भरण पोषण के केस में लैंगिक असमानता के आधार पर CrPC की धारा 125 की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती, पढ़ें याचिका के खास बिंदु
लैंगिक असमानता के आधार पर सीआरपीसी की धारा 125 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दाखिल की गई है। इस याचिका में पति ने भरण पोषण के आदेश को आधार बनाकर सीआरपीसी की धारा 125 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है।
याचिका विवेक भाटिया द्वारा एडवोकेट एम. एस. विष्णु शंकर और श्रीराम परक्कत के माध्यम से दायर की गई। दरअसल देहरादून के फैमिली कोर्ट के आदेश के अंतर्गत उन्हें उपरोक्त प्रावधान के तहत अपनी पत्नी को मासिक भत्ता देने का निर्देश दिया गया था।
याचिकाकर्ता का मामला यह है कि उसे अपनी तलाकशुदा पत्नी को इस अनुमान के आधार पर रखरखाव प्रदान करने के लिए बाध्य किया गया है कि वह एक स्वस्थ शरीर और स्वस्थ दिमाग का है, इसलिए उसे अपनी पत्नी को खर्च देने में सक्षम होना चाहिए। इसके अलावा, उन्होंने दावा किया कि अदालत इस तथ्य पर ध्यान देने में विफल रही कि याचिकाकर्ता केवल हाई स्कूल तक पढ़ा था, जिसके पास एयरक्राफ्ट में डिप्लोमा था और वर्तमान में वह बेरोजगार था। दूसरी ओर उसकी पूर्व पत्नी, अंग्रेजी, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में स्नातक थी और अपने लिए जीविकोपार्जन करने में सक्षम थी, लेकिन उसने काम करने से इनकार कर दिया।
धारा 125 सीआरपीसी में निहित पूर्वोक्त अनुमान का विरोध करते हुए, याचिकाकर्ता ने निम्नलिखित आधार पर अपनी दलील दी है:
1. यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्रदान की गई सामान्य समानता का उल्लंघन करता है और यह, संविधान के अनुच्छेद 15 के विपरीत, किसी भी उचित वर्गीकरण के बिना लिंग के आधार पर प्रथम दृष्टया भेदभाव करता है:
i. सबसे पहले, क्योंकि इसका दायरा केवल पत्नियों तक सीमित है और पति अपनी सुयोग्य पत्नियों से भरण पोषण का दावा नहीं कर सकते।
ii. दूसरी बात यह है कि यह प्रावधान इस अनुमान के साथ आगे बढ़ता है कि पुरुषों के पास, यदि वे स्वस्थ और सक्षम हैं, कमाने की क्षमता है, जबकि एक महिला के पास कमाने की क्षमता तब है, जब उसके पास खुद की पर्याप्त आय का स्रोत है, जोकि उसके पति से स्वतंत्र है।
2. यह कि शुरू में भरण पोषण प्रदान करने का दायित्व पतियों पर डाला गया क्योंकि शादी के बाद, एक महिला अपनी निजी संपत्ति के अधिकार को त्याग देती है। चूंकि यह नियम अब लागू नहीं है, इसलिए भरण पोषण पर कानून को 'पारस्परिक और लैंगिक-तटस्थ' (mutual and gender-neutral) बनाया जाना चाहिए।
3. यह प्रावधान, प्रीति श्रीवास्तव (डॉ.) बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1999) 7 SCC120 के निर्णय के अनुपात के विपरीत, सार्वजनिक हित में नहीं है, क्योंकि यह उन पतियों को, जिन्हें रखरखाव की वास्तविक जरूरत है, को समर्थन देने के बजाय, अपनी पत्नियों को गुज़ारा भत्ता प्रदान करने का बोझ उन पर थोपता है, भले ही पत्नी जीविकोपार्जन में सक्षम हो।
4. जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ, WP (Crl) नंबर 194/2017 में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि संविधान का अनुच्छेद 15 (3), संविधान के शुरू होने से पहले बने कानूनों पर लागू नहीं होता है। इसलिए, धारा 125 सीआरपीसी को अनुच्छेद 15 (3) के संरक्षण का आनंद नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि यह प्रावधान, पूर्व-संवैधानिक कानून, यानी धारा 488 सीआरपीसी, 1898 से लिया गया है। हालांकि, यह स्पष्ट किया गया था कि याचिका की मांग महिलाओं को भरण पोषण की अनुमति देने से रोकने की नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से कानून के समक्ष समानता और कानूनों की समान सुरक्षा की मांग की गई है।
5. ब्रिटेन में, जो भारतीय न्यायशास्त्र का स्रोत है, मैट्रिमोनियल कॉज एक्ट, 1973 के तहत भरण पोषण कानून पूर्ण रूप से लैंगिक तटस्थ हैं।
6. अमेरिका में सभी राज्यों में लैंगिक तटस्थ गुजारा भत्ता कानून मौजूद है और इस प्रकार मामले के तथ्यों के आधार पर पति या पत्नी को भरण पोषण की अनुमति दी जा सकती है।
7. चूंकि संविधान एक जीवित दस्तावेज है, इसलिए संवैधानिक नैतिकता को सामाजिक धारणा के विकास और सामाजिक नैतिकता में परिवर्तन के साथ विकसित किया जाना चाहिए। इसलिए, जहां एक समय में भरण पोषण प्रदान करना पूरी तरह से पति की जिम्मेदारी थी, और चूंकि समकालीन समाज में हमारे संविधान की बुनियादी संरचना का पहला स्तंभ समानता है, इसलिए विवाह में पति/पत्नी की भूमिकाओं पर पुनर्विचार करना होगा।
उपर्युक्त तर्कों के आधार पर, याचिकाकर्ता ने Crpc की धारा 125 को असंवैधानिक घोषित करने या इसे लैंगिक-तटस्थ के रूप में घोषित करने के लिए अदालत के समक्ष प्रार्थना की है।