घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 के अधीन जानिए अपील के प्रावधान

Update: 2022-04-28 14:56 GMT

अपील का सामान्य अर्थ– निवेदन करना है, लेकिन इसका जुरीसप्रूडेंसिअल अर्थ किसी अधीनस्थ प्राधिकारी द्वारा पूर्व में किए विधिक अवधारण को उच्च प्राधिकारी के समक्ष चुनौती देना है। –[Encyclopaedia Britannica]

भारतीय विधिक मूल परिपेक्ष्य से यह एक संविधिक और सारभूत अधिकार [statuary\substantive right] है। इसका उद्देश्य अधीनस्थ न्यायालय द्वारा घोषित निर्णय के अधीन किसी विधि/तथ्य की त्रुटि, अनियमितता या ऐसी ही कोई अन्य गलती जो अन्याय कारित करती हो, को उच्चतर न्यायालय (higher court) के समक्ष पुनर्विचार हेतु प्रस्तुत करना है।

यह प्रक्रिया याचिका पेश कर के पूरी की जाती है (धारा 382 दण्ड प्रक्रिया संहिता), उस उच्चतर न्यायालय के समक्ष जिससे व्यथित व्यक्ति अनुतोष चाहता है। यह एक वैविकीय शक्ति है अतः इसमें हस्तक्षेप तभी किया जाएगा, जब आदेश मनमाने पूर्ण तरीके से या विधि के स्थापित सिद्धांतों की उपेक्षा करते हुए जारी किया हो।

• घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 के अधीन अपील के प्रावधान

इस विशेष विधि की धारा 29, पक्षकारों को अपील का एक अधिकार प्रदान करती है। जिसके अनुसार, उस तारीख से, जिसको मजिस्ट्रेट द्वारा किए गए आदेश की, यथास्थिति, व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी को, इनमें से जो भी पश्चात्वर्ती हो, तामील की जाती है, तीस दिनों के भीतर सेशन न्यायालय में कोई अपील की जाएगी।

स्पष्ट है कि अधिनियम की धारा 12 के अधीन मामले में कार्यवाही करने के बाद मजिस्ट्रेट न्यायालय द्वारा पारित किए अंतिम आदेश की अपील और इसी प्रकार अधिनियम की धारा 23 के अंतर्गत धारा 18 से 22 वर्णित उपचारों के संबंध में मजिस्ट्रेट द्वार पारित किसी अंतरिम आदेश या एकपक्षीय आदेश (exparte order) की अपील सदेव ही सेशन कोर्ट के समक्ष होगी। जिसकी परिसीमा अवधि 30दिन है। –[सुलोचना एंड एन. बनाम कुट्टप्पन और अन्य,2007criLJ]

• अपील फाइल करने का अधिकार

मामले के पक्षकारों द्वारा फाइल की जा सकती है और उस व्यक्ति द्वारा भी जो की मामले में पक्षकार नहीं है, किंतु समान रूप से प्रभावित है। परंतु ऐसे व्यक्ति द्वारा अपील कोर्ट की पूर्व इज्जत से ही फाइल की जाएगी अन्यथा नहीं। -आसिफा खातून बनाम रूबीना, 26010

• आदेश जिनके विरुद्ध अपीलें सुनवाई योग्य हैं-

1. मजिस्ट्रेट द्वारा जारी किए गए एकपक्षीय आदेश के विरुद्ध।

2. धारा 12 की कार्यवाही में रेस्पोडेंट को नोटिस जारी करने के आदेश के विरुद्ध अपील।

3. धारा 18 के अधीन जारी अंतरिम प्रोटेक्शन ऑर्डर के विरुद्ध।

4. ऐसे अन्य आदेश जो पक्षकारों को अनुतोष प्राप्ति में बाधा है या उनके अधिकारों को कम करते हों।

5. आदेश, जो अधिनियम के प्रावधानों के उलंघन में पारित किए हों।

-किशोर चुग बनाम राजस्थान राज्य,2013CCC 149(Raj).

• आदेश जिनके विरुद्ध अपील सुनवाई योग्य नहीं है-

सामान्य रूप से ऐसे आदेशों की कोई सूची तो नहीं बनाई जा सकती परंतु विविध प्रकरणों में निर्णीत बिंदुओं के आधार पर कहना उचित होगा कि अपील पूर्णतया प्रक्रियात्मक आदेश के विरुद्ध सुनवाई योग्य है, जो पक्षकारों के अधिकारों और दायित्वों का विनिश्चय नहीं करता हो।

• क्या सेशन कोर्ट द्वारा अपील स्तर पर कोई अंतरिम आदेश पारित किया जा सकता है?

समान्य रूप से यदि देखा जाए तो ऐसी शक्ति धारा 23 में केवल मजिस्ट्रेट न्यायालय को प्रदान की गई है। हम देख सकते हैं ऐसा कोई अभिव्यक्त प्रावधान सेशन न्यायालय के लिए एक्ट में मौजूद नहीं है। परंतु ध्यान रखना प्रासंगिक है कि कोर्ट दो प्रकार की होते हैं। एक वह न्यायालय है जो संविधान द्वारा स्थापित होते हैं और दूसरे वह न्यायालय जो संविधि द्वारा निर्मित होते हैं। न्यायलय जो संविधान द्वारा स्थापित है, उनमें अंतर्निहित शक्तियां होती है, भले ही उन्हें किसी क़ानून द्वारा प्रदान नहीं किया गया हो।

हालांकि, न्यायालय जो संविधि द्वारा स्थापित हैं, उनमें अंतर्निहित शक्तियां नहीं होती है, परन्तु इन्हें केवल सीमित निहित/आकस्मिक शक्तियां प्राप्त होती है, जब तक कि उन्हें विशेष रूप से विधि द्वारा प्रदान नहीं किया गया हो और सेशन कोर्ट धारा 9 दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 के (CRPC) अधीन स्थापित एक न्यायालय है।

वैधानिक व्याख्या के सिद्धांतों के विश्लेषण से पता चलता है कि सेशन कोर्ट, किसी भी अभिव्यक्त प्रावधान के बिना जो उसे विधि द्वारा नहीं प्रदान किया गया है, उसके अभाव में ऐसा कोई आदेश पारित नहीं कर सकता, परन्तु इसे कुछ सीमित प्रक्रियात्मक शक्तियां (limited procedural powers) अवश्य ही उपलब्ध है। शालू ओझा बनाम प्रशांत ओझा,2014DMC 474Sc

• क्या अपील के स्थान पर पुनरीक्षण (revision) सुनवाई योग्य है?

उदय कौल बनाम कामायनी कौल,2018 मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने व्याख्या करते हुए तय किया की यदि धारा 397 सहपठित धारा 401(4) सीआरपीसी को स्पष्ट रूप से पढ़ा जाए जो इस प्रकार है कि "जहां संहिता के अधीन अपील हो सकती है किन्तु कोई अपील की नहीं जाती है वहां उस पक्षकार की प्रेरणा पर, जो अपील कर सकता था, पुनरीक्षण की कोई कार्यवाही ग्रहण न की जाएगी और जैसा की इस अधिनियम में "मजिस्ट्रेट" द्वारा जारी आदेश को चुनौती देने के विषय में एक मात्र बस अपील का ही उपचार उपलब्ध है, इसलिए सेशन न्यायालय के समक्ष रिवीजन सुनवाई योग्य नहीं।

इसी प्रकार दिल्ली हाईकोर्ट ने अमित सुंदर बनाम शीतल खन्ना, 2008 के मामले में अपना मत देते हुए कहा कि – एक्ट की धारा 25 स्वयं एक प्रभावी अनुतोष प्रदान करती है, जिसमें प्रोटेक्शन ऑर्डर या अन्य कोई भी आदेश में परिवर्तन, मोडिफिकेशन या रिवोकेशन करने की मजिस्ट्रेट को एक शक्ति प्रदान की गई है। जब एक्ट में ऐसा उपचार अभिव्यक्त रूप से उपलब्ध है, तब वरिष्ठ न्यायालय के राय की क्या आवश्यकता? परंतु यदि ऐसा मात्र मनमाने ढंग से किया गया है तब वरिष्ठ न्यायालय से अनुरोध किया जा सकता है।

केरल हाईकोर्ट ने बैजू चंद्रन नैय्यर बनाम लता बालन नैय्यर, 2011 के मामले में विस्तृत विचार व्यक्त करते हुए कहा कि धारा–29 के अंतर्गत "सेशन कोर्ट" द्वारा जारी किए निर्णय के संबंध में संबंधित हाईकोर्ट में धारा 397 सहपठित 401(1) के अन्तर्गत रिवीजन अवश्य फाइल किया जा सकता है।

स्पष्ट है विभिन्न उच्च न्यायालयों के विचारो में कोई एकरुपात्मता नहीं हैं। यह अलग अलग तथ्यों और परिस्थियों पर आधारित हर मामले में तय किए गए है। अतः माननीय सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी इस संबंध में प्रभावी मार्गदर्शन का कार्य कर सकती है।

• अब प्रश्न यह उठता है कि क्या घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम,2005 की धारा–12 में पारित आदेश के विरूद्ध धारा 482CPC में अनुतोष की मांग की जा सकती है?

चेतन सिंघानिया बनाम खुशबू सिंघानिया, 2021 Scc के मामले में कलकत्ता हाईकोर्ट द्वारा निम्न बिंदुओं को तय किया गया-

1. प्रतिवादी उचित याचिका दायर करके कार्यवाही में उपस्थित होने के तुरंत बाद पीड़ित व्यक्ति द्वारा दायर घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 में मजिस्ट्रेट के समक्ष एक आवेदन की स्थिरता को चुनौती दे सकते हैं।

2. पीड़ित व्यक्ति सेशन न्यायाधीश के समक्ष मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश के खिलाफ धारा 29 के तहत अपील फाइल कर सकता है।

3. वैकल्पिक रूप से, एक प्रतिवादी हाईकोर्ट के समक्ष नोटिस प्राप्त होने पर तुरंत कार्यवाही को रद्द करने के लिए धारा 12 के तहत कार्यवाही की स्थिरता को चुनौती देते हुए धारा 482 CrPC में एक याचिका फाइल कर सकता है।

परन्तु पी. पथमनाथन बनाम वी. मोनिका , (2021) 2 सीटीसी 57 मामले में मद्रास हाई कोर्ट का मत भिन्न था, जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ यह माना गया कि धारा 482 CrPC के तहत याचिका सुनवाई योग्य नहीं है, क्योंकि घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम,2005 की धारा 29 स्वयं एक अभिव्यक्त प्रभावी उपचार प्रदान करती है।

इसके विपरित कर्नाटक हाई कोर्ट ने माना है कि धारा 29 के अन्तर्गत अपील का प्रावधान कार्यवाही रद्द करने के लिए धारा 482 सीआरपीसी के अधीन एक पीड़ित व्यक्ति को कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के अधिकार से वंचित नहीं करता।

इसी प्रकार से धारा12 में पारित किसी आदेश, अंतरिम आदेश या कार्यवाही शुरू करने के आदेश के विरूद्ध पक्षकार हाई कोर्ट की रिट अधिकारिता (writ juridication) के अन्तर्गत नहीं जा सकता तथा न ही अनुच्छेद 226 या 227 में ऐसा आवेदन पोषणीय होगा, परंतु यदि ऐसी याचिका दायर कर दी गई है तो उसे पक्षकार वापस (withdrawal) ले कर धारा 29 में अपील फाइल करने किए स्वतंत्र होगा। रमेशचंद बनाम NCT Delhi, 2009DMC.224

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