एससी/एसटी कानून के तहत जांच न किये जाने को आधार बनाकर उसी मामले में आईपीसी के तहत दायर आरोप-पत्र खारिज नहीं किये जा सकते : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2020-01-20 04:00 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यदि किसी अपराध की शिकायत भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून, दोनों के प्रावधानों के तहत की जाती है तो आईपीसी के प्रावधानों के तहत सक्षम पुलिस अधिकारी द्वारा की गयी जांच सिर्फ इसलिए खारिज नहीं की जा सकती कि सक्षम पुलिस अधिकारी ने एससी/एसटी कानून के तहत घटना की जांच नहीं की थी।

इस मुकदमे में, आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 302/34, 404/34 तथा एससी/एसटी अत्याचार निवारण कानून की धारा 3(2)(पांच) के तहत आरोप तय किये गये थे। हाईकोर्ट ने एससी/एसटी कानून तथा आईपीसी के तहत एक साथ चलाया जा रहा आपराधिक मुकदमा इस आधार पर निरस्त कर दिया था कि मामले की जांच पुलिस उपाधीक्षक (डीएसपी) रैंक से नीचे के अधिकारी द्वारा की गयी थी।

हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की पीठ ने हाईकोर्ट के फैसले से इस हद तक सहमति व्यक्त की थी कि एससी/एसटी कानून के दायरे में आने वाले अपराधों की जांच डीएसपी से कम रैंक के पुलिस अधिकारी द्वारा नहीं की जा सकती।

इसने कहा, 


"यह राज्य सरकार का कर्तव्य और जिम्मेदारी है कि वह ऐसे मामलों की जांच के लिए पुलिस उपाधीक्षक से कम रैंक के पुलिस अधिकारी को अधिसूचित न करे। नियमावली 1995 के नियम सात में कहा गया है कि जांच अधिकारी पुलिस उपाधीक्षक रैंक से नीचे का न हो। उस रैंक के नीचे का पुलिस अधिकारी इस कानून (एससी/एसटी) के दायरे में आने वाले अपराधों की जांच बतौर जांच अधिकारी नहीं कर सकता।" 


हालांकि, 'मध्य प्रदेश सरकार एवं चुन्नीलाल उर्फ चुन्नी सिंह 2009(12) एससीसी 649' मामले में दिये गये फैसले का उल्लेख करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा :-

" निस्संदेह, इस मामले में प्रतिवादियों को आईपीसी की धारा 302/34, 404/34 तथा एससी/एसटी अत्याचार निवारण कानून की धारा 3(2)(पांच) के तहत आरोपित किया गया था और एक सक्षम पुलिस अधिकारी के नेतृत्व में जांच के बाद आईपीसी की धाराओं के तहत आरोप तय किये गये हैं।


ऐसी स्थिति में हमारा मानना है कि हाईकोर्ट ने आईपीससी के दायरे में आने वाले अपराधों से संबंधित कानूनी कार्यवाही निरस्त करके और प्रतिवादियों को आरोप मुक्त करके स्पष्ट रूप से गलती की है, जहां आईपीसी के प्रावधानों के तहत सक्षम पुलिस अधिकारी द्वारा जांच की गयी थी। ऐसी स्थिति में आईपीसी के तहत दंडनीय अपराध के लिए सक्षम अदालत में आरोप-पत्र जारी रखा जाना चाहिए, इस तथ्य के बावजूद कि आरोप-पत्र एससी/एसटी कानून, 1989 की धारा-3 के तहत आने वाले अपराध तक ही सीमित नहीं हो सकता था।" 

इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि आईपीसी के तहत दंडनीय अपराधों के संदर्भ में कानून के मुताबिक आगे मुकदमा जारी रखा जा सकता है।

मुकदमे का ब्योरा –

केस का नाम :- मध्य प्रदेश बनाम बब्बू राठौड़

केस नं- क्रिमिनल अपील 123/2020

कोरम : न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा एवं न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी 


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