत सजा की फिर से जांच कर रही हो।
जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस राजेश बिंदल की खंडपीठ ने द इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन और अन्य बनाम अजीत कुमार सिंह और अन्य का फैसला सुनाया और हाईकोर्ट द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें विभागीय कार्यवाही में एक कर्मचारी को दी गई सजा को हाईकोर्ट ने इंट्रा-कोर्ट अपील के स्तर पर सबूतों की फिर से जांच करके रद्द कर दिया था।
खंडपीठ ने उप महाप्रबंधक (अपीलीय प्राधिकरण) बनाम अजय कुमार श्रीवास्तव, (2021) 2 एससीसी 612 पर भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि न्यायिक पुनर्विचार में एक संवैधानिक न्यायालय केवल निर्णय लेने की प्रक्रिया का मूल्यांकन कर सकता है, न कि निर्णय की योग्यता का। उसे ट्रीटमेंट में निष्पक्षता सुनिश्चित करना है, न कि निष्कर्ष की निष्पक्षता सुनिश्चित करना है।
तथ्य
इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन (अपीलकर्ता) ने 30.06.2001 को अपनी बरौनी रिफाइनरी के अंदर एक नाली और टैंक की मरम्मत के लिए एक निविदा जारी की। तकनीकी बोलियां 24.08.2001 को खोली गईं। हालांकि, मूल्य बोलियां बंद रहीं और उन्हें एक बंद दराज में रखा गया। चाबियां अपीलकर्ता के दो कर्मचारियों केसी पटेल और अजीत कुमार सिंह (प्रतिवादी संख्या 1) की कस्टडी में थी।
ड्रॉअर में लॉक रहने के दरमियान ही, एक बोलीदाता की बोली राशि को बदलकर मूल्य बोलियों के साथ छेड़छाड़ की गई। छेड़छाड़ की गई बोली के दस्तावेज में प्रतिवादी संख्या एक के हस्ताक्षर थे। केंद्रीय फोरेंसिक संस्थान की ओर से प्रस्तुत जांच रिपोर्ट से साबित हुआ कि छेड़छाड़ की गई थी।
तदनुसार, प्रतिवादी संख्या एक के खिलाफ एक आरोप पत्र जारी किया गया, यह समझाने के लिए कि उसके खिलाफ विभागीय जांच क्यों शुरू नहीं की जानी चाहिए।
जांच रिपोर्ट अनुशासनिक अधिकारी को भेज दी गई। प्रतिवादी संख्या एक ने जांच रिपोर्ट के खिलाफ अभ्यावेदन दिया। अनुशासनात्मक प्राधिकरण ने 07.08.2003 को संचयी प्रभाव से पांच वार्षिक वेतन वृद्धि रोकने का जुर्माना लगाया।
अपीलीय प्राधिकारी के समक्ष प्रतिवादी संख्या एक द्वारा दायर की गई अपील को भी खारिज कर दिया गया था।
इसके बाद, प्रतिवादी संख्या एक ने अनुशासनात्मक प्राधिकरण के साथ-साथ अपीलीय प्राधिकरण के आदेश के खिलाप्ऊ हाईकोर्ट के समक्ष एक रिट याचिका दायर की। रिट याचिका को एकल न्यायाधीश ने खारिज कर दिया और आक्षेपित आदेशों को बरकरार रखा था। हालांकि, इंट्रा-कोर्ट अपील में हाईकोर्ट की खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश के आदेश को उलट दिया और प्रतिवादी संख्या एक पर लगाई गई सजा को रद्द कर दिया।
अपीलकर्ता ने खंडपीठ द्वारा पारित आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। यह तर्क दिया गया कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में हाईकोर्ट द्वारा न्यायिक पुनविचार का दायरा यह सुनिश्चित करने तक सीमित है कि क्या जांच में उचित प्रक्रिया का पालन किया गया था और क्या संबंधित कर्मचारी को उचित अवसर प्रदान किया गया था।
यह तर्क दिया गया कि जब एकल न्यायाधीश द्वारा सजा को बरकरार रखा गया था, तो खंडपीठ एक इंट्रा-कोर्ट अपील में सबूतों की जांच करके निर्णय को उलट नहीं सकती थी।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
खंडपीठ ने कहा कि प्रतिवादी संख्या एक ने इस पर विवाद नही किया था कि जांच के हर चरण में उसे सुनवाई का उचित अवसर नहीं दिया गया था। एकल न्यायाधीश ने भी यही निष्कर्ष दिया था।
यह नोट किया गया कि हाईकोर्ट की खंडपीठ ने इस तरह से निर्णय पारित किया जैसे कि यह मामले का पहला चरण था, जैसे कि जांच की जा रही थी और एक जांच रिपोर्ट तैयार की जा रही थी। यह न्यायिक पुनर्विचार के दायरे में नहीं आता है।
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि खंडपीठ ने पूरे साक्ष्य की फिर से सराहना की जैसे कि एक आपराधिक मुकदमे में सजा की अगली ऊंची अदालत द्वारा फिर से जांच की जा रही हो।
कोर्ट ने न्यायिक पुनर्विचार के दायरे की व्याख्या के लिए उप महाप्रबंधक (अपीलीय प्राधिकरण) बनाम अजय कुमार श्रीवास्तव, (2021) 2 एससीसी 612 पर भरोसा किया, जिसमें यह कहा गया, "संविधान के अनुच्छेद 226 या अनुच्छेद 136 के तहत न्यायिक पुनर्विचार के अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए संवैधानिक न्यायालय विभागीय जांच कार्यवाही में प्राप्त तथ्यों के निष्कर्षों में द्वेषपूर्ण या विकृति के मामले को छोड़कर हस्तक्षेप नहीं करेगा...।”
खंडपीठ ने पाया कि हालांकि प्रतिवादी संख्या एक ने तर्क दिया कि केवल डुप्लीकेट चाबी रखने के कारण उसे छेड़छाड़ के लिए उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता है, उसके पास इस निष्कर्ष का कोई जवाब नहीं था कि छेड़छाड़ किए गए दस्तावेज़ में उसके मूल हस्ताक्षर थे।
सुप्रीम कोर्ट ने खंडपीठ के फैसले को रद्द कर दिया और अपील स्वीकार कर ली। एकल न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश को बहाल कर दिया गया।
केस टाइटल: द इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन व अन्य बनाम अजीत कुमार सिंह और अन्य।
साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (एससी) 478