शैक्षणिक दस्तावेजों में लिंग परिवर्तन करवाने के नियमों के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में ट्रांसजेंडर की पीआईएल

Update: 2019-09-20 11:17 GMT

एक ट्रांसजेंडर महिला ने दिल्ली हाईकोर्ट में जनहित याचिका (पीआईएल) दायर करके भारत सरकार के प्रकाशन विभाग के उस आदेश को चुनौती दी है, जिसमें सरकारी रिकॉर्ड में लिंग परिवर्तन के लिए सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी (एसआरएस) को अनिवार्य बनाया गया है। यह सर्जरी पुरुष जननांग को स्त्री जननांग में परिवर्तित करने की एक शल्य प्रक्रिया है।

इस पीआईएल के जरिये याचिकाकर्ता ने लिंग परिवर्तन के सार्वजनिक नोटिस की अधिसूचना से संबंधित दिशानिर्देशों तथा दिल्ली विश्वविद्यालय एवं केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) की ओर से जारी नाम अथवा लिंग परिवर्तन संबंधी अधिसूचनाओं एवं इसके नमूना प्रारूप को चुनौती दी है।

याचिकाकर्ता ने अपने शैक्षणिक दस्तावेजों में नाम एवं लिंग परिवर्तित करने के लिए भारत सरकार के प्रकाशन विभाग को दो आवेदन दिये थे, लेकिन संबंधित विभाग ने उनका आवेदन एक प्रपत्र का हवाला देते हुए ठुकरा दिया था। विभाग का कहना था कि लिंग परिवर्तन के लिए आवेदन के लिए सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी पूर्व-निर्धारित आवश्यकता है।

एसआरएस की अनिवार्यता अनुच्छेद 21 और 19 का उल्लंघन

याचिकाकर्ता ने पीआईएल में कहा है कि प्रकाशन विभाग की ओर से एसआरएस को अनिवार्य बनाया जाना संविधान के अनुच्छेद 21 और 19 में प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन है। इतना ही नहीं, यह 'नालसा बनाम भारत सरकार' मामले में सुप्रीम कोर्ट की ओर से जारी दिशानिर्देशों के विरुद्ध भी है।

शैक्षणिक दस्तावेजों में लिंग परिवर्तन से संबंधित नियमों में दिल्ली विश्वविद्यालय एवं सीबीएसई द्वारा किये गये संशोधनों से भी याचिकाकर्ता ने असंतोष जताया है।

सीबीएसई के संशोधित नियम के तहत उम्मीदवार अपने नाम या लिंग में परिवर्तन परीक्षा परिणाम के प्रकाशन से पहले ही करा सकता है। पहले परीक्षा परिणाम प्रकाशन के 10 साल बाद तक इस तरह का परिवर्तन कराया जा सकता था।

दूसरी ओर दिल्ली विश्वविद्यालय के संशोधित नियम में कहा गया है कि विश्वविद्यालय के रिकॉर्ड में किसी भी तरह के बदलाव से पहले सीबीएसई के रिकॉर्ड में भी परिवर्तन कराना अनिवार्य होगा।

याचिकाकर्ता की दलील है कि इन नियमों के कारण वह जन्म के समय दिये गये नाम और लैंगिक पहचान के साथ ही जीने को मजबूर है, जो व्यक्तिगत पहचान और सम्मानित जीवन जीने के उसके अधिकारों का उल्लंघन है।

अपनी निजी पहचान के साथ जीना व्यक्ति का नैसर्गिक अधिकार

संबंधित अधिकारीगण इस बात पर भी विचार करने में असफल रहे हैं कि सामाजिक और माता-पिता के दबाव के कारण एक बच्चा अपने लिंग की पहचान व्यक्त नहीं कर पाता है और वह जन्म के समय उसे दी गयी लैंगिक पहचान के साथ जीवन जीने को मजबूर रहता है, लेकिन जब वह वयस्क हो जाता है, तभी अपनी वास्तविक पहचान का दावा कर सकता है।

ट्रांसजेंडर ने याचिका में कहा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय और सीबीएसई के संशोधित नियम संविधान प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन है, क्योंकि ऐसे नियम जन्म के समय दी गयी पहचान से इतर अपनी व्यक्तिगत पहचान के साथ जीने की तमन्ना रखने वाले अनेक लोगों को ऐसी जिन्दगी जीने को मजबूर करते हैं जो सम्मान और आजादी से उन्हें वंचित करता है। 



Tags:    

Similar News