आपराधिक कानूनों में आरोपी को राहत देने वाले संशोधन लंबित और पूर्व के मामलों पर भी लागू हो सकते हैं : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2019-11-07 04:57 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा है कि अगर आपराधिक क़ानून में संशोधनों से आरोपियों को लाभ होता है तो ये संशोधन पूर्व के मामलों और अदालतों में लंबित मामलों पर लागू हो सकते हैं।

वर्तमान मामले में त्रिलोक चंद को खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम, 1954 की धारा 16(1)(a)(i) (धारा 7 के साथ पढ़ें) के तहत दोषी पाया गया। उसे 3 महीने की कैद की सजा सुनाई गई और 500 रुपये का जुर्माना चुकाने को कहा गया। हाईकोर्ट ने उसकी याचिका को ख़ारिज कर दिया था।

सुप्रीम कोर्ट में अपील

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इस बारे में एकमात्र अपील यह थी कि खाद्य सुरक्षा और मानदंड अधिनियम, 2006 की धारा 51 और 52 के तहत घटिया खाद्य या इसकी ब्रांडिंग के अपराध के लिए अधिकतम सजा जुर्माना है।

इस बारे में नेमी चंद बनाम राजस्थान राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया गया। इस मामले में अपराध अधिनियम 1954 के अधीन दर्ज किया गया था और इसी अधिनियम के तहत इस व्यक्ति को सजा सुनाई गई। जब इस मामले की अपील हाईकोर्ट में लंबित थी, पुराने अधिनियम की जगह अधनियम 2006 लागू हुआ।

न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और संजीव खन्ना की पीठ ने कहा कि उक्त फैसले में टी बारे बनाम हेनरी अह होए और अन्य [(1983) 1 SCC 177] उद्धृत किया गया था, जिसमें कहा गया था कि चूंकि संशोधन आरोपी व्यक्तियों के लिए लाभकारी है, यह पूर्व के मामलों और और उन मामलों पर भी लागू हो सकता है जो अभी अदालत में लंबित हैं।

अदालत ने कहा,

"...अनुच्छेद 20(1) के तहत किसी व्यक्ति को घटना होने के समय लागू किसी क़ानून के उल्लंघन के लिए दण्डित किया जा सकता है ऐसे क़ानून के लिए नहीं जो अपराध होने के समय लागू नहीं था और उस पर उस समय लागू क़ानून के तहत लगाए जा सकने वाले जुर्माना से अधिक जुर्माना भी नहीं वसूला जा सकता है।

यह स्पष्ट है कि चूंकि केंद्रीय संशोधन नए अपराधों की श्रेणी बनाता है और कुछ विशेष तरह के अपराधों के लिए सजा के प्रावधानों में वृद्धि करता है, किसी भी व्यक्ति को इस तरह के क़ानून के तहत पिछले प्रभाव से सजावार घोषित नहीं किया जा सकता और न ही इस नए क़ानून के तहत उससे ज्य़ादा जुर्माना ही वसूला जा सकता है।

जब कोई केंद्रीय संशोधन अधिनियम की धारा 16(1)(a) के तहत सजा में कमी करता है, तो आरोपी को इसका लाभ नहीं दिलाने का कोई कारण नहीं हो सकता। लाभकारी संरचना के नियम की यह मांग है कि इस तरह के क़ानून का प्रयोग क़ानून के असर को कम करने के लिए पिछले प्रभाव से भी हो सकता है। यह सिद्धांत ठोस कारण और आम तर्क पर आधारित है।"

इसके बाद पीठ ने अपील स्वीकार कर ली और सजा को संशोधित करते हुए आरोपी पर सिर्फ 5000 रुपये का जुर्माना लगाया।

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