एनसीडीआरसी ने सहारा को दिया निर्देश, उपभोक्ता को धनराशि वापस करें, मुआवजा भी दें
राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग(एनसीडीआरसी) ने रियल एस्टेट डेवलपर, सहारा प्राइम सिटी लिमिटेड को निर्देश दिया है कि वह शिकायतकर्ता द्वारा दी गई उस मुख्य धनराशि को वापिस करे, जो सहारा से फ्लैट खरीदने के बदले में दी गई थी। इसके अलावा वह शिकायतकर्ता को मुआवजे का भी भुगतान करे, क्योंकि उनके द्वारा फ्लैट पर कब्जा देने में अत्यधिक देरी की गई है।
क्या था मामला
शिकायतकर्ता तपस्या पलावत ने डेवलपर के साथ वर्ष 2006 में एक फ्लैट बुक किया था और इस फ्लैट की कुल कीमत का 15 प्रतिशत यानि 4,06,050 रुपए की धनराशि जमा करा दी थी। इसी के अनुसार शिकायतकर्ता को अगस्त 2009 में एक फ्लैट अलॉट कर दिया गया था परंतु बाद में अलॉटमेंट रद्द कर दिया गया क्योंकि शिकायतकर्ता बाकी की धनराशि जमा नहीं करा पाई।
शिकायकर्ता ने लंबे समय तक बीमार रहने के कारण तय समय पर यह भुगतान न कर पाने की बात को स्वीकार किया और डेवलपर से आग्रह किया कि वह देय राशि देने के लिए और कब्जा लेने के लिए तैयार है।
परंतु डेवलपर ने उसके इस आग्रह को स्वीकार करने से इंकार कर दिया, जिसके बाद शिकायकर्ता ने राजस्थान के राज्य आयोग में शिकायत दायर की। राज्य आयोग के समक्ष डेवलपर की तरफ से कोई पेश नहीं हुआ, जिसके चलते राज्य आयोग ने अपने एक-तरफा आदेश में शिकायकर्ता की शिकायत को स्वीकार कर लिया। राज्य आयोग ने डेवलपर को निर्देश दिया कि वह शिकायकर्ता द्वारा शेष रकम जमा करने के बाद फिर से उसका फ्लैट अलॉट कर दे।
आयोग ने यह भी कहा कि अगर डेवलपर ऐसा नहीं कर सकता है तो डेवलपर को शिकायतकर्ता द्वारा जमा कराई गई 4,06,050 रुपए की धनराशि लौटानी होगी, जिस पर 12 प्रतिशत वार्षिक दर से ब्याज भी दिया जाए। वहीं राज्य आयोग ने शिकायतकर्ता को मुआवजे व मुकदमे के खर्च के तौर पर भी एक लाख रुपए देने का निर्देश दिया था।
फैसले को चुनौती
राज्य आयोग के आदेश को शिकायकर्ता और डेवलपर, दोनों ने ही एनसीडीआरसी के समक्ष उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 19 के तहत चुनौती दी थी। जहां शिकायतकर्ता ने मुआवजे की राशि को बढ़ाने की मांग की थी, वहीं डेवलपर ने राज्य आयोग के आदेश को रद्द करने की मांग की थी।
डेवलपर की तरफ से वकील नेहा गुप्ता पेश हुईं और दलील दी कि राज्य आयोग ने उनके खिलाफ एक-तरफा आदेश दिया था, जबकि उनको जारी किए गए दस्ती नोटिस की तामील होने की रिपोर्ट का भी इंतजार नहीं किया गया। इसके लिए आयोग ने यह आधार बनाया कि उनको जारी किए गए दस्ती नोटिस को एक महीने से ज्यादा बीत चुका था, इसलिए उनके खिलाफ एक-तरफा आदेश दे दिया गया। वकील ने दलील दी कि रजिस्टर्ड पोस्ट से भेजे गए दस्ती नोटिस के आधार पर सेवा का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है या यह नहीं माना जा सकता है कि उनको नोटिस मिल ही गया था।
दूसरी तरफ शिकायकर्ता की तरफ से पेश वकील अभिजीत शाह और प्रज्ञा पलावा ने दलील दी कि राज्य आयोग ने यह माना था कि डेवलपर को भेजा गया नोटिस तामील हो चुका है और उसके बावजूद भी डेवलपर की तरफ से कोई पेश नहीं हुआ।
डेवलपर की तरफ से यह भी दलील दी गई कि उन्होंने इसलिए बुकिंग रद्द की थी क्योंकि शिकायकर्ता ने बकाया धनराशि का भुगतान नहीं किया,जबकि उनको तीन महीने तक स्मरण पत्र या रिमाइंडर नोटिस भेजे गए थे। यह भी दलील दी कि बुकिंग फार्म में दिए गए नियम व शर्तों के अनुसार अगर किस्तों का भुगतान नहीं किया जाता है तो डेवलपर के पास यह अधिकार होगा कि वह तीन महीने की अवधि का नोटिस जारी करने के बाद बुकिंग रद्द कर सकता है।
फैसला
नोटिस तामील होने से संबंधित मुद्दे पर एनसीडीआरसी के अध्यक्ष जस्टिस आर.के अग्रवाल और सदस्य एम.श्रीशा ने कहा कि नोटिस को मूल शिकायत के दूसरे विपक्षी पक्षकार, सहारा सिटी होम्स को भेजा गया था। यह कंपनी खुद डेवलपर ने बनाई गई थी और इसी कंपनी का नाम फ्लैट के लिए मांगी गई अर्जी या एप्लीकेशन फॉर्म पर था। कंपनी के नाम पर भेजा गया नोटिस यह कहते हुए वापस आ गया था कि उसे स्वीकार करने से 'इंकार' कर दिया गया है।
ऐसे में डेवलपर की तरफ से नोटिस के संबंध में दी गई दलील को खारिज किया जाता है। इस मामले में नियमन 10 पर भरोसा रखा गया था, जिसके अनुसार जब भी उपभोक्ता फोरम शिकायत के संबंध में विपरीत पक्ष को नोटिस जारी करने का निर्देश देता है, तो आमतौर पर इस तरह के नोटिस को 30 दिनों की अवधि के लिए जारी किया जाता है और जब सेवा का अनुमान लगाने का कोई सवाल उठता है तो उसके लिए भी 30 दिनों के नोटिस की आवश्यकता है।
पीठ ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि संबंधित परियोजना आज तक अधूरी थी और डेवलपर शिकायतकर्ता को कब्जा देने की स्थिति में नहीं था। इस संबंध में यह माना गया कि डेवलपर की सेवाओं में कमी थी।
आयोग ने कहा कि-
'' डेवलपर ने आवंटन की तारीख से 38 महीनों के भीतर फ्लैट पर कब्जा देने का वादा किया था लेकिन आज तक यह तथ्य बरकरार है कि डेवलपर ऑक्यूपेशन सर्टिफिकेट या अधिवास प्रमाण पत्र के साथ उस अपार्टमेंट पर कानूनी कब्जे की पेशकश करने की स्थिति में नहीं है। हम मानते हैं कि डेवलपर द्वारा रद्दीकरण एकतरफा है और जमा राशि को जब्त करने की उनकी कार्रवाई भी अनुचित व्यापार अभ्यास है।''
इस मामले में आयोग ने पायनियर अर्बन लैंड एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड बनाम गोविंदन राघवन II, (2009) सीपीजे 34(एससी) मामले में दिए गए फैसले पर भरोसा जताया था।
तदनुसार, आयोग ने डेवलपर की अपील को खारिज कर दिया और कहा कि शिकायतकर्ता,उसको हुई मानसिक पीड़ा व वित्तीय हानि के लिए दो लाख रुपये के मुआवजे की हकदार थी। दस साल से ज्यादा का समय बीत चुका है और आज तब उसको अपने फ्लैट पर कब्जा नहीं मिला है। आयोग ने अतिरिक्त तौर पर 12 प्रतिशत वार्षिक दर से ब्याज देने का भी निर्देश दिया है।