" जजों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना अवमानना के समान नहीं, आरोपों की जांच जरूरी" : प्रशांत भूषण ने 2009 अवमानना केस में सुप्रीम कोर्ट में कहा
अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने दावा किया है कि जनहित में भ्रष्टाचार का आरोप लगाने की किसी भी कवायद को संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" के दायरे में रखा जाना चाहिए।
भूषण द्वारा 2009 में न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वाले उनके बयानों को लेकर स्वत: संज्ञान लेकर शुरू की गई अवमानना कार्यवाही में ये लिखित दलील दाखिल की गई है।
सोमवार को, शीर्ष अदालत ने उक्त मामले में भूषण द्वारा प्रस्तुत स्पष्टीकरण को स्वीकार करते हुए एक विस्तृत सुनवाई का निर्णय लिया।
न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि अगर न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले कोई भी बयान अवमानना के समान हैं या नहीं, ये जांच करने की जरूरत है।
अधिवक्ता कामिनी जायसवाल के माध्यम से दायर जवाब में, यह प्रतिपादित किया गया है कि भ्रष्टाचार के आरोपों को अवमानना नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह न्याय के पक्षपातपूर्ण निपटान के लिए एक न्यायाधीश की आलोचना से संबंधित है और सभी मामलों में शुरुआत में ही आरोपों को रद्द करने से पहले इस तरह के आरोपों पर "आगे की जांच" की आवश्यकता होती है।
"न्यायाधीश जांच अधिनियम के तहत प्रदान किए गए तरीके से किसी न्यायाधीश के खिलाफ लगाए गए आरोपों की आगे जांच किए बिना, आरोपों की सत्यता को स्थापित किए बिना आरोप- प्रत्यारोप को अवमानना के समान नहीं किया जा सकता और ये भ्रष्टाचार सहित कदाचार के आधार पर एक न्यायाधीश के महाभियोग के लिए वैधानिक प्रक्रियाओं समेत संवैधानिक प्रावधानों को रद्द करना होगा, "उत्तर में कहा गया है।
न्यायाधीशों के खिलाफ ऐसे आरोपों की जांच के महत्व पर प्रकाश डालते हुए, भूषण ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दिनाकरन और कलकत्ता उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश सौमित्र सेन के मामलों को याद दिलाया है दोनों पर प्रासंगिक समय में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे।
यह कहा गया है कि उनके मामले "उदाहरण" हैं कि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की संवैधानिक मशीनरी के तहत जांच की गई और उनके निष्कासन की सिफारिश की गई, जिसके बाद हालांकि, दोनों ने पद से इस्तीफा दे दिया।
यह आगे बताया गया है कि 'सत्य' अवमानना के खिलाफ एक वैध बचाव है और इसलिए, कथित अवमानना के आरोपी को दोषी ठहराने के लिए, न्यायालय को आवश्यक रूप से एक जांच करनी होगी:
(ए) ऐसा बचाल सार्वजनिक हित में नहीं है; तथा
(b) इस तरह के बचाव को लागू करने के लिए अनुरोध सद्भावनापूर्ण नहीं है।
भारत के संवैधानिक कानून में न्यायमूर्ति एचएम सेवराई द्वारा की गई टिप्पणियों पर भरोसा रखा गया है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 (4) और 125 (5) के संचालन के लिए (न्यायाधीशों को हटाने से संबंधित) सत्य का बचाव उपलब्ध कराना है अन्यथा उक्त प्रावधानों को "असाध्य" माना जाएगा।
भूषण ने उन घटनाओं की अधिकता को याद दिलाया हैं जिनमें न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के तथ्य पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों द्वारा टिप्पणी की गई थी,बल्कि सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न जजों के साथ-साथ देश के उच्च न्यायालयों के फैसले भी दिए गए थे।
उन्होंने उन घटनाओं पर भी जोर दिया है जहां न्यायालयों ने न्यायिक भ्रष्टाचार के आरोप लगाने वाले व्यक्तियों के खिलाफ अवमानना के मामलों को खारिज कर दिया,ये कहते हुए कि वो "अदालत की अवमानना के कानून को बहुत दूर तक फैलाने के लिए संवेदनशील नहीं है।"
उन्होंने यह भी माना है कि सी रविचंद्रन अय्यर बनाम जस्टिस एएम भट्टाचार्जी और अन्य, 1995 एससीसी (5) 457 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया था कि बार के सदस्यों को जजों के खिलाफ शिकायत करने के लिए केवल इन-हाउस प्रक्रिया का उपयोग करना चाहिए।
हालांकि, उन्होंने प्रस्तुत किया है कि यह आंतरिक प्रक्रिया बिल्कुल "अपर्याप्त" और "अप्रभावी" है; और महाभियोग प्रक्रिया बहुत जटिल और राजनीतिक है।
"इसलिए, वर्तमान में न्यायपालिका में जनता के अलावा और विशेष रूप से वकीलों के माध्यम से भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कोई प्रभावी प्रक्रिया नहीं है, जो न्यायपालिका में भ्रष्टाचार या एक विशेष न्यायाधीश के भ्रष्टाचार की हद को अनुभव से जानते हैं या देखते हैं ," जवाब में कहा गया है।
गौरतलब है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के बारे में उनके ट्वीट के संबंध में भूषण को पहले ही अवमानना का दोषी ठहराया जा चुका है। पीठ उन्हें 20 अगस्त को सजा सुनाएगी।