क्रिमिनल ट्रायल में बाल गवाह की गवाही पर क्या है विस्तृत दृष्टिकोण

Update: 2021-12-15 14:33 GMT

जी.करुप्पसामी पांडियान

परिचय:- न तो मूल कानून और न ही प्रक्रियात्मक कानून बाल गवाह 'टर्म' (पारिभाषिक शब्द) को परिभाषित करता है। हालांकि, साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 में यह विचार किया गया है कि "सभी व्यक्ति तब तक गवाही देने के लिए सक्षम होंगे जब तक कि अदालत यह नहीं मानती कि उन्हें उसके द्वारा पूछे गए प्रश्न को समझने से या उन प्रश्नों के तर्कसंगत उत्तर देने से इसलिए रोका गया है क्योंकि संबंधित व्यक्त की उम्र कम थी, अत्यधिक वृद्धावस्था थी, शरीर या मन से वह बीमार था, या इसी तरह का कोई और कारण।"

गवाही देने के लिए बच्चे की योग्यता:

साक्ष्य अधिनियम किसी गवाह को गवाही के लिए सक्षम मानने के वास्ते एक निर्धारक कारक के रूप में किसी विशेष आयु को निर्धारित नहीं करता है।

प्रमाण स्वीकरण (वॉयर डायर) टेस्ट:-

प्रमाण स्वीकरण परीक्षण की अवधारणा एंग्लो-नॉर्मन वाक्यांश से ली गई है, जो "सत्य बोलने की शपथ" को संदर्भित करता है।

परीक्षण को पूर्वगामी परीक्षण कहा जा सकता है जिसे ट्रायल कोर्ट द्वारा बच्चे की परिपक्वता और क्षमता का निर्धारण करने के लिए आयोजित किया जाना चाहिए। उस परीक्षण में, न्यायाधीश को मुकदमे की कार्यवाही के एक भाग के रूप में बाल गवाह की गवाही देने से पहले, मामले से इतर कुछ प्रश्न पूछकर बच्चे की योग्यता का पता लगाना चाहिए।

वॉयर डायर परीक्षण का अनुपालन न करना:-

माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 'एच.एस. वहुरबाग बनाम महाराष्ट्र सरकार' 2009 (6) स्केल 627 मामले में व्यवस्था दी है कि केवल वॉयर डायर टेस्ट का अनुपालन न करने से वास्तव में बाल गवाह के साक्ष्य को पूरी तरह अस्वीकार नहीं किया जाएगा, जब यह अदालत के भरोसे और विश्वास के लायक हो।

बाल गवाह की गवाही पर न्यायिक घोषणाएं:-

1) 'रामहवर कल्याण सिंह बनाम राजस्थान सरकार' एआईआर 1952 एससी 54' मामले में हमारे देश के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय शपथ अधिनियम (1969 के अधिनियम) की धारा 4 पर विचार करके बाल गवाह की गवाही पर कानून के प्रस्ताव को प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार, शपथ या प्रतिज्ञान 12 वर्ष से कम आयु के गवाह के लिए लागू नहीं होगा और अधिनियम की धारा 7 के अनुसार यहां तक कि एक वयस्क को शपथ या प्रतिज्ञान करने में चूक भी बाल गवाह के साक्ष्य को अस्वीकार्य नहीं बनाएगा। इसके अलावा, शपथ अधिनियम गवाह की योग्यता से संबंधित नहीं है और इसका मुख्य उद्देश्य उन व्यक्तियों को अभियोजन के लिए उत्तरदायी बनाना है जो झूठे साक्ष्य देते हैं।

* इस निर्णय को प्रस्तुत करते समय सुप्रीम कोर्ट ने प्रिवी काउंसिल के 'मोहम्मद सुगल एसा बनाम द किंग एआईआर, 1946 पीसी 5' नामित मामले में फैसले से प्रेरणा ली और यह व्यवस्था दी कि विवेक के तौर आमतौर पर बच्चे की अपुष्ट गवाही पर आधारित दोषसिद्धि नहीं होनी चाहिए। यह कानून के बजाय व्यावहारिक ज्ञान का नियम मात्र है।

* बच्चे के बालपन मामले में और अन्य परिस्थितियों के साथ, जैसे कि उसका व्यवहार, शिक्षण की संभावना आदि पुष्टि को अनावश्यक बना सकते हैं, लेकिन यह हर मामले में एक तथ्य का सवाल है। कानून का एकमात्र नियम यह है कि विवेक का यह सिद्धांत न्यायाधीश के दिमाग में मौजूद होना चाहिए, क्योंकि मामले को उसके द्वारा समझा और सराहा जा सकता है। परम्परा का कोई निर्धारित नियम नहीं है कि प्रत्येक मामले में दोषसिद्धि के लिए बाल गवाह की गवाही की पुष्टि की शर्त नहीं है।

2) 'असम सरकार बनाम मफीजुद्दीन अहमद 1983 (2) एससीसी 14' मामले का भी हवाला दिया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने बाल गवाह की गवाही पर पूरी तरह से अविश्वास किया, क्योंकि ट्रायल कोर्ट के समक्ष दर्ज कराये गए बाल गवाह के साक्ष्य में ट्यूटरिंग और मोल्डिंग के इस प्रकार के अंश थे कि "मैंने अदालत में वही कहा जो मेरे नाना ने मुझसे कहने को बोला था।"

3) 'रतनसिंह दलसुखभाई नायक बनाम गुजरात सरकार 2004 (1) एससीसी 64 2004' मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि एहतियात एक शर्त है, क्योंकि बाल गवाह को सिखाया पढ़ाया जा सकता है और अक्सर वे दूसरे पर भरोसा करके चलते हैं। हालांकि, यह एक स्थापित सिद्धांत है कि बाल गवाह खतरनाक गवाह होते हैं क्योंकि आसानी से प्रभावित किया जा सकता है, या उन्हें आसानी से बदलने को मजबूत किया जा सकता है, लेकिन यह भी एक स्वीकृत मानदंड है कि यदि बाल गवाह की गवाही विश्वसनीय पाई जाती है और उसके भीतर आत्मविश्वास झलकता है तो अदालत ने कहा कि सबूतों को खारिज नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर विशेष जोर दिया कि ट्रायल जज के पास पर्याप्त विवेक है कि वह मुख्य रूप से सीआरपीसी की धारा 280 में निहित शक्ति का प्रयोग करके बाल गवाह के व्यवहार को नोटिस कर सके। यह धारा गवाह के आचरण के संबंध में टिप्पणी करती है।

4) 'आर बनाम केंडाल 1962 एससीआर 469-473 मामले में कनाडा के सुप्रीम कोर्ट ने चार खंडों में बाल गवाह की गवाही की सराहना के रूप में एक कानून का प्रस्ताव दिया,

ए) अवलोकन की क्षमता

बी) याद करने की क्षमता

ग) प्रश्न को समझने और विवेकपूर्ण उत्तर की क्षमता।

घ) नैतिक जिम्मेदारी

इस विदेशी निर्णय को हमारे माननीय हाईकोर्ट द्वारा सेंथिल @ सेंथिल कुमार बनाम सरकार 2018 (2) टीएनएलआर 313 (मद्रास) में रिपोर्ट किए गए मामले में मान्यता दी गई थी, जिसमें यह माना गया था कि 1990 के बाद, एक मान्यता थी कि बच्चों की गवाही का मूल्यांकन उसी प्रकार से नहीं किया जाना चाहिए जैसे वयस्कों की गवाही का मूल्यांकन किया जाता है।

* बच्चों के अजीबोगरीब दृष्टिकोण घटनाओं के उनके स्मरण को प्रभावित कर सकते हैं और विसंगतियों की उपस्थिति, विशेष रूप से परिधीय मामलों से संबंधित, संदर्भ में उत्तर दिया जाना चाहिए।

5) 'पंछी और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार 1998 एससीसी 177 = 1998 एससीसी (क्रिमिनल) 1561' मामले में सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की बेंच ने माना कि एक बाल गवाह के सबूत पर भरोसा करने से पहले उसके लिए पर्याप्त पुष्टि जरूरी है और यह कानून से ज्यादा व्यावहारिक ज्ञान का नियम है।

* यह कानून नहीं है कि अगर गवाह बच्चा है, तो उसकी गवाही को खारिज कर दिया जाएगा, भले ही वह विश्वसनीय क्यों न हो।

* इसी विचार को सुप्रीम कोर्ट ने घोषणाओं की एक श्रृंखला में और 'राधेश्याम बनाम राजस्थान सरकार, 2014 (2) एससीसी (क्रिमिनल) 600' के मामले में भी दोहराया है।

6) 'दिगंबर वैष्णव एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ सरकार 201 9 (2) एससीसी (सीआरएल) 300 मामले में सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की बेंच ने हाल ही में कहा कि बाल गवाह के साक्ष्य का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन किया जाना चाहिए क्योंकि बच्चे को कुछ कह-सुनकर बहलाया फुसलाया जा सकता है और आसान शिकार बनाया जा सकता है। इसलिए, बाल गवाह के साक्ष्य पर भरोसा करने से पहले पर्याप्त पुष्टि की जानी चाहिए। यह कानून से ज्यादा व्यावहारिक ज्ञान का नियम है।

इकलौता साक्षी सह बाल साक्षी

'सुरेश वर्सेज सरकार एआईआर 1981 एससी 1122' मामले में सुप्रीम कोर्ट ने लगभग 5 वर्ष की आयु के बच्चे की गवाही पर विश्वास को प्रेरित किया, जितना कि उसने जिरह का सामना किया और बुद्धिमान और सुसंगत तरीके से सिर हिलाकर कई महत्वपूर्ण सवालों के जवाब दिए।

* एक बात में झूठ तो हर बात में झूठ

* माना जाता है कि इस कहावत का भारत में कोई अनुप्रयोग नहीं है। कहावत का पर्यायवाची है- एक बात में झूठ, तो हर बात में झूठ। कानून के प्रस्ताव को ध्यान में रखते हुए, बाल गवाह की गवाही का मूल्यांकन किया जाना है।

* 'मंगू बनाम मध्य प्रदेश सरकार एआईआर 1995 एससी 959' मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि बाल गवाह के बयान का हिस्सा, भले ही सिखाया-पढ़ाया गया हो, पर भरोसा किया जा सकता है, अगर सिखाया-पढ़ाया गया बयान का हिस्सा स्वत: साक्ष्य वाले हिस्से से अलग किया जा सकता है, खासकर तब जब ऐसा हिस्सा आत्मविश्वास से भरा हो। ऐसी स्थिति में, बिना सिखाये-पढ़ाए हिस्से वाले बयान पर विश्वास किया जा सकता है या कम से कम मुकरे हुए गवाह की गवाही के रूप में विचार किया जा सकता है। न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह तह तक जाकर साक्ष्य के उस भाग को स्वीकार करे जो विश्वसनीय और भरोसेमंद हो।

निष्कर्ष :-

गुणात्मक और मात्रात्मक न्यायिक घोषणाओं में प्रवेश करने के बाद, बाल गवाह की गवाही पर बारीक दृष्टिकोण दोपहर के उजाले की तरह स्पष्ट हो जाता है कि यदि बाल गवाह की गवाही अदालत विश्वसनीय और भरोसेमंद प्रतीत होती है, तो यह दोषसिद्धि की पुष्टि का एकमात्र आधार हो सकता है। बाल गवाहों की गवाही पर विचार करते समय ट्रायल कोर्ट के न्यायाधीशों के दिमाग में विवेक का प्राचीन नियम और व्यावहारिक ज्ञान का नियम होना चाहिए।

लेखक एक अधिवक्ता हैं, जो मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ में वकालत करते हैं।

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