न्याय को सुलभ बनाने के लिए सरकारें कर रही हैं धन खर्च, फिर हैं कुछ बुनियादी बाधाएं
तारिका जैन और श्रेया त्रिपाठी
यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि भारत में मुक़दमों के भार के नीचे दबे ज़िला न्यायालय पर उच्च न्यायालयों की तुलना में कम ध्यान दिया जाता है। कई बार न्यायिक रिक्तियों को भरने को मुक़दमों के अंबार से निजात पाने का एकमात्र तरीक़ा मान लिया जाता है। हालाँकि, अदालतों में अदालत कक्ष नहीं होने की वजह से वहाँ सारे रिक्त पदों को भरा नहीं जा सकता है। इस वास्तविकता का तब पता चला जब सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों में उपलब्ध भौतिक सुविधाओं की ख़राब स्थिति और न्यायिक कर्मचारियों की उपलब्धता का स्वतः संज्ञान लिया। ज़िला न्यायालय में 22,750 जजों के पद हैं जबकि सिर्फ़ 17,817 अदालती कक्ष ही उपलब्ध हैं और इस तरह से 5000 से अधिक अदालती कक्षों की कमी है। न्यायपालिका के पास जो कोर्ट हॉल्ज़ हैं वे इससे भी कम, सिर्फ़ 15042 ही हैं और शेष किराए पर लिए गए हैं।
न्यायपालिका को मज़बूत बनाने के लिए सरकारों ने दी है भारी रकम
अदालती कक्षों और न्यायिक अधिकारियों के लिए आवासीय यूनिटों के निर्माण के लिए भारी पूँजी की ज़रूरत है पर राज्य सरकारें इसे मुहैया कराने में ऐतिहासिक रूप से विफल रही हैं। इसलिए, 1993 में केंद्र सरकार ने न्यायपालिका के लिए बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए केंद्र संचालित योजना (सीएसएस) की शुरुआत की। इसके तहत मई 2018 में केंद्र सरकार ने इस योजना के लिए ₹6100.24 करोड़ की राशि जारी की। इसके बाद 2018-19 में ₹650 करोड़ जारी किया और 2019-20 के लिए ₹710 करोड़ की राशि जारी की जाएगी, ऐसी उम्मीद है।
इस तरह स्थापना के बाद से इस मद में अब तक ₹7460.24 करोड़ की राशि दी गई है। 2011 से जब इस मद में आवंटन में तेज़ी आई, इस योजना एक तहत सिर्फ़ ज़िला और अधीनस्थ अदालतों को ही शामिल किया गया है और हाइकोर्टों को इसकी परिधि से बाहर रखा गया है। केंद्र सरकार के इस ख़र्च के अतिरिक्त, राज्य सरकारों ने भी इस योजना में अपनी हिस्सेदारी दी है।
यह देखते हुए कि यह योजना मार्च 2020 में समाप्त हो रही है और इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने काफ़ी अच्छी-ख़ासी राशि जारी की है, विधि सेंटर फ़ॉर लीगल पॉलिसी ने इस योजना के प्रदर्शन का आकलन करने का निर्णय किया है। हमारी इस रिपोर्ट की प्रति को आप यहाँ देख सकते हैं। यह विश्लेषण इस योजना के बारे में जारी किए गए सरकारी आँकड़ों पर आधारिरत है। इस योजना को लागू करने के मुतल्लिक राज्य के अधिकारियों और न्याय विभाग के बीच हुए पत्र-व्यवहार का ब्योरा आरटीआई दायर कर प्राप्त किया गया ताकि जो निष्कर्ष निकला है उसका सत्यापन हो सके।
योजना की डिज़ाइन और राज्यों के बीच आवंटन की समस्या
न्याय विभाग (डीओजे) की निगरानी के तहत इस योजना को लागू किया जा रहा है। केंद्र द्वारा चलाई जा रही अन्य योजनाओं की तरह, केंद्र और राज्य दोनों से इस योजना में योगदान की ज़रूरत है। इस समय, इस योजना में केंद्र और राज्य की भागीदारी का अनुपात 60:40 है। डीओजे द्वारा जारी निर्देश के अनुसार, राज्य को इसके लिए एक कार्य योजना बनाना है जिसमें प्रोजेक्ट का विवरण होगा और यह भी कि इस पर कितनी राशि ख़र्च होगी और इस कार्य को राज्य सरकार अगले साल तक शुरू करेगी। फिर इसके लिए उपलब्ध आवंटन के अनुरूप केंद्र इसके लिए 60% राशि जारी कर देता है और राज्य को इसमें शेष 40% राशि का योगदान करना होता है। उत्तर पूर्व और हिमलायीय राज्यों के लिए संसाधनों की साझीदारी का यह अनुपात 90:10 है।
केंद्र के स्तर पर मामला
इस योजना के डिज़ाइन में भी परदर्शिता और उत्तरदायित्व की प्रक्रिया का अभाव है। इसके परिणामस्वरूप, इस योजना के तहत भारी मात्रा में ख़र्च होने वाले जनता के पैसे का परिणाम क्या निकला इस बारे में स्पष्टता नहीं है। यद्यपि डीओजे के पास मौजूद बुनियादी सुविधाओं का कुछ रेकर्ड है, पर वह निश्चित तौर पर यह नहीं बता सकता कि इस योजना के तहत कितने भावनों का निर्माण हुआ है। हमने आरटीआई के तहत विशेष रूप से यह सूचना माँगी पर हमें यह नहीं दिया गया। इस आँकड़े के अभाव में इस योजना की सफलता का आकलन मुश्किल है।
इस योजना की निगरानी के लिए डीओजे ने जो एक सीमित तरीक़ा अपनाया है वह है एक नया न्याय विकास पोर्टल जो उसने इसरो के सहयोग से शुरू किया है। इसका उद्देश्य न्यायिक बुनियादी सुविधाओं को जीओटैग करना और प्रयोग में आए फ़ंड का रेकर्ड रखना है। इसके लिए ज़रूरी है कि राज्यों द्वारा नियुक्त सर्वेयर, मॉडरेटर और नोडल अधिकारी संबंधित आँकड़ों की प्रविष्टि अपने हाथ से करें। सरकार के कई सारे नई सूचना पोर्टल की तरह, न्याय विकास पोर्टल भी पासवर्ड से सुरक्षित है और इस वजह से महज़ कुछ नियुक्त लोग ही इसकी सूचना तक पहुँच सकते हैं।
हमें इस बात की आशंका भी है कि इस पोर्टल के लिए लोगों की नियुक्ति की गई है। एक आरटीआई आवेदन के जवाब में हमें बताया गया कि डीओजे के पास इस बात का रेकर्ड नहीं है कि राज्य ने इस पोर्टल पर ज़रूरी सूचनाओं को अपलोड करने के लिए कितने लोगों की नियुक्ति की है। यह देखते हुए कि योजनाओं की शर्तों का निर्धारण केंद्र करता है और उसी के पास इस योजना का स्वामित्व है, इस बात की संभावना कम है कि राज्य इस पोर्टल के बारे में कोई ज़रूरी क़दम उठाएँगे।
इस योजना को लागू करने में राज्यों को पेश आनेवाली दिक्कतें
केंद्र सरकार इस योजना के लिए फ़ंड जारी करने के बारे में दिशानिर्देश तय करता है, पर इस योजना को ज़मीनी स्तर पर लागू करने का ज़िम्मा राज्य की हाईकोर्ट, विधि विभाग और लोक निर्माण विभाग जैसी एजेंसियों के कंधे पर आ जाता है। योजना को पूरी करने में समय और लागत निर्धारित से आगे नहीं चला जाए इसके लिए प्रभावी सहयोग और संवाद ज़रूरी होता है। हालाँकि, इस तरह की अधिकांश अन्य योजनाओं की तरह ही, इसमें आपसी तालमेल ख़राब है और जब हमने राज्यों और केंद्र के बीच इस योजना को लेकर हुए पत्र व्यवहार की जाँच की, तो हमें विलंब के बहुत सारे मामले दिखे जिसका योजना की लागत के बढ़ जाने से सीधा संबंध है।
फिर, ऐसा लगता है कि कुछ राज्य इस बात को समझ ही नहीं पाए हैं कि इस योजना में फ़ंडिंग व्यवस्था किस तरह से काम करती है। जैसा कि हम पहले बता चुके हैं, केंद्र इस योजना के लिए उपलब्ध आवंटन के आधार पर धन देता है। पर राज्यों को लगता है कि अपनी कार्य योजना में उन्होंने इस परियोजना पर जो संभावित ख़र्च दिखाया है, केंद्र से वे उस लागत का 60% हिस्सा पाने के हक़दार हैं। वे इन दोनों अंकों के बीच अंतर को इस तरह से देखते हैं कि यह राशि वो है जो केंद्र को राज्यों को देना है जबकि हक़ीक़त यह है कि यह राशि उन्हें केंद्र से नहीं मिलना है। इससे राज्य के खातों की हालत पतली हो गई है।
सर्वे और ऑडिट की ज़रूरत
अपनी रिपोर्ट में हमने सुझाव दिया है कि डीओजे इस योजना की राष्ट्रीय स्तर पर सर्वे कराए ताकि यह पता लग सके कि न्यायपालिका एक लिए अदालत कक्षों और आवासीय इकाइयों की कितनी कमी है और वर्तमान बुनियादी सुविधाओं की स्थिति क्या है। हम यह सुझाव भी देते हैं कि इस योजना के लिए आगे किसी भी तरह की फ़ंडिंग से पहले डीओजे सीएजी या किसी अन्य स्वतंत्र संस्थान से इस योजना का राष्ट्रीय समीक्षा कराए। देश में न्यायिक बुनियादी सुविधाएं किस स्थिति में हैं उसकी वास्तविक जानकारी के लिए यह न्यूनतम ज़रूरत है।
न्यायिक बुनियादी सुविधाओं के लिए सीएसएस एक सही नीयत से शुरू की गई योजना है जिसे 26 साल पहले शुरू किया गया था। पर पर्याप्त योजना के अभाव में इसकी डिज़ाइन में ख़ामी है, प्रक्रियात्मक अक्षमता से यह ग्रस्त है और उत्तरदायित्व का अभाव है। अगर इस योजना को 2020 से आगे भी जारी रखना है तो यह ज़रूरी है कि ऊपर जिन चिंताओं का ज़िक्र किया गया है उन पर तथ्यों की पूरी तरह जाँच के बाद ग़ौर किया जाना चाहिए।
(तारिका जैन और श्रेया त्रिपाठी विधि सेंटर फ़ॉर लीगल पॉलिसी में रिसर्च फ़ेलो हैं। ये लेखकों के निजी विचार हैं)