''क्या हम इंसान नहीं हैं? क्या हमने मानवता का पूरा स्पर्श खो दिया है? क्या हम एक पुलिस राज्य में रह रहे हैं?'' जस्टिस दीपक गुप्ता ने फादर स्टेन स्वामी की मौत और UAPA पर सवाल उठाए

Update: 2021-07-25 14:15 GMT

न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने शनिवार को कहा, ''समय आ गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (देशद्रोह) को असंवैधानिक करार दिया जाए।'' उन्होंने यह भी कहा कि यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम) जैसा कानून वर्तमान स्वरूप में कानून की किताब में नहीं रहना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश सीजेएआर के एक वेबिनार में बोल रहे थे,जिसका विषय था-''लोकतंत्र, असहमति और कठोर कानून पर चर्चा- क्या यूएपीए और राजद्रोह को हमारी कानून की किताबों में जगह मिलनी चाहिए?''। सीजेआई एनवी रमना की मौखिक टिप्पणियों के आलोक (जिसमें केंद्र से पूछा गया था कि क्या अभी भी उस देशद्रोह कानून को जारी रखना आवश्यक है, जिसका उपयोग अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए किया गया था), न्यायमूर्ति गुप्ता ने आशा व्यक्त की है कि जब प्रावधान की संवैधानिकता को चुनौती देने वाले मामले की सुनवाई अंततः अदालत द्वारा की जाएगी तो इसे रद्द कर दिया जाएगा।

यूएपीए के संबंध में, न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि वह यह सुझाव नहीं दे रहे हैं कि हमें आतंकवादी गतिविधियों से निपटने वाले कानून की आवश्यकता नहीं है,बल्कि उन्होंने जोर देकर कहा कि ऐसा कोई भी कानून ''अच्छी तरह से परिभाषित क्षेत्र'' के साथ होना चाहिए, न कि ''अनिश्चित, आतंकवाद की अस्पष्ट परिभाषा वाला जैसा कि यूएपीए में किया गया है।''

उन्होंने बताया कि कैसे इस कानून ने लोगों को वर्षों तक कैद में रखा है, जहां पुलिस सहित हर कोई अच्छी तरह से जानता है कि यूएपीए के तहत कोई मामला नहीं बनता है,परंतु सिर्फ इसलिए यूएपीए लागू किया जाता है क्योंकि अदालतें जमानत देने के लिए अनिच्छुक होती हैं या उन्हें लगता है कि वे जमानत नहीं दे सकती हैं।

न्यायाधीश ने यूएपीए के तहत गिरफ्तारी की बढ़ती प्रवृत्ति और लंबे समय तक जेल में रहने की प्रवृत्ति को ''चिंताजनक'' बताया, जबकि बाद में ऐसे मामलों में आरोपी बरी हो जाता है या उसे आरोपमुक्त कर दिया जाता है। उन्होंने महाराष्ट्र एटीएस द्वारा अगस्त 2012 में नांदेड़ से गिरफ्तार किए गए मुहम्मद इलियास और मोहम्मद इरफान के मामले का उल्लेख किया, जिसकी गिरफ्तारी को आग्नेयास्त्रों की जब्ती से जोड़ा गया था और कहा गया था कि वे राजनेताओं, पुलिस अधिकारियों और पत्रकारों को मारने के लिए लश्कर-ए-तैयबा द्वारा रची गई साजिश का हिस्सा थे। उन्हें हाल ही में एनआईए कोर्ट ने बरी कर दिया था। उन्होंने यह भी बताया कि कैसे एक मामले में गिरफ्तारी के 19 साल बाद सूरत के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत ने इस साल मार्च में सभी 127 लोगों को वर्ष 2001 में स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) जैसे ''प्रतिबंधित संगठन को बढ़ावा देने'' के आरोप से बरी कर दिया।

न्यायमूर्ति गुप्ता ने व्यक्त किया कि,''नताशा नरवाल (एंटी-सीएए कार्यकर्ता) को जमानत नहीं मिली, लेकिन इस अवधि के दौरान उसके पिता की मृत्यु हो गई। सिद्दीकी कप्पन (एक दलित महिला के कथित सामूहिक बलात्कार-हत्या को कवर करने के लिए हाथरस जाने वाले पत्रकार को अक्टूबर 2020 में गिरफ्तार किया गया था) की मां की मृत्यु हो गई, जबकि वह जेल में था। फादर स्टेन स्वामी, 84 वर्षीय, पार्किंसंस रोग से पीड़ित (भीमा कोरेगांव आरोपी जिनकी हिरासत में मृत्यु हो गई)! क्या हम इंसान नहीं हैं? क्या मानवता का सारा स्पर्श खो दिया है कि इस आदमी को जमानत की आवश्यकता है? इसमें कोई संदेह नहीं है कि बॉम्बे हाई कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि उसे जेल में उचित इलाज मिले लेकिन आप बाहर क्यों नहीं आ सके? जमानत देते समय यह विचार होता है कि आरोपी न्याय से भागे नहीं, वह गवाहों को प्रभावित न करे, उसे जांच के लिए उपलब्ध होना चाहिए। ऐसे में अगर अदालत फादर स्टेन स्वामी को जमानत देती तो उसके पास इस तरह के प्रतिबंध लगाने की पर्याप्त शक्ति थी।''

यूएपीए की धारा 43-डी (5) के परंतुक में कहा गया है कि एक आरोपी को जमानत पर रिहा नहीं किया जाएगा,यदि अदालत ''केस डायरी या सीआरपीसी की धारा 173 के तहत बनाई गई रिपोर्ट पर विचार करने के बाद यह राय देती है कि यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि ऐसे व्यक्ति के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सच है।''  एनआईए बनाम जहूर अहमद शाह वटाली (2020) में मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि अदालतों को यूएपीए के तहत जमानत पर विचार करते समय अभियोजन के मामले के विस्तृत विश्लेषण में शामिल होने की अनुमति नहीं है और न ही इस बात को तरजीह दी जानी चाहिए कि अभियोजन द्वारा पेश किए गए सबूत पर्याप्त हैं या नहीं।

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि,

''रास्ते में जो आता है वह 43डी और वटाली मामले का फैसला है। शुक्र है, नजीब केस (2021) में, सुप्रीम कोर्ट ने यह विचार लिया है कि जमानत देने के लिए उच्च अदालतों की शक्तियों को कम नहीं किया जा सकता है। मेरी राय में, एक प्रावधान जो जमानत देने के लिए उच्च न्यायालयों की शक्ति को छीन लेता है और आरोपी व्यक्ति को न्यायिक समीक्षा की शक्ति से वंचित करता है,इसलिए वह असंवैधानिक है। आप एनडीपीएस अधिनियम के तहत जमानत के लिए शर्तें निर्धारित कर सकते हैं, लेकिन यहां शर्त यह है आपको धारा 173 के तहत दायर रिपोर्ट में कही गई हर बात पर विश्वास करना होगा और अगर आप उन बातों को मानते हैं जो पुलिस ने 173 की रिपोर्ट में कहीं है, तो कोई जमानत नहीं दी जा सकती। अपने स्तर पर हर पुलिस अधिकारी यह सुनिश्चित करेगा कि 173 की रिपोर्ट में प्रथम दृष्टया मामला बनता हो।''

यह देखते हुए कि यूएपीए का आवेदन राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से जुड़ा है, न्यायाधीश ने कहा कि जिला अदालतें जमानत देते समय सोशल मीडिया पर आने वाली प्रतिक्रियाओं और जनता की राय के बारे में चिंतित हो सकती हैं। उन्होंने आग्रह किया, ''उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय को सामने से नेतृत्व करना होगा क्योंकि उच्च न्यायालयों की दो भूमिकाएं होती हैं-न्यायिक भूमिका और नागरिकों के मानवाधिकारों के रक्षक और समर्थक होने की भूमिका।''

न्यायमूर्ति गुप्ता ने देशद्रोह और यूएपीए के प्रावधानों की अस्पष्टता और परिणामस्वरूप इनका दुरुपयोग कैसे किया जाता है,इस पर अपने विचार रखते हुए कहा- ''भारतीय संविधान दुनिया के उन कुछ संविधानों में से एक है जिसमें 32 जैसा आर्टिकल शामिल है,जिसके तहत मौलिक अधिकारों को लागू करवाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय जाने का अधिकार अपने आप में एक मौलिक अधिकार है। जब आप इन भूमिकाओं को एक साथ जोड़ते हैं, तो इस संकल्प पर आना बहुत आसान हो जाएगा कि जो कानून बहुत अस्पष्ट हैं उन्हें या तो हटा दिया जाना चाहिए या अस्पष्टता को अदालत द्वारा यह कहकर हटा दिया जाना चाहिए कि अगर आप ये चीजें करेंगे, तभी कानून मान्य होगा, अन्यथा ऐसा नहीं होगा। देशद्रोह और यूएपीए, दोनों कानूनों में अस्पष्टता, अभियोजन एजेंसी को लोगों पर आरोप लगाने में मदद करती है।''

यद्यपि न्यायमूर्ति गुप्ता ने स्वीकार किया कि हम इस तथ्य पर पूरी तरह से अपनी आँखें बंद नहीं कर सकते हैं कि आतंकवाद आज एक चिंता का विषय है, उन्होंने जोर देकर कहा कि किसी भी आतंकवाद विरोधी कानून को बहुत सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि,''जब बॉम्बे हमले जैसा कुछ होता है, तो यह हम सभी के लिए चिंताजनक है। मैं यह कहने की हद तक नहीं जाऊंगा कि किसी अधिनियम की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। लेकिन कानून को बहुत सख्ती से लागू किया जाना चाहिए, इसका उपयोग केवल आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ किया जाना चाहिए। इसे इस तरह से तैयार किया जाना चाहिए और अदालतों द्वारा इस तरह से व्याख्या की जानी चाहिए कि इसके दुरुपयोग की कोई गुंजाइश न रहे।''

उन्होंने यह भी राय व्यक्त की है कि यूएपीए जैसे कानून को कानून की किताब में उस रूप में नहीं रहना चाहिए जिस रूप में यह अभी है- ''लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था कि अगर मुझे नागालैंड और मणिपुर में समस्याओं से निपटना है, तो मुझे इस तरह के एक्ट की आवश्यकता नहीं है, लेकिन मैं आमने-सामने बात करके इससे निपट सकता हूं।''

न्यायमूर्ति गुप्ता का विचार है कि अब समय आ गया है कि कानून के उस प्रस्ताव पर फिर से विचार किया जाए जिसका अदालतों ने हमेशा पालन किया है जब किसी कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी जाती है- केवल इसलिए कि दुरुपयोग की गुंजाइश है, कानून को रद्द नहीं किया जा सकता है और जब कभी दुरुपयोग हो, अदालतें इसकी जांच कर सकती हैं। ''मुझे लगता है कि कानून के इस प्रस्ताव पर फिर से विचार करने का समय आ गया है, अगर कोई कानून घोर दुरुपयोग करने में सक्षम है और अदालत के सामने यह साबित हो गया है कि इसका दिन-प्रतिदिन दुरुपयोग किया जा रहा है। मणिपुर के उस सज्जन को देखिए, जिसने कहा था कि गोमूत्र से कोरोना का इलाज नहीं होगा और उसे एनएसए के तहत सलाखों के पीछे डाल दिया गया (सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को मणिपुर के राजनीतिक कार्यकर्ता एरेन्ड्रो लीचोम्बम को रिहा करने का आदेश दिया था,जिसे कड़े राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत हिरासत में लिया गया था क्योंकि उन्होंने एक फेसबुक पोस्ट कहा था कि गोबर या गोमूत्र से कोरोना का इलाज नहीं होगा)। जज ने पूछा कि क्या हम पुलिस राज्य में रह रहे हैं?''

न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि न्यायालय को पहले के कई फैसलों पर फिर से विचार करना होगा और देखना होगा कि जहां कानून को चुनौती दी गई है, और अगर वह घोर दुरुपयोग करने में सक्षम है, तो भले ही कानून ऐसा प्रदान न करे, अदालत आर्टिकल 142 के तहत अंतर्निहित अपनी शक्तियों का उपयोग करते हुए,इन कानूनों के तहत मामला शुरू करने के लिए दिशानिर्देश निर्धारित कर सकती हैं।

जस्टिस गुप्ता ने व्यक्त किया कि,''यूएपीए के तहत गलत तरीके से कैद होने के मद्देनजर मुआवजे का भुगतान करना होगा, जैसे कि मणिपुर के इस सज्जन का मामला था। डीएम को भुगतान करने के लिए दायित्व के साथ बांधा जाना चाहिए ताकि अगली बार जब उनके राजनीतिक गुरु उनसे किसी आदमी को सलाखों के पीछे करने के लिए कहे तो वह ऐसा करने से पहले सोचेगा क्योंकि मुआवजा उसकी अपनी जेब से जाएगा। अदालतों को कानून प्रवर्तन एजेंसियों के साथ भी सख्त होना चाहिए, न कि उन लोगों के साथ जो इन कानूनों के शिकार हैं।''

न्यायाधीश ने खेद व्यक्त किया कि कुछ न्यायाधीशों को अभी भी यह नहीं पता है कि आतंकवाद क्या है और देशद्रोह क्या है और उन्होंने सीएए विरोधी 3 छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत देने के दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले की सराहना की। न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि,''मैं बहुत खुश हूं कि दिल्ली हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया। यह बहुत अच्छी तरह से लिखा गया फैसला है। यह यूएपीए के संबंध में अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण का सबसे अच्छा विश्लेषण हो सकता है। इस मामले में दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला उल्लेखनीय है। जिसमें कहा गया कि यूएपीए के तहत कोई मामला नहीं बनता है। उन्हें 43डी पर विचार करने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि कोई आतंकवादी गतिविधि नहीं है। अदालत ने कहा कि आरोपी सीएए के खिलाफ कुछ विरोध प्रदर्शन, 'चक्का-जाम' आयोजित कर रहे थे, तो यूएपीए लगाने का सवाल ही कहां पैदा होता है!''

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