पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट ने हिरासत में मौत मामले में सजा निलंबन की मांग वाली याचिका वापस ली
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने बुधवार को पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट (IPS Sanjiv Bhatt) की याचिका को वापस लेते हुए खारिज कर दिया, जिसमें 1990 की हिरासत में मौत के मामले में सजा को निलंबित करने की मांग की गई थी, क्योंकि गुजरात हाईकोर्ट अब दोषसिद्धि के खिलाफ उनकी अपील पर सुनवाई कर रहा है।
आज जब मामले की सुनवाई की गई तो भट्ट की ओर से सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कहा कि याचिका को वापस लिया जा रहा है क्योंकि गुजरात हाईकोर्ट दैनिक आधार पर अपील की सुनवाई कर रहा है।
सिब्बल ने अनुरोध किया कि सजा को निलंबित करने से इनकार करने वाले पहले के आदेश में की गई टिप्पणियों से प्रभावित हुए बिना अदालत को अपील पर फैसला करने के लिए कहा जाए।
जस्टिस एम. आर. शाह और जस्टिस बी. वी. नागरत्ना की पीठ ने विशेष अनुमति याचिका को वापस लेते हुए खारिज कर दिया।
पीठ ने आदेश में कहा कि यह कहने की जरूरत नहीं है कि अपील पर कानून के अनुसार मैरिट के आधार पर फैसला किया जाएगा और सजा निलंबन पर विचार करते हुए की गई टिप्पणियां अपील को प्रभावित नहीं कर सकती हैं।
पीठ गुजरात हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच के सितंबर, 2019 के फैसले के खिलाफ भट्ट की 2020 की एसएलपी पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उनकी सजा को निलंबित करने से इनकार कर दिया गया था।
जामजोधपुर निवासी प्रभुदास वैष्णानी की नवंबर, 1990 में हिरासत में मौत के मामले में जून, 2019 में जामनगर में सत्र न्यायालय द्वारा भट्ट को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। पूर्व आईपीएस अधिकारी भट्ट ने 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर 2002 के दंगों में संलिप्तता का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर किया था। भट्ट वर्तमान में पालनपुर जेल में बंद है। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर एसएलपी ने उनकी सजा को निलंबित करने से गुजरात हाईकोर्ट के इनकार को चुनौती दी।
गुजरात हाईकोर्ट ने अक्टूबर, 2019 में उनकी सजा को स्थगित करने से इनकार कर दिया था। हाईकोर्ट यह इनकार यह देखते हुए किया था कि उनके अंदर अदालतों के लिए बहुत कम सम्मान है और उन्होंने जानबूझकर अदालतों को गुमराह करने की कोशिश की है।
जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस एसी राव की हाईकोर्ट की खंडपीठ ने कहा था,
"ऐसा प्रतीत होता है कि आवेदक के अंदर न्यायालयों के लिए बहुत कम सम्मान है और वह कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने और अदालत को बदनाम करने की प्रक्रिया में है।"
इससे पहले, जस्टिस हर्षा देवानी के साथ अन्य खंडपीठ में शामिल जस्टिस वीबी मयानी ने इससे पहले भट्ट और एक अन्य दोषी प्रवीण सिंह जाला की जमानत अर्जी आने पर "मेरे सामने नहीं" कहकर खुद को सुनवाई से अलग कर लिया था।
सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में भट ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट इस तथ्य की सराहना करने में विफल रहा है कि राज्य सरकार ने 2011 के बाद से ही उसके खिलाफ मुकदमा चलाना शुरू कर दिया था, जब वह नरेंद्र मोदी के खिलाफ सामने आए थे। उससे पहले राज्य की ओर से भट्ट के खिलाफ कोई मामला नहीं था।
यह घटना नवंबर, 1990 में प्रभुदास माधवजी वैष्णानी की मौत से संबंधित है, जो कथित तौर पर हिरासत में यातना के कारण हुई थी। भट्ट उस समय जामनगर के सहायक पुलिस अधीक्षक थे, जिन्होंने अन्य अधिकारियों के साथ वैष्णनी सहित लगभग 133 लोगों को भारत बंद के दौरान दंगा करने के आरोप में हिरासत में लिया था।
नौ दिन तक हिरासत में रहे वैष्णानी की जमानत पर रिहा होने के दस दिन बाद मौत हो गई थी। मेडिकल रिकॉर्ड के अनुसार, मौत का कारण गुर्दे में लगी चोट थी।
उसकी मृत्यु के बाद भट्ट और कुछ अन्य अधिकारियों के खिलाफ हिरासत में यातना के लिए एफआईआर दर्ज की गई और मजिस्ट्रेट ने 1995 में मामले का संज्ञान लिया। हालांकि, गुजरात हाईकोर्ट द्वारा मामले पर रोक लगा दी गई। बाद में स्टे हटा लिया गया और 2011 में मामले की दोबारा सुनवाई शुरू हुई।
भट्ट ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट यह देखने में विफल रहा कि कथित हिरासत में मौत कैदी की 18 नवंबर, 1990 को पुलिस हिरासत से रिहा होने के कई दिनों बाद हुई थी।
2015 में बर्खास्त किए गए आईपीएस अधिकारी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और आरोप लगाया कि हालांकि अभियोजन पक्ष ने लगभग 300 गवाहों को सूचीबद्ध किया है, लेकिन मुकदमे में केवल 32 की जांच की गई है, जिससे कई महत्वपूर्ण गवाहों को छोड़ दिया गया है।
भट्ट ने कहा कि अपराध की जांच करने वाली टीम में शामिल तीन पुलिसकर्मियों और हिरासत में हिंसा की किसी भी घटना से इनकार करने वाले कुछ अन्य गवाहों से अभियोजन पक्ष ने पूछताछ नहीं की। उन्होंने तर्क दिया कि उनके खिलाफ मामला "राजनीतिक प्रतिशोध" का हिस्सा है।
भट्ट ने अप्रैल, 2011 में 2002 के दंगों में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर शामिल होने का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर किया था। भट्ट ने दावा किया कि उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी द्वारा 27 फरवरी, 2002 को सांप्रदायिक दंगों के दिन बुलाई गई बैठक में भाग लिया था, जब राज्य पुलिस को कथित तौर पर हिंसा के अपराधियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करने के निर्देश दिए गए थे।
कोर्ट ने एसआईटी को नियुक्त किया लेकिन मोदी को क्लीन चिट दे दी।
भट्ट को 2015 में "अनधिकृत अनुपस्थिति" के आधार पर पुलिस सेवा से हटा दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर, 2015 में गुजरात सरकार द्वारा उनके खिलाफ दर्ज मामलों के लिए विशेष जांच दल (एसआईटी) गठित करने के लिए भट्ट की याचिका को खारिज कर दिया।