सीआरपीसी की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट ऐसे किसी आदेश को संशोधित नहीं कर सकता जिसकी पुष्टि सुप्रीम कोर्ट ने की हो
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हाईकोर्ट को दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत जो अन्तर्निहित अधिकार मिला हुआ है, उसका प्रयोग करते हुए वह ऐसे आदेश को संशोधित नहीं कर सकता, जिसकी पुष्टि सुप्रीम कोर्ट ने की है।
इस मामले में हाईकोर्ट ने आरोपी को याचिका दायर करने की अनुमति दी और आदेश दिया कि एफआईआर नंबर 21/1996 के तहत 69 चालानों के आधार पर दी गई सजा साथ-साथ चलेगी।
यह था मामला
इस मामले में आरोपी को 1982 से 1994 के बीच एक सहकारी बैंक की राशि का गबन करने के आरोप में सजा सुनाई गई थी। उस समय वह इस बैंक में एक क्लर्क के पद पर कार्यरत थी। उसे 69 मामलों में दोषी पाया गया और हर मामले में उसको एक से दो साल की सजा दी गई।
उसकी सजा को सुप्रीम कोर्ट ने सही ठहराया उसने हाईकोर्ट में सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपील की जिस पर अपने फैसले में हाईकोर्ट ने कहा की चूंकि उसको 69 चालानों में सजा मिली है और ये सभी एक ही तथ्य के हिस्से हैं और इसलिए इनको अलग करके नहीं देखा जा सकता. इसलिए इस अदालत ने सभी सजा को एक साथ चलाने संबंधी अपील को मान लिया।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
पंजाब राज्य बनाम रंजीत कौर के इस मामले में राज्य की अपील पर न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी और एमआर शाह की पीठ ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 427 के अनुसार, जब कोई व्यक्ति कारावास की सजा झेल रहा है और उसको बाद के अपराध के लिए दुबारा कारावास की सजा दी जाती है तो यह सजा पहली सजा के पूरी हो जाने के बाद ही शुरू हो सकता है बशर्ते क अदालत ने यह नहीं कहा हो कि यह सजा साथ-साथ चलेगी।
अदालत ने यह भी कहा कि इस तरह के विवाद को आरोपी ने उच्च न्यायालय के समक्ष दायर अपनी अपील में या उच्चतम न्यायालय में उसके द्वारा दायर 69 सजातीय मामलों में उसकी सजा और सजा के आदेशों के खिलाफ दायर विशेष अवकाश याचिकाओं में नहीं उठाया था।
अदालत ने एमआर कुंदवा बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में हाईकोर्ट के फैसले को पीठ द्वारा निरस्त किये जाने के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा,
"सीआरपीसी की धारा 482 के तहत इस तरह का फैसले लेने का हाईकोर्ट का अन्तर्निहित अधिकार संहिता के तहत किसी भी आदेश को जैसा कि जरूरी हो सकता है, प्रभावी बनाने के लिए हो सकता है, या अदालती प्रक्रिया का नाजायज फ़ायदा उठाने को रोकने के लिए या न्याय सुनिश्चित करने के लिए हो सकता है पर यह उसे ऐसे फैसले को संशोधित करने का अधिकार नहीं देता जिसकी पुष्टि सुप्रीम कोर्ट कर चुका है।"
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