इस दौर के प्रतिस्पर्धा युक्त बाजार मे, वित्तीय सहायता (क़र्ज़ द्वारा) बाजार में उक्त प्राइवेट कारोबारियों को एवं उद्यमों को दी जाती रही है। इस उद्देश्य से संस्थाओं को बनाया गया है, जो कि बाजार में क़र्ज़ प्रदान करने का व्यवसाय करती हैं जो कि अंततः आर्थिकसंवृद्धि में ईंधन की तरह बज़ार में कार्य करती हैं। परन्तु कर्ज देने के व्यवसाय में एक अहितकारी परिणाम होता हैं, जिसमे कर्ज़दार ऋण की अदायगी में चूक जाता है (default) और इस परिणाम से बचने के लिए उधारदाता को उस क़र्ज़ को प्रतिभूती (secure) करनेके लिए व्यापक कदम उठाने पड़ते हैं।
क़र्ज़ क्या होता है ?
क़र्ज़ वह धन होता है जिसे लौटना एक व्यक्ति की कानूनी जिम्मेदारी बनती है। इस सन्दर्भ में, कर्ज का एक वास्तविक मूल्य होता है। उदाहरण के लिए, दो मित्र, 'क' और 'ख जिनकी घनिष्ट सम्बन्ध है। 'क' अपने व्यवसाय में कठिनाइयों से चल रहा है, वह 'ख' सेर० 10,000/- उधर पे लेता है और वचन देता है कि वह क़र्ज़ अदायगी 6 महीने में कर देगा क्योकि 'ख़' को यह विश्वास रहता है कि 'क' अपने व्यवसाय में अच्छी समझ है और 'क' समय पे क़र्ज़ अदायगी कर देगा। इस उदाहरण में 'क' ऋणी है एवं 'ख' कर्ज़दाता औरक़र्ज़ का मूल्य र० 10,000/- है।
क्या क़र्ज़ को अनुयोज्य दावा माना जाए ?
क़र्ज़ को संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 के अनुसार अनुयोज्य दावा माना गया है। अनुयोज्य दावा को संभवतः एक क़र्ज़ की प्रतिभूति माना गया है, जिसे दावे के ज़रिये कर्ज़दार से वसूला जा सकता है। क़र्ज़ के संव्यवहार में 2 या 2 से अधिक पक्षकार होते हैं जो किमूलभूत रूप से या तो ऋणदाता या ऋणी के रूप में संव्यवहार करते है। धारा 3 संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 के अनुसार:
"अनुयोज्य दावे" से स्थावर सम्पत्ति के बंधक द्वारा या जंगम सम्पत्ति के आडमान या गिरवी द्वारा प्रतिभूत ऋण से भिन्न किसी ऋण का या उस जंगम सम्पत्ति में, जो दावेदार के वास्तविक या आन्वयिक कब्जे में नहीं है फायदाप्रद हितका ऐसा दवा अभिप्रेत है, जिसे सिविल न्यायालय अनुतोष देने के लिये आधार प्रदान करने वाला मानता हो, चाहे ऐसा ऋण या फायदाप्रद हित वर्तमान, प्रोद्भवमान, सशर्त या समाश्रित हो;
उपर्युक्त धारा निम्लिखत 3 उपाय देती है जो क़र्ज़ की प्रतिभूति करवाने में मदद करता है :
1. स्थावर सम्पत्ति का बंधन
2. दृष्टिबंधक
3. जंगम सम्पत्ति की गिरवी
परन्तु उपर्युक्त दी हुई पद्धति के साथ और 2 पद्धति का संदाय क़र्ज़ प्रतिभूति हेतु किया जा सकता है जो की :
4. निरंक चेक के माध्यम से.
5. बंधपत्र और डिबेंचर (ऋणपत्र)
1. स्थावर सम्पत्ति का बंधन
कर्ज़दार को क़र्ज़ प्रतिभूति के संदाय में अपने स्थावर सम्पत्ति को कर्ज़दाता के समक्ष बंधक में रखना होता है। बंधक के नियम के अनुसार जब बंधक धारक समय के अनुरूप अपने क़र्ज़ के अदाएगी में व्यतिक्रम करता है तो, कर्ज़दाता के पास यह अधिकार होता है की वहबंधक-धारक की सम्पत्ति से अपने क़र्ज़ की मुक्ति (loan realisation) कर सकता है। बंधक से सम्बंधित विधि का व्याख्यान संपत्ति-अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 58 में इस प्रकार वार्णित किया गया है :
बंधक विनिद्रिष्ट स्थावर संपत्ति में के किसी हित का वह अंतरण है जो उधार के तौर पर दिये गये या दिये जाने वाले धन के संदाय को या वर्तमान या भाव ऋण के संदाय को या ऐसे वचनबंध का पालन, जिससे धन संबंधी दायित्व पैदा होसकता है, प्रतिभूत करने के प्रयोजन से किया जाता है।
बंधक का प्रयोजन बैंको द्वारा अपने कर्ज़ों की प्रतिभुति हेतु किया जाता है। बैंक अपने कर्ज़ों की वसूली, धारा 13(4) SARFESI Act के माध्यम से कर सकते है एवं अंतर्गत वसूली का वाद धारा 19 Recovery of Debts and Bankruptcy Act,1992 में कर सकते हैं।
2. दृष्टिबंधक (Hypothecation)
क़र्ज़ के प्रतिभूति हेतु दृष्टिबंधक एक और उपाय है। दृष्टिबंधक के अंतर्गत कर्ज़दार की जंगम संपत्ति पे 'भार' का संदाय किया जाता है। क़र्ज़ की वसूली के लिए दृष्टिबंधित संपत्ति को बेच दिया जाता है जो कि दृष्टिबंधक करार में वर्णित होता है। इस प्रकार दृष्टिबंधकऔर बंधक में सिर्फ इतना ही भेद है की दृष्टिबंधक में 'भार'जंगम संपत्ति पर होता है और बंधक में भार स्थावर संपत्ति पर होता है।
दृष्टिबंधक SARFESI ACT के धारा 2(n) परिभाषित किया गया है :
hypothecation means a charge in or upon any movable property, existing or future, created by a borrower in favour of a secured creditor without delivery of possession of the movable property to such creditor, as a security for financial assistance and includes floating charge and crystallisation of such charge into fixed charge on movable property;
दृष्टिबंधक का उपयोग बैंकों द्वारा उधार की प्रतिभूति के लिये किया जाता है।
3. जंगम संपत्ति की गिरवी
करार जो कि उपनिधन से उत्पन्न होते है, उसमे गिरवी का उपयोग क़र्ज़ के वसूली एवं उसके प्रतिभूति हेतु किया जाता है, जिसका वचन उपनिधाता देता है। भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 172 में 'गिरवी' को कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है :
किसी ऋण के संदाय के लिए या किसी वचन के पालन के लिए प्रतिभूति के तौर पर माल का उपनिधान 'गिरवी'कहलाता है. उस दशा में उपनिधाता 'पणयमकार' (pawnor) कहलाता है। उपनिहिती 'पणयमदार'((pawnee) कहलाता है ।
संक्षेप्त में 'गिरवी' का उपयोग क़र्ज़ की प्रतिभूति हेतु उपनिधान के करार में किया जाता है। क़र्ज़ के भुगतान ना करने की स्थिति में उपनिहिति का यह अधिकार होता है की वह इस स्थिति में उपनिधान की हुई संपत्ति को बेच सकता है। धारा 173 में पणयमदार केअधिकार इस प्रकार दिए हुए है :
पणयमदार गिरवी माल का प्रतिधारण न केवल ऋण के संदाय के लिए या वचन के पालन के लिए कर सकेगा वरन ऋण के ब्याज और गिरवी माल के कब्ज़े के बारे में या परीक्षण के लिए अपने आवश्यक व्ययों के लिए भी कर सकेगा ।
पणयमदार (pawnee) के पास वह अधिकार भी अधिनियम के तहत उपलब्ध है जहाँ पणयमकार व्यतिक्रम करता है :
यदि पणयमकार उस ऋण या वचन से भिन्न किसी ऋण या वचन के लिए, जिसके लिए माल गिरवी रखा गया है, उस माल का प्रतिधारण उस प्रभाव की संविदा के अभाव में न करेगा, तत्प्रतिकूल किसी बात के अभाव में ऐसी संविदा की उपधारणापणयमदार द्वारा दिये गए पश्चात्वर्ती उधारों में कर ली जाएगी ।
इस प्रकार की करार की प्रतिभूति गोल्ड लोन्स के एवज़ में ऋणी से क़र्ज़ की वसूली के उपयोग हेतु किया जाता है ।
4. निरंक चेक या उस चेक का अनादरित कर देने से
क़र्ज़ को प्रतिभूति करने का यह सबसे सामान्य तरीका है। चेक का अनादर होना एक आपराधिक कृत्य है और जिसके अंतरकगत कर्ज़दार को धारा 138 परक्राम्य लिखित अधिनियम, 1881 के अंतर्गत दण्डित किया जा सकता है जो की 1 माह का कारावास एवं अर्थदंडजो कि क़र्ज़ की चूक की रकम होगी एवं वाद-व्यय। क़र्ज़ का इस प्रकार प्रतिभू करने का यह सिद्धांत है की जिसमे कर्ज़दार अपने क़र्ज़ के सौदे में आपराधिक मुकदमा ला सकता है। इस प्रकार से क़र्ज़ की प्रतिभूति करना सबसे आम होता है जो की छोटे व्यापारी अपनेआपसी एवं दिन प्रतिदिन के व्यापारिक कार्यक्रम को सुरक्षित करने में उपयोग करते है। इस प्रकार का क़र्ज़ प्रतिभूति करना किसी नियम द्वारा नहीं किया जाता है, परन्तु इसकी विधिवत स्थापना परक्राम्य लिखित अधिनियम, 1881 द्वारा की गयी है कि जिसकेअंतर्गत चेक का अनादरण आता हैं।
·चेक के अनादरण की विधि
चेक से सम्बंधित अधिनियम परक्राम्य लिखित अधिनियम, 1881 में दिया हुआ है। चेक को इस विधि की धारा 6 में कुछ इस प्रकार परिभाषित किया गया है :
"चेक" एक ऐसा विनिमय पत्र है, जो विनिद्रिष्टि बैंकर पर लिखा गया है और जिसकी माँग पर से अन्यथा देय होना अभिव्यक्त नहीं है और इसमें विकृत चेक का इलेक्ट्रॉनिक प्रतिबिम्ब और इलेक्ट्रॉनिक रूप में चेक शामिल है .
चेक अनादरण से जुड़ा कानून परक्राम्य लिखित अधिनियम के अध्याय 19 जो कि धारा 138 से 148A तक है, में दिया हुआ है। चेक के अनादर का आपराधिक संज्ञान न्याययिक दण्डाधिकारी प्रथम श्रेणी द्वारा लिया जायेगा ।
इस प्रकार से क़र्ज़ की प्रतिभूति कौन करते है?
इस प्रतिभूति की व्यवस्था अमूमन छोटे व्यापारी और वह कर्ज़दार करते है जो किसी व्यवस्थित प्रणाली के अंतर्गत काम नहीं करते है । चेक का उपयोग व्यावसायिक गतिविधियों में योगदान देता है, जिसके कारण अनादरण का दण्डनीय प्रभाव होना व्यापारिक दृस्टिसे अहम् है ।
5. बंधपत्र और डिबेंचर
बंधपत्र (Bond) के द्वारा भी क़र्ज़ की प्रतिभूति की जा सकती है। बंधपत्र, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के तहत किया जाता है, बंधकदाता बंधन के करार से दिए हुए पैसो के भुगतान सुरक्षित रखता है और व्यतिक्रम की स्थिति बंधक-धारक को भुगतान हेतु क्षतिराशी बंधकदाता को देना पड़ेगा। इस प्रकार के भुग़तानो को सुरक्षित रखने की विधि कॉर्पोरेट वित्तीय संगठन उपयोग करते है।
डिबेंचर को धारा 2(30) के कंपनी अधिनियम, 2013 में परिभाषित किया गया है:
"डिबेंचर" के अंतर्गत, डिबेंचर शेयर, बांड या कंपनी के अन्य instrument भी शामिल हैं, जिसमे ऋण का साक्ष्य मौजूद हो भले ही वह संपत्ति पर एक चार्ज का गठन करता हो या नहीं;
बंधपत्र या डिबेंचर्स को निवेश के साधन के रूप में भी उपयोग किया जाता है, अमूमन एक निवेशक अपना पैसे से इस उद्देश्य से बंधपत्र या डिबेंचर खरीदता है, क्योकि निवेशक को यह वचन रहता है कि निवेश की हुई राशी एवं ब्याज़ के साथ निवेशक को वापिस कियाजायेगा। कई संगठन अमूमन कॉर्पोरेट या सरकारी बंधपत्र या डिबेंचर बाज़ार से मुद्रा संग्रह करने हेतू जारी करते हैं।
बंधपत्र और डिबेंचर, पूंजी बाज़ार के साधन माने जाते है। इन पूंजी बाज़ार के साधन का उपयोग कॉर्पोरेट संगठनो एवं सरकार द्वारा अपने दिन प्रतिदिन के ख़र्चे को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। बंधपत्र को निम्नलिखित प्रकार से बांटा जा सकता है
· कॉर्पोरेट बंधपत्र (बॉन्ड्स) : इन बांड्स से कॉर्पोरेट संगठनो द्वारा बाजार से मुद्रा संग्रह किया जाता है। कॉर्पोरेट बांड को अमूमन हाई-रिस्क बॉन्ड्स की श्रेणी में रखा जाता है. इस लिए जब कॉर्पोरेट अपने वित्तीय फायदे का बटवारा करता है, वह सबसे पहलेअपने बंधक-दाता को भुगतान करता है. कॉर्पोरेट अमूमन दो प्रकार के बंधपत्र जारी करते है इन्हें छोटी-अवधि के बॉन्ड्स या लम्बी-अवधि के बॉन्ड्स कहते है। भारतीय बाज़ार में व्यतिक्रम करने का सबसे बड़ा उधाहरण आई.एल&एफ.एस का माना जा सकता है ।
· भारत सरकार के द्वारा बंधपत्र: सरकारी बंधपत्र या जी-सेक बॉन्ड्स जिससे सरकार बाज़ार से कर्ज़ एवं मुद्रा संजोगति है। जी-सेक बॉन्ड्स का वितरण भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा हर साल अपने मासिक कैलेंडर के द्वारा प्रकाशित करती है। सरकार इस क़र्ज़का उपयोग अपनी परियोजनाओं और अन्य गतिविधियों को वित्तीय सहायता देने के लिए करती है। जी-सेक बॉन्ड्स की अवधि 5 साल से 40 साल तक तक होती है। इसका भुगतान हर साल अर्धवर्ष के अंतराल में बंधक-दाता को कूपोंन रेट (ब्याज़ दर) के अनुसारदिया जाता हैं ।
o राजकोषीय चालान: राजकोषीय चालान अथवा टी-बिल्स एक और क्रिया है जिससे सरकार बाजार से मुद्रा उठाती है, अपने अल्पकालिक धन दायित्वों को पूरा करने के लिए। टी-बिल्स छोटी अवधि के मुद्रा यन्त्र होते है जिसकी अवधि 91दिन, 182 दिन, 364 दिन की होती है और वे ज़ीरो कूपन बॉन्ड होते है जिसे सस्ते में खरीदा जाता है और मूल्य अंको में बेचा जाता हैं।
निष्कर्ष
वह व्यापार जिसमे क़र्ज़ दिया जाता हैं और उस क़र्ज़ को जिसे प्रतिभूति किया जाता है, बाजार में विश्वास पैदा करता है और ऋणी को यह भरोसा देना होता है कि उसके भुगतान में चूक नहीं होने दी जाएगी। अगर ऋणी क़र्ज़ के भुगतान में व्यतिक्रम करता है, तो विधिकर्जदाता को यह अधिकार होता है कि वो प्रतिभूति से अपने ऋण का भुगतान विधि द्वारा कर सके।
लेखक मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय मुख्य पीठ मे अधिवक्ता है |