सीएए विरोध प्रदर्शन : सभी को विरोध करने का अधिकार, लेकिन संविधान के दायरे में, ज़मानत की अर्ज़ी पर सुनवाई करते हुए तीस हज़ारी कोर्ट की टिप्पणी
तीस हजारी कोर्ट में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने बुधवार को सीएए के विरोध प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा के आरोप में 21 दिसंबर को दरियागंज पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए 15 व्यक्तियों की ज़मानत अर्जी पर सुनवाई की।
मामले की सुनवाई शुरू होने के बाद लोक अभियोजक पंकज भाटिया ने आरोपों के बारे में अदालत को बताया और इस घटना को आपराधिक साजिश के रूप में पेश किया। न्यायाधीश कामिनी लाउ ने हस्तक्षेप किया और कहा कि इसे आपराधिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि लोगों को विरोध करने का लोकतांत्रिक अधिकार है।
जज ने आगे कहा कि लोग सीलमपुर से चले थे, ताकि जैसे-जैसे वे आगे जाएं, दूसरों के साथ जुड़ते चले जाते , यह एक सभ्य मामला होता। जांच के बारे में पूछे जाने पर, अपराध शाखा ने अदालत को बताया कि 15 अभियुक्तों की पहचान उस फुटेज के माध्यम से नहीं हो पाई है जो अब तक उनके पास उपलब्ध हैं।
मीडिया चैनलों से अनुरोध किया गया है कि वे अपने कैमरों से फुटेज साझा करके अपराध शाखा की सहायता करें। न्यायाधीश ने डीसीपी कार्यालय से उपलब्ध सीसीटीवी फुटेज के बारे में पूछताछ की, जिसके बाद कोर्ट को बताया गया कि क्राइम ब्रांच को अभी तक वह फुटेज नहीं मिले हैं। जज ने आरोपियों की मेडिकल रिपोर्ट के बारे में भी पूछा।
15 आरोपियों की ओर से पेश वरिष्ठ वकील रेबेका जॉन ने कहा कि वे सब 19 दिनों से जेल में हैं। न्यायाधीश लाउ ने हालांकि कहा कि इस पर ध्यान दिया जाएगा लेकिन सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के तरीके पर गंभीर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा,
''यहां कोई ब्रिटिश शासन नहीं है ... उनके (प्रदर्शनकारियों) पास पत्थर फेंकने और हमारे देश से संबंधित संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का कोई अधिकार नहीं है। हम भी छात्रों के रूप में भी विरोध करते थे लेकिन आज जब उन्हें (छात्रों को) विरोध प्रदर्शन के लिए फोन आता है तो उन्हें लगता है कि सब कुछ स्वीकार्य है। "
वरिष्ठ अधिवक्ता जॉन ने उनके साथ सहमति व्यक्त की और कहा कि हर किसी को विरोध करने का अधिकार है लेकिन किसी को भी बर्बरता करने का अधिकार नहीं। न्यायाधीश ने दोहराया कि वह सार्वजनिक संपत्ति को हुए नुकसान से खुश नहीं हैं। न्यायाधीश लाउ ने यह भी कहा कि ऐसी घटनाओं से आम आदमी को असुविधा होती है। परंतु वरिष्ठ अधिवक्ता जॉन ने यह कहते हुए जवाब दिया कि यह आम आदमी था जो इन विरोधों के लिए सड़कों पर था।
वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन ने प्रस्तुत किया कि एफआईआर में गैर-जमानती अपराधों में से एक धारा 436 आईपीसी इस मामले में लागू नहीं होती है क्योंकि पुलिस मामले के अनुसार किसी भी आवास इकाई या पूजा स्थल को कोई नुकसान नहीं हुआ था। फिर उन्होंने प्रस्तुत किया कि अन्य दो गैर-जमानती अपराध (आईपीसी की धारा 353, व 332 ) में क्रमशः 2 और 3 वर्ष की सजा निर्धारित की है।
अर्नेश कुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार,जिन मामलों में 7 साल से कम कारावास की सजा का प्रावधान है,उन मामलों में गिरफ्तारी केवल असाधारण परिस्थितियों में की जानी चाहिए।
फिर न्यायाधीश ने पूछा कि यदि आरोपियों को ज़मानत पर बाहर निकाल दिया जाता है तो इस बात की क्या गारंटी है कि जिस प्रकृति की बर्बरता पहले की गई थी, वह दोहराई नहीं जाएगी। जॉन से इसका समाधान पूछा।
इस पर वरिष्ठ अधिवक्ता ने पुलिस के बयान का हवाला देकर जवाब दिया कि रात को 1 बजे गिरफ्तारी के बाद प्राथमिकी कैसे दर्ज की गई, जिसके बाद नाबालिगों को रात भर जेल में रखा गया। वकील ने दलील दी कि अभियुक्त बर्बरता के लिए जिम्मेदार नहीं हैं, इसका आवश्वासन ,वह अपनी टीम द्वारा किए गए व्यापक अनुसंधान के आधार पर दे सकते हैं।
न्यायाधीश ने यह कहने के लिए हस्तक्षेप किया कि जांच करना और पता लगाना पुलिस का काम था। जॉन ने कहा कि इन 15 लोगों का कोई राजनीतिक जुड़ाव नहीं था और उन्हें अलग-अलग जगहों से उठाया गया था, जबकि उनमें से कुछ लोग घर जाना चाहते थे।
इन प्रस्तुतियों को सुनने के बाद, न्यायाधीश लाउ ने फिर कहा कि सभी को विरोध करने का अधिकार है, लेकिन संविधान के मापदंडों के भीतर। फिर जज ने क्राइम ब्रांच को सभी आरोपियों के मेडिको लीगल सर्टिफिकेट और साथ ही सीसीटीवी फुटेज और दोपहर 3 बजे तक के निष्कर्षों को प्रस्तुत करने को कहा, जबकि कुछ रिपोट प्रस्तुत की गई थीं, कुछ की एमएलसी नहीं थी और कुछ में स्पष्टता का अभाव था।
इसे देखते हुए न्यायाधीश ने मामले की सुनवाई कल यानि 9नौ जनवरी के शाम 4 बजे तक के लिए टाल दी। 23 दिसंबर 2019 को तीस हजारी मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने इन सबकी जमानत अर्जी खारिज कर दी थी।