'अंतर-धार्मिक जोड़ों का उत्पीड़न, निजता पर आक्रमण' : जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने 5 राज्यों के धर्मांतरण विरोधी कानूनों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया

Update: 2023-01-06 04:51 GMT

जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने देश भर में धर्मांतरण कानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए एक जनहित याचिका दायर की है। जिन अधिनियमों को चुनौती दी गई है, उनमें उत्तर प्रदेश गैर-कानूनी धर्म परिवर्तन निषेध अधिनियम, 2021, उत्तराखंड धर्म की स्वतंत्रता अधिनियम, 2018, हिमाचल प्रदेश धर्म की स्वतंत्रता अधिनियम, 2019, मध्य प्रदेश धर्म की स्वतंत्रता अधिनियम, 2021 और गुजरात धर्म की स्वतंत्रता (संशोधन) अधिनियम 2021 शामिल हैं। इससे पहले, सिटीजन फॉर पीस एंड जस्टिस (सीजेपी) ने उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के अधिनियमों को इस आधार पर चुनौती दी थी कि ये अधिनियम सबूत के बोझ को पलटते हैं और ये सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के खिलाफ थे, जिसमें कहा गया था कि जीवन साथी चुनने का अधिकार निजता का हिस्सा है।

एडवोकेट एजाज मकबूल के माध्यम से जमीयत उलमा-ए-हिंद द्वारा दायर याचिका के अनुसार, विवादित अधिनियम किसी व्यक्ति को अपने मजहब का खुलासा करने के लिए मजबूर करके उसकी निजता पर आक्रमण करते हैं। इसके अलावा, अधिनियम परिवार के सदस्यों को एक प्राथमिकी दर्ज करने का अधिकार देता है और "वस्तुतः धर्मांतरण करने वालों को परेशान करने के लिए उन्हें एक नया हथियार देता है"। याचिका में कहा गया है कि असंतुष्ट परिवार के सदस्यों द्वारा अधिनियमों का दुरुपयोग किया जा रहा है और इसके प्रमाण के लिए इसमें इंडिया टुडे द्वारा 29 दिसंबर, 2020 को प्रकाशित एक समाचार रिपोर्ट का हवाला दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि उत्तर प्रदेश अध्यादेश के एक महीने के भीतर 14 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से केवल दो ही ऐसे थे जो पीड़ितों की शिकायतों के आधार पर किये गये थे, जबकि बाकी मामले परिवार के सदस्यों की शिकायतों के आधार पर सामने आए।

याचिका में दलील दी गयी है कि 'प्रलोभन' की परिभाषा के लिए भी अधिनियम को निरस्त किये जाने के लिए उत्तरदायी हैं, क्योंकि इसमें दैवीय नाराजगी के अनुचित प्रभाव प्रस्ताव शामिल हैं। याचिका में यह भी निवेदन किया गया है कि वाक्यांश 'अनुचित प्रभाव' बहुत व्यापक और अस्पष्ट है तथा मौत के बाद दुनिया में मोक्ष की प्राप्ति अधिकांश प्रमुख धर्मों के केंद्र में है।

याचिका में कहा गया है,

"इसलिए, एक धार्मिक उपदेशक जो केवल यह कहता है कि केवल अपने धर्म के उपदेशों का पालन करने से ही एक व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त करने में मदद मिलेगी, वह उपरोक्त अधिनियमों के तहत मुकदमों का सामना करने के लिए खुद को उत्तरदायी बनाएगा। इसलिए, विवादित अधिनियम अपने प्रावधानों की अस्पष्ट और कठोर प्रकृति की वजह से धार्मिक उपदेशों और यहां तक कि धर्म के पालन का गला घोंट देगा।"

यह कहते हुए कि अधिनियमों का भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 में निहित किसी के धर्म को अपनाने और उसके प्रचार-प्रसार के अधिकार पर एक भयावह प्रभाव पड़ेगा, याचिका में दलील दी गयी है कि अधिनियम एक व्यक्ति को अपनी पसंद के धर्म अपनाने के अधिकार का अतिक्रमण करके प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तिगत निर्णय को विनियमित करने का भी प्रयास करते हैं।

याचिका के अनुसार-

"इस तरह के व्यक्तिगत निर्णय की सरकार द्वारा छानबीन एक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर गंभीर हमला है और भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 और 25 का उल्लंघन है।"

याचिकाकर्ता ने इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि विवादित अधिनियम आपराधिक कानून में सबूत के बोझ के नियम को पलट देता है।

याचिका में दलील दी गयी है,

"यह दलील दी गयी है कि आपराधिक मामलों में सबूत का बोझ अभियोजन पक्ष पर है, और यह धारणा है कि अपराध करने का आरोपी व्यक्ति दोषी साबित होने तक निर्दोष है। हालांकि, अधिनियम इस धारणा पर आगे बढ़ते हैं कि प्रत्येक धर्मांतरण अवैध है। आगे हिमाचल प्रदेश अधिनियम की धारा 12, उत्तराखंड अधिनियम की धारा 13, उत्तर प्रदेश अधिनियम की धारा 12 और गुजरात अधिनियम की धारा 12 के प्रावधान यह साबित करने का भार डालते हैं कि धर्मांतरित व्यक्ति पर धर्मांतरण अवैध नहीं है।’’

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