बलात्कार के मामले में अभियुक्त को केवल पीड़िता की गवाही के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि उसकी गवाही वास्तविक गुणवत्ता की न हो : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि बलात्कर केस के किसी आरोपी की सजा पीड़िता की एकमात्र गवाही के आधार पर नहीं हो सकती है, जब तक कि वह वास्तविक गवाह का टेस्ट पास न कर ले।
न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एमआर शाह की खंडपीठ ने फैसला दिया कि पीड़िता के एकमात्र साक्ष्य के आधार पर किसी अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए सबूत बिल्कुल भरोसेमंद, बेदाग और वास्तविक गुणवत्ता वाले होने चाहिए।
राय संदीप उर्फ दीपू बनाम राज्य के मामले पर भरोसा करते हुए खंडपीठ ने दोहराया है कि वास्तविक (स्टर्लिंग) गवाह बहुत उच्च गुणवत्ता का होना चाहिए, जिसका बयान अखंडनीय होना चाहिए। ऐसे गवाह के बयान पर विचार करने वाली अदालत इस स्थिति में होनी चाहिए कि वह बिना किसी संदेह के इसके बयान स्वीकार कर ले।
इस तरह के एक गवाह की गुणवत्ता का परीक्षण करने के लिए गवाह की स्थिति सारहीन होगी। वह इस तरह के गवाह द्वारा दिए गए बयान की सत्यता है।
मामले के तथ्य
पीड़िता ने अपने बहनोई, अपीलकर्ता (अभियुक्त) के खिलाफ 16.09.2011 को शिकायत दर्ज कराई, जिसमें आरोप लगाया गया कि उसने पूर्व रात उसके साथ बलात्कार किया था। अपीलकर्ता के खिलाफ मखदुमपुर पुलिस स्टेशन, पटना में प्राथमिकी दर्ज की गई और फिर मामले की जांच की गई।
जांच के निष्कर्ष पर आईओ ने अपीलकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 376 (1) और 450 के तहत आरोप पत्र दायर किया। जहानाबाद में अतिरिक्त सत्र न्यायालय ने मामले की सुनवाई की।
अपीलकर्ता ने सभी तरह से निर्दोष होने की बात कही। अभियोजन पक्ष ने पीड़िता और चिकित्सा अधिकारी सहित आठ गवाहों की गवाही करवाई। 8 गवाहों में से तीन गवाहों ने अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन नहीं किया और अपने बयान से मुकर गए। ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को आईपीसी की धारा 376 के तहत अपराध के लिए 10 साल के कारवास और आईपीसी की धारा 450 के तहत 7 साल के कारावास की सजा दी।
इसके बाद अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट के समक्ष अपील दायर की जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था। इसके बाद अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
पार्टियों द्वारा दी गई दलीलें
अपीलार्थी की ओर से पेश वकील ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता को दोषी ठहराते हुए न्यायालयों ने तथ्यात्मक गलती की है। उन्होंने तर्क दिया कि अविश्वसनीय चिकित्सा साक्ष्य, पीड़िता के बयान में विरोधाभास और एफआईआर दर्ज करने में देरी से पीड़िता की विश्वसनीयता पर गंभीर संदेह पैदा हुआ है।
मामले के मुख्य आरोपी की तरफ से पेश वकील संतोष कुमार द्वारा प्रस्तुत किया गया कि पीड़िता के बयानों/ सबूतों को छोड़कर,जिसकी चिकित्सा साक्ष्य द्वारा पुष्टि नहीं की गई है, अभियुक्त को इस अपराध से जोड़ने के लिए कोई अन्य स्वतंत्र और ठोस साक्ष्य नहीं है।
अपीलकर्ता के वकील ने आगे तर्क दिया कि जब आईपीसी की धारा 376 के तहत अभियुक्त की सजा केवल पीड़िता की एकमात्र गवाही पर हुई है और चूंकि मेडिकल साक्ष्य की सामग्री में विरोधाभास मौजूद है तो उस आधार पर अभियुक्त को दोषी ठहराना असुरक्षित है।
प्रतिवादी राज्य की तरफ से पेश वकील ने कहा कि सबूतों का मूल्यांकन करते हुए न्यायालयों द्वारा उचित लाभ दिया जाना चाहिए। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने रंजीत हजारिका बनाम असम राज्य और पंजाब राज्य बनाम वी.गुरमीत सिंह और अन्य लोगों के खिलाफ मामलों में लगातार माना था कि, पीड़िता के साक्ष्य पर विश्वास किया जाना चाहिए क्योंकि कोई भी स्वाभिमानी महिला अदालत में सिर्फ अपने सम्मान के खिलाफ ऐसा बयान देने के लिए आगे नहीं आएगी कि उसके साथ बलात्कार का अपराध हुआ है।
इसके अलावा उन्होंने तर्क दिया कि केवल इसलिए क्योंकि मेडिकल रिपोर्ट अनिर्णायक थी, आरोपी की बेगुनाही का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता था।
बेंच ने कहा,
"आपराधिक अपील की अनुमति देते हुए और अपीलार्थी के खिलाफ लगाए गए सभी आरोपों से बरी करते हुए अदालत ने माना कि किसी भी अन्य सहायक सबूत की अनुपस्थिति में पीड़िता के बयान को पूरे सच के रूप में नहीं लिया जा सकता, इसलिए दोषसिद्धि को बनाए रखने की कोई गुंजाइश नहीं थी।"
न्यायालय ने आगे कहा कि पीड़िता के साक्ष्य में भौतिक या तथ्यात्मक विरोधाभास थे और अपीलकर्ता-अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए यह विश्वसनीय और भरोसेमंद नहीं थे।
अदालत ने कहा,
" हालांकि आमतौर पर पीड़िता की एकमात्र गवाही बलात्कार के एक आरोपी को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त होती है, परंतु अदालत झूठे आरोप के खिलाफ आरोपी को सुरक्षा देने के दृष्टिकोण को नहीं खो सकती।
इस बात को नहीं नकारा जा सकता है कि बलात्कार, पीड़िता के लिए सबसे बड़ी पीड़ा और अपमान का कारण बनता है, लेकिन साथ ही बलात्कार का झूठा आरोप भी अभियुक्त के लिए समान रूप से संकट, अपमान और क्षति का कारण बन सकता है। अभियुक्त को भी उसके खिलाफ लगाए गए झूठे आरोप की संभावना से सुरक्षा दी जानी चाहिए, विशेष रूप से जहां बड़ी संख्या में आरोपी शामिल हों।"
अपीलार्थी के लिए अधिवक्ता संतोष कुमार ने तर्क दिया। अधिवक्ता केशव मोहन ने प्रतिवादी राज्य की ओर से बहस का नेतृत्व किया।
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