सिर्फ प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता का मतलब ये नहीं कि आरोपी आतंकी गतिविधियों में भी शामिल रहा है : सुप्रीम कोर्ट ने कथित माओवादी समर्थक की जमानत बरकरार रखी [आर्डर पढ़े]
सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार की उस याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा कथित तौर पर माओवादी से सहानुभूति रखने वाले कोनाथ मुरलीधरन को जमानत देने को चुनौती दी गई थी। मुरलीधरन वर्ष 2015 से पुणे की यरवदा जेल में हिरासत है।
दरअसल माओवादी साहित्य, सीपीआई (माओवादी) और सीपीआई (माओवादी / लेनिनवादी) (नक्सलबाड़ी) में विलय की घोषणा और थॉमस जोसेफ के नाम पर एक जाली पैन कार्ड और कुछ सिम कार्ड व मोबाइल फोन के रूप में उनके पास से जब्त की गई सामग्रियों के आधार पर एटीएस ने उन्हें हिरासत में ले लिया था।
इसके बाद अक्टूबर 2015 में एटीएस ने उनके खिलाफ UAPA की धारा 10 (प्रतिबंधित संगठन का सदस्य), धारा 20 (आतंकवादी गिरोह का सदस्य होने), धारा 38 (आतंकवादी संगठन की सदस्यता से संबंधित अपराध), धारा 39 ( आतंकवादी संगठन से समर्थन ) के तहत आरोप पत्र दायर किया था। इसमे जालसाजी और प्रतिरूपण के संबंध में भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध भी आरोप पत्र में शामिल थे।
UAPA की धारा 20 किसी भी ऐसे व्यक्ति को आजीवन कारावास देती है जो आतंकवादी गिरोह या आतंकवादी संगठन का सदस्य पाया जाता है और जो आतंकवादी कृत्य में शामिल है। उच्च न्यायालय के अनुसार संगठन की सदस्यता का अनुमान, यह मानने के लिए पर्याप्त नहीं है कि आरोपी ने उक्त आतंकवादी कृत्य किया था।
"अधिनियम की धारा 20 के तहत यह संतोष का केवल एक हिस्सा है, इसका मतलब है कि आवेदक पहली नजर में आतंकी संगठन का सदस्य पाया जा सकता है। तथ्य यह है कि ठोस सामग्री के अभाव में अदालत खुद ये नहीं मान सकती कि आवेदक एक आतंकवादी कार्य में लिप्त रहा है," अपने आदेश में जस्टिस नितिन डब्ल्यू सांब्रे ने कहा।
इस संबंध में अदालत ने कहा कि मुरलीधरन मई 2015 के बाद से 3.5 वर्ष से अधिक समय से सलाखों के पीछे है।
"इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि उस पर पहले से कोई आपराधिक मामला नहीं है और आवेदक 3 से अधिक वर्षों से सलाखों के पीछे है। मेरी राय में, जमानत देने के लिए एक मामला बनता है, " अदालत ने कहा।