प्रशासनिक निर्णय में हाईकोर्ट का हस्तक्षेप तभी न्यायसंगत, जब निर्णय कानून की एक स्पष्ट त्रुटि हो, सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासनिक कार्रवाई पर अदालतों की न्यायिक समीक्षा की शक्तियों के सम्बन्ध में दोहराया है कि, न्यायालय तब तक प्रशासनिक निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकता, जब तक कि ऐसा निर्णय अवैधता, तर्कहीनता या प्रक्रियात्मक अव्यवस्था से ग्रस्त न हो।
न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति बीआर गवई की पीठ ने यह बातें मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक फैसले को रद्द करते हुए कही हैं। उच्च न्यायालय ने उज्जैन के राजस्व आयुक्त द्वारा 30 वर्षों की अवधि के लिए पट्टे पर भूमि आवंटन के लिए निविदा जारी करने के मामले में पारित एक आदेश के साथ हस्तक्षेप किया था। (नीमच नगर परिषद बनाम महादेव रियल एस्टेट)
पीठ ने इस मामले में टाटा सेल्यूलर बनाम भारत संघ और पश्चिम बंगाल केंद्रीय विद्यालय सेवा आयोग बनाम अब्दुल हलीम, मामलों को संदर्भित किया और कहा कि:
"एक प्रशासनिक कार्रवाई की न्यायिक समीक्षा का दायरा बहुत सीमित होता है। जब तक अदालत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती है कि निर्णय निर्माता ने कानून को सही ढंग से नहीं समझा है जो उसकी निर्णय लेने की शक्ति को नियंत्रित करता है या जब यह पाया जाता है कि निर्णय तर्कहीन है या निर्णय विकृत है और वह भी 'वेडनसबरी अनरिजनेबलनेस ' के सिद्धांत के आधार पर या जब तक यह नहीं पाया जाता है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में एक प्रक्रियात्मक रूप से असमानता हो गई है, तब तक हाईकोर्ट द्वारा निर्णय लेने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं होगी।"
यह भी समान रूप से तय किया गया है कि न्यायालय द्वारा निर्णय की वैधता की जांच करना स्वीकार्य नहीं है। न्यायालय केवल निर्णय लेने की प्रक्रिया की परिशुद्धता या औचित्य की जांच कर सकता है।
हाईकोर्ट द्वारा दखल केवल तभी दिया जाएगा, जब लागू किया गया निर्णय कानून की स्पष्ट त्रुटि से विकृत या दूषित हो, अर्थात जब रिकॉर्ड पर त्रुटि स्पष्ट हो और स्वयं स्पष्ट हो। हाईकोर्ट को शक्तियों का प्रयोग करने के लिए अधिकार तभी है जब हाईकोर्ट को पता चलता है कि लागू किया गया निर्णय इतना मनमाना और तर्कहीन है कि कोई भी वाजिब व्यक्ति इसे नहीं ले सकता है।
कोर्ट ने यह भी दोहराया कि परीक्षण यह नहीं है, अदालत किसे उचित या अनुचित मानती है, बल्कि एक निर्णय जिसके बारे में अदालत को लगता है कि कोई भी उचित व्यक्ति इसे नहीं ले सकता था। इतना ही नहीं, इस तरह के फैसले से साफ़ तौर पर अन्याय भी प्रकट होता होना चाहिए।
प्रस्तुत मामले के तथ्यों को देखने के बाद पीठ ने कहा कि राज्य सरकार या आयुक्त के निर्णय को अवैध, असंगत, अनुचित या तर्कहीन नहीं कहा जा सकता है। पीठ ने यह भी कहा कि आयुक्त का फैसला निस्संदेह जनहित में लिया गया है, जो यह सुनिश्चित करेगा कि प्रतियोगिता के दायरे को बढ़ाकर नगर परिषद अधिक राजस्व अर्जित करे।