अनुच्छेद 370: याचिकाओं को वृहद पीठ के सुपुर्द करने के अनुरोध पर सुप्रीम कोर्ट में फैसला सुरक्षित
उच्चतम न्यायालय ने जम्मू-कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 को निरस्त किये जाने को चुनौती देने वाली याचिकाओं को वृहद पीठ के सुपुर्द करने या ना करने के मामले में गुरुवार को फैसला सुरक्षित रख लिया।
न्यायमूर्ति एन वी रमन, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी, न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की संविधान पीठ ने याचिकाकर्ताओं और केंद्र सरकार की दलीलें सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया।
विभिन्न याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता दिनेश द्विवेदी, संजय पारिख, राजीव धवन, जे ए शाह, चंद्र उदय सिंह और गोपाल शंकरनारायणन ने दलीलें दी, जबकि एटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने क्रमश: केंद्र सरकार और जम्मू कश्मीर प्रशासन का पक्ष रखा।
जम्मू कश्मीर बार एसोसिएशन की ओर से पेश जफर अहमद शाह ने कल अधूरी रही अपनी जिरह आज सबसे पहले पूरी की।
जिरह के दौरान संविधान पीठ में शामिल न्यायमूर्ति कौल ने शाह से पूछा कि क्या जम्मू कश्मीर के भारत में विलय संबंधी हस्ताक्षरित दस्तावेज (इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन ऑफ जम्मू-कश्मीर) अन्य रियासतों द्वारा हस्ताक्षरित दस्तावेजों से अलग थे? श्री शाह ने इसका ना में जवाब दिया।
शाह की दलीलें समाप्त होने के बाद एटॉर्नी जनरल ने याचिकाओं को वृहद पीठ को न सौंपने का न्यायालय से अनुरोध करते हुए अपनी दलीलें शुरू की। वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने तुरंत उठकर कहा कि वह वेणुगोपाल के मत से इत्तेफाक रखते हैं और खुद भी इन याचिकाओं को वृहद पीठ के सुपुर्द किये जाने के खिलाफ हैं।
वेणुगोपाल ने दलील दी कि अलगाववादी वहां जनमत संग्रह का मुद्दा उठाते आए हैं क्योंकि वह जम्मू कश्मीर को अलग संप्रभु राज्य बनाना चाहते थे। उन्होंने कहा कि महाराजा हरि सिंह ने भारत की मदद इसलिए मांगी थी क्योंकि वहां विद्रोही घुस चुके थे। वहां पर आपराधिक घटनाएं हुईं और आंकड़े बताते हैं कि अलगाववादियों को पाकिस्तान से ट्रेनिंग दी गयी, ताकि यहां बर्बादी की जा सके। एटॉर्नी जनरल ने कहा कि जनमत संग्रह कोई स्थायी समाधान नहीं था।
उन्होंने संविधान पीठ के समक्ष एक-एक कर ऐतिहासिक घटनाक्रम का ब्योरा दिया। साथ ही कश्मीर का भारत में विलय और जम्मू कश्मीर संविधान सभा के गठन के बारे में विस्तार से उल्लेख किया। वेणुगोपाल ने जम्मू कश्मीर की धारा तीन का उल्लेख करते हुए कहा कि जम्मू कश्मीर को स्थायी तौर पर भारत का आंतरिक हिस्सा घोषित किये जाने के बाद जनमत संग्रह का प्रश्न ही नहीं रह जाता।
वेणुगोपाल की दलीलें पूरी होने के बाद सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने जम्मू कश्मीर प्रशासन की ओर से अपना पक्ष रखा। उनकी दलीलें पूरी होने के बाद वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने दलीलें शुरू की। उन्होंने कहा कि याचिकाओं को वृहद पीठ को न भेजे जाने की वेणुगोपाल की दलीलों से वह सहमत हैं, लेकिन एटॉर्नी जनरल ने कश्मीर के इतिहास का जो उल्लेख किया वह अप्रासंगिक था।
इस पर न्यायमूर्ति कौल ने कहा कि जब संविधान पीठ ने शाह की दलीलें कश्मीर के इतिहास को लेकर सुनी हैं तो इस बात का कोई कारण नहीं बनता कि इस मामले में एटॉर्नी जनरल को दलीलें देने से रोका जाये।
वरिष्ठ अधिवक्ता दिनेश द्विवेदी ने संविधान पीठ के समक्ष कहा था कि भारतीय संविधान के तहत 'जम्मू कश्मीर के संविधान' को निरस्त करने का अधिकार नहीं है। उन्होंने दलील दी कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 अस्थायी था और यह जम्मू कश्मीर के संविधान के अस्तित्व में आने तक ही प्रभावी था।
उन्होंने दलील दी थी कि जम्मू कश्मीर के संविधान के लागू होने के बाद राष्ट्रपति को अनुच्छेद 370 के तहत प्राप्त शक्तियों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था।
द्विवेदी ने जम्मू कश्मीर के भारत में विलय संबंधी दस्तावेज (इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन ऑफ जम्मू-कश्मीर) के अनुच्छेद छह का हवाला देते हुए कहा था कि इस अनुच्छेद के तहत जम्मू कश्मीर को संप्रभुता प्रदान की गयी है।
उन्होंने दलील दी थी कि केंद्र सरकार को जम्मू कश्मीर के मामले में कानून बनाने का अधिकार सीमित है। अनुच्छेद 370 केंद्र और जम्मू कश्मीर के बीच एक सम्पर्क सूत्र था। उन्होंने कहा था कि जम्मू कश्मीर का शासन केवल इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन और राज्य के पृथक संविधान के जरिये ही किया जा सकता था। धवन की दलीलें पूरी होने के बाद न्यायालय ने फैसला सुरक्षित रख लिया था।