बिजली : स्व-वित्तपोषित शैक्षिक संस्थानों कि लिए वाणिज्यिक शुल्क का निर्धारण क़ानूनी रूप से वैध : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2020-02-22 04:00 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बिजली की दर के निर्धारण में स्व-वित्तपोषित शैक्षिक संस्थानों (एसएफईआई) को वित्तीय सेवाएं देने वालों के साथ रखना और उनसे सरकारी पैसे और सरकारी मदद से चलने वाले शैक्षिक संस्थानों से ज़्यादा शुल्क लेना बिजली अधिनियम, 2003 के तहत जायज़ है।

इस मामले में केंद्रीय मुद्दा यह है कि 2003 के अधिनियम के तहत शुल्क निर्धारण के लिए एसएफईआई को दूसरे तरह के शैक्षिक संस्थानों से अलग रखा जा सकता है या नहीं और कहीं यह मनमाना भेदभाव और स्वाभाविक न्याय के ख़िलाफ़ तो नहीं है।

न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता अनिरुद्ध बोस की पीठ ने इस मामले में अपने फ़ैसले में कहा कि शुल्क निर्धारण करने वाली संस्था को संबंधित संस्थान की सिर्फ़ 'सेवा की प्रकृति' से ही इसका निर्धारण करने की ज़रूरत नहीं है। पीठ ने कहा,

"हम 2003 अधिनियम की धारा 62 की उपधारा (3) के तहत "उद्देश्य" के अर्थ को समझते हैं, और हमारी राय में शुल्क की निर्धारण की जहाँ तक बात है, कौन "उद्देश्य" की पूर्ति कर रहा है और किसके लिए इस तरह के "उद्देश्य" की पूर्ति की जा रही है इसको समझना ज़रूरी है। हमें इस बात को भी ध्यान में रखना है कि उनके द्वारा जिस तरह की सेवाएँ दी जा रही हैं, शुल्क निर्धारण का सिर्फ़ वही आधार नहीं हो सकता।"

पृष्ठभूमि

केरल राज्य विद्युत विनियामक आयोग ने 26 नवंबर 2007 को एक नोटिस जारी कर एसएफईआई को "लो टेन्शन VII (A) कमर्शियल" की श्रेणी में रखा। सरकारी या सरकारी मदद से चलने वाले निजी शैक्षणिक संस्थानों को "लो टेन्शन VI नॉन-डमेस्टिक टैरिफ़" की श्रेणी में रखा।

सरकार के इस क़दम को कई एसएफईआई ने केरल हाईकोर्ट के एकल जज की पीठ के समक्ष चुनौती दी।

एकल जज ने शुल्क आदेश को उचित बताया और इस हाईकोर्ट के एक संविधान पीठ ने टीएमए पई फ़ाउंडेशन एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य मामले में जो फ़ैसला दिया था उसका हवाला दिया।

इसके बाद प्रतिवादियों ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी और कहा कि राज्य सरकार का शुल्क निर्धारण 2003 अधिनियम की धारा 62 के तहत ही वैध हो सकता है और आयोग ने जो वर्गीकरण किया है उसका कोई आधार नहीं है।

खंडपीठ ने कहा, "जब किसी शैक्षिक संस्थान को आपूर्ति की जाती है, भले ही वह स्व-वित्तपोषित हो या सरकारी सहायता प्राप्त या सरकारी उद्देश्य के लिए, यह अलग नहीं हो सकता क्योंकि शिक्षा का मतलब ज्ञान देना है।"

इस फ़ैसले को आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।

सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया और केरल हाईकोर्ट की खंडपीठ के फ़ैसले की आलोचना की।

यह कहा गया कि शुल्क निर्धारक संस्था के रूप में आयोग को शैक्षिक सस्थानों के "उद्देश्य" में अंतर करने का अधिकार है क्योंकि दोनों ही तरह के संस्थानों के लक्ष्य के लिए अपनाए गए साधन में अंतर है। दोनों ही संस्थान शिक्षा देते हैं पर सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त संस्थान नागरिकों के कल्याण के अपने कर्तव्यों को पूरा कर रहे हैं।

पीठ ने आगे कहा कि शुल्क निर्धारण की अधिसूचना में एसएफईआई के लिए अधिक शुल्क का निर्धारण और सरकारी शिक्षा संस्थानों को इससे बाहर रखना राज्य की मदद से चलनेवाले संस्थानों को "अनावश्यक तरजीह" देना नहीं माना जाएगा क्योंकि दोनों के उद्देश्य में अंतर है।

पीठ ने कहा, "यह तथ्य कि एसएफईआई को वाणिज्यिक सेवाएँ देने वाले ऐसे संस्थानों के साथ रखा गया है जिनका शिक्षा से कोई लेनादेना नहीं है, यह तब महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब एसएफईआई के उद्देश्यों को सरकारी और सरकार की मदद से चलनेवाले संस्थानों के उद्देश्यों से की जाती है।

आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें 



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