प्रत्यक्षदर्शी के बयान को केवल मेडिकल साक्ष्य में विसंगतियों के कारण खारिज नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2023-09-20 12:14 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में आपराधिक मुकदमों में आई विटनेस अकाउंट यानि प्रत्यक्षदर्शी के बयान के सर्वोपरि महत्व की पुष्टि की।

न्यायालय ने चिकित्सा विशेषज्ञों की राय पर प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य के महत्व पर जोर देने के लिए दरबारा सिंह बनाम पंजाब राज्य (2012) 10 एससीसी 476 और अनवरुद्दीन बनाम शकूर 1990 (3) एससीसी 266 पर भरोसा किया। फैसले में रेखांकित किया गया कि प्रत्यक्षदर्शी की गवाही, भले ही हर पहलू में विस्तृत न हो, घटनाओं के सिक्वेंश को स्थापित करने में पर्याप्त महत्व रखती है।

कोर्ट ने कहा,

दरबारा सिंह बनाम पंजाब राज्य, (2012) 10 एससीसी 476 में इस न्यायालय ने चिकित्सा विशेषज्ञ की राय पर प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य को अधिक महत्व दिया है। यह सिद्धांत हमारे सामने मौजूद मामले पर लागू होता है। भले ही ऑटोप्सी सर्जन की राय में चाकू और लगी चोटों का मिलान नहीं हुआ हो, डॉक्टर के साक्ष्य प्रत्यक्ष साक्ष्य को धूमिल नहीं सकते। मामले के बाद हुई घटनाओं के साक्ष्य सुसंगत हैं।"

सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की पीठ गुजरात हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ एक अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसने ट्रायल कोर्ट की ओर से दिए गए बरी के फैसले को पलट दिया था।

अपीलकर्ता को 10 जुलाई, 1995 को जयंतीभाई की हत्या के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया था।

यह मामला जयंतीभाई की नृशंस हत्या से जुड़ा है, जिन्होंने घटना में लगी चाकू की चोटों के कारण दम तोड़ दिया थी। एफआईआर PW1 (मृतक के भाई) ने दर्ज कराई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि हत्या अपीलकर्ता ने अपने पिता और भाई के साथ मिलकर की थी।

अभियोजन पक्ष का मामला अभियोजन पक्ष के गवाह PW2 (पार्वतीबेन) के प्रत्यक्षदर्शी बयान और PW4 और PW5 (मृतक के भाई) के मृत्यु पूर्व बयान पर आधारित था।

ट्रायल कोर्ट ने शुरू में मेडिकल सबूतों के आधार पर तीनों आरोपियों को बरी कर दिया था। अपील में हाईकोर्ट ने बरी करने के फैसले को पलट दिया और अपीलकर्ता को उत्तरदायी ठहराया। इसके खिलाफ अपीलकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

अपीलकर्ता की ओर से उपस्थित एडवोकेट डीएन रे ने ट्रायल कोर्ट की टिप्पणी का हवाला दिया, जिसमें कथित तौर पर चाकू से वार करने के तरीके और हमले में इस्तेमाल किए गए हथियार की पहचान में विसंगतियां देखी गई थीं।

उन्होंने दृढ़ता से तर्क दिया कि परीक्षण के दरमियान पेश किए गए चिकित्सा साक्ष्य स्पष्ट रूप से संकेत देते हैं कि साक्ष्य के रूप में जब्त किया गया चाकू, जिसे "मुद्दमल-9" कहा जाता है, मृतक को घातक चोट नहीं पहुंचा सकता है।

कोर्ट ने बताया कि ट्रायल कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के गवाहों की समग्र गवाही को नजरअंदाज करते हुए गवाहों के बयानों में अपेक्षाकृत छोटे विरोधाभासों पर अनुचित जोर दिया था।

यह माना गया कि चोटों की संख्या में विरोधाभास अभियोजन पक्ष के मामले के लिए घातक नहीं था।

इसके अलावा, अभियोजन पक्ष के मामले को केवल इसलिए पूरी तरह से खारिज नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि ऑटोप्सी सर्जन की राय के अनुसार, घातक चोटें बरामद चाकू के कारण नहीं हो सकती थीं।

कोर्ट ने कहा,

''सिर्फ इसलिए कि प्रत्यक्षदर्शी द्वारा बताई गई चोटों से अधिक चोटें थीं, अभियोजन पक्ष के बयान को नकारा नहीं जा सकता। हमारी राय में अपीलकर्ता द्वारा बताई गई विसंगतियां मामूली हैं। एक भीषण हत्या की चश्मदीद गवाही में मृतक पर किए गए चाकू के वार का एक-एक वर्णन नहीं कर सकता, जैसा कि स्क्रीनप्‍ले में होता है।''

कोर्ट ने एचपी राज्य बनाम लेख राज (2000) (1) एससीसी 247 मामले के फैसले का हवाला दिया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि अलग-अलग गवाहों के लिए थोड़ा अलग विवरण प्रदान करना आम बात है।

न्यायालय ने कहा कि जब तक ये विरोधाभास पर्याप्त महत्व के न हों, इनका उपयोग पूरे साक्ष्य को खारिज करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।

विसंगतियों के पहलू पर, न्यायालय ने सिद्धांत को इस प्रकार संक्षेप में प्रस्तुत किया था

"जब विभिन्न गवाह विवरण पर बात करते हैं तो उनके बयानों के बीच कुछ विसंगतियां होती हैं, और जब तक विरोधाभास भौतिक महत्व का न हो, इसका उपयोग सबूतों को पूरी तरह से खारिज करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। संयोग से, आपराधिक मामलों में गणितीय बारीकियों के साथ साक्ष्य की पुष्टि की उम्मीद नहीं की जा सकती है। मामूली अलंकरण हो सकता है, लेकिन कारण के आधार पर भिन्नता से प्रत्यक्षदर्शियों के साक्ष्य अविश्वसनीय नहीं होने चाहिए। छोटी-मोटी विसंगतियों से अन्यथा स्वीकार्य साक्ष्य नष्ट नहीं होने चाहिए...

अदालत को यह ध्यान में रखना होगा कि अलग-अलग गवाह अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग प्रतिक्रिया करते हैं,

जबकि कुछ अवाक हो जाते हैं, कुछ रोने लगते हैं जबकि कुछ अन्य घटनास्थल से भाग जाते हैं और फिर भी कुछ ऐसे होते हैं जो साहस, दृढ़ विश्वास के साथ आगे आ सकते हैं कि गलती का समाधान होना चाहिए। वस्तुतः यह व्यक्तियों-व्यक्तियों पर निर्भर करता है। मानवीय प्रतिक्रिया का कोई निर्धारित पैटर्न या एक समान नियम नहीं हो सकता है और किसी साक्ष्य को इस आधार पर खारिज करना कि उसकी प्रतिक्रिया एक निर्धारित पैटर्न के अंतर्गत नहीं आती, अनुत्पादक और जरूरत से ज्यादा पांडित्यपूर्ण अभ्यास है।''

पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि चश्मदीदों और घटना के बाद के गवाहों द्वारा उपलब्ध कराए गए सबूत सुसंगत थे और अभियोजन पक्ष के घटनाओं के विवरण की पर्याप्त रूप से पुष्टि करते थे।

उपरोक्त के आलोक में सुप्रीम कोर्ट ने दोषसिद्धि को बरकरार रखा और अपील खारिज कर दी। न्यायालय ने गुरबचन सिंह बनाम सतपाल सिंह (1990) का हवाला देते हुए संदेह के लाभ के नियम पर विचार करते समय काल्पनिक संदेहों पर अनुचित निर्भरता से बचने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।

न्यायालय ने आदेश दिया, “तदनुसार, हम इस अपील को खारिज करते हैं। हमें अवगत कराया गया है कि अपीलकर्ता जमानत पर है। उनका जमानत बांड रद्द किया जाता है और अपीलकर्ता को चार सप्ताह के भीतर ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया जाता है।

केस टाइटल: रमेशजी अमरसिंह ठाकोर बनाम गुजरात राज्य

साइटेशन: 2023 लाइव लॉ (एससी) 804

फैसले को पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

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