यदि न्यायिक आदेश बेईमानी या बाहरी कारणों पर आधारित हों तो जज के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों नहीं हो सकती? सुप्रीम कोर्ट

Update: 2025-12-18 10:25 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि सामान्य तौर पर किसी न्यायाधीश के खिलाफ केवल उसके न्यायिक आदेशों के आधार पर कार्रवाई नहीं की जा सकती लेकिन यदि यह पाया जाए कि कोई आदेश बेईमानी या बाहरी कारणों से प्रेरित होकर पारित किया गया है तो ऐसे मामले में अनुशासनात्मक कार्यवाही से इनकार क्यों किया जाए।

यह टिप्पणी उस समय की गई जब अदालत मध्य प्रदेश के जिला जज द्वारा अपनी निलंबन आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

चीफ जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जॉयमल्या बागची और जस्टिस विपुल पंचोली की पीठ के समक्ष सीनियर एडवोकेट विपिन सांघी ने याचिकाकर्ता न्यायिक अधिकारी की ओर से दलील दी।

उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता एक प्रतिष्ठित और ईमानदार न्यायिक अधिकारी रहे हैं, जिनकी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (ACR) उत्कृष्ट रही है और उन्हें सेवानिवृत्ति से कुछ दिन पहले निलंबित कर दिया गया।

सांघी ने तर्क दिया कि निलंबन आदेश में कोई कारण दर्ज नहीं किया गया और मीडिया रिपोर्टों से यह संकेत मिलता है कि यह कार्रवाई दो न्यायिक आदेशों के आधार पर की गई।

उन्होंने कहा कि किसी न्यायिक आदेश के लिए जज के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती, क्योंकि यदि कोई आदेश गलत है तो उसका सुधार अपीलीय मंच पर किया जा सकता है।

इस पर चीफ जस्टिस सूर्यकांत ने टिप्पणी करते हुए कहा कि केवल आदेश के गलत होने के आधार पर अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं होनी चाहिए लेकिन यदि आदेश स्पष्ट रूप से किसी बेईमान या बाहरी विचार से प्रभावित हो तो ऐसे में कार्रवाई क्यों नहीं की जा सकती।

उन्होंने यह भी कहा कि हाल के वर्षों में यह एक चिंताजनक प्रवृत्ति बनती जा रही है कि सेवानिवृत्ति के निकट कुछ जज अत्यधिक प्रभाव वाले आदेश पारित करने लगते हैं।

पीठ ने यह भी पूछा कि जिन आदेशों के कारण निलंबन हुआ वे किस प्रकृति के थे। इस पर सांघी ने बताया कि ये आदेश खनन गतिविधियों से जुड़ी रॉयल्टी और पेनल्टी की वसूली पर रोक से संबंधित थे।

चीफ जस्टिस ने सवाल किया कि क्या इन आदेशों से करोड़ों रुपये की वसूली प्रभावित हो रही थी। सांघी ने कहा कि उन्होंने स्वयं आदेशों का विस्तृत अध्ययन नहीं किया लेकिन ऐसा कोई सामग्री रिकॉर्ड पर नहीं है, जिससे यह साबित हो कि आदेश किसी बाहरी कारण से प्रेरित थे।

चीफ जस्टिस ने सांघी से जो स्वयं एक पूर्व हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस रह चुके हैं यह भी पूछा कि क्या ऐसे मामलों में राजस्व विभाग को नोटिस जारी किया गया था।

इस पर सांघी ने कहा कि राज्य सरकार को सुनवाई का अवसर देने के बाद ही अंतरिम आदेश पारित किए गए थे।

सुनवाई के दौरान यह भी सामने आया कि याचिकाकर्ता जज 30 नवंबर, 2025 को सेवानिवृत्त होने वाले थे लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 20 नवंबर के आदेश से मध्य प्रदेश के जजों की सेवानिवृत्ति आयु बढ़ाए जाने के कारण उनका कार्यकाल 30 नवंबर 2026 तक बढ़ गया था। हालांकि उनका निलंबन आदेश 19 नवंबर को पारित किया गया।

पीठ ने निलंबन आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। साथ ही अदालत ने इस बात पर भी नाराजगी जताई कि याचिकाकर्ता ने अपने निलंबन के कारण जानने के लिए हाईकोर्ट के समक्ष सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत आवेदन दायर किया।

अदालत ने कहा कि उनके अनुभव के अधिकारी से ऐसी प्रक्रिया की अपेक्षा नहीं की जाती और उन्हें सक्षम प्राधिकारी के समक्ष प्रतिवेदन देना चाहिए था।

अदालत ने कहा कि यदि याचिकाकर्ता हाईकोर्ट के समक्ष प्रतिनिधित्व करता तो उसे निलंबन के कारण बताए जा सकते थे या औपचारिक रूप से अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की जा सकती थी।

हालांकि, पीठ ने याचिकाकर्ता को यह स्वतंत्रता दी कि वह हाईकोर्ट में एक विस्तृत प्रतिवेदन दाखिल कर निलंबन आदेश वापस लेने या अन्य वैधानिक राहत की मांग कर सकता है। हाईकोर्ट को निर्देश दिया गया कि वह ऐसे प्रतिवेदन पर यथाशीघ्र, अधिकतम दो सप्ताह के भीतर निर्णय ले।

आदेश सुनाए जाने के बाद सीनियर एडवोकेट सांघी ने अनुरोध किया कि याचिकाकर्ता को बहाल कर किसी अन्य स्थान पर तैनात किया जाए। इस पर चीफ जस्टिस ने टिप्पणी की कि जब याचिकाकर्ता ने विवादित आदेश पारित किए तब उन्हें यह जानकारी नहीं थी कि सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाई जाएगी।

उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में एक स्पष्ट संदेश जाना आवश्यक है और इस विषय पर वह और कुछ नहीं कहना चाहते।

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