हिरासत के दौरान निलंबित किए गए कर्मचारी को किसी अनुशासनात्मक जांच के अभाव में बरी होने पर वेतन देने से इनकार नहीं किया जा सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि हिरासत की अवधि के दौरान निलंबित किए गए किसी कर्मचारी को निलंबन की अवधि के दौरान किसी भी अनुशासनात्मक जांच और जमानत के अभाव में बरी होने पर वेतन से वंचित नहीं किया जा सकता।
न्यायालय ने आगे कहा कि ऐसे कर्मचारी को, जिसे हिरासत की अवधि के दौरान निलंबित कर दिया गया, उसे यह साबित करना होगा कि वह उस अवधि के दौरान लाभकारी रूप से नियोजित नहीं था।
जस्टिस अजीत कुमार ने कहा,
“यदि याचिकाकर्ता को आपराधिक मामले में जमानत मिली होती और उसे केवल निलंबित रखा गया होता तो 'काम नहीं तो वेतन नहीं' का सिद्धांत लागू हो सकता था, लेकिन यह मामला भी नहीं है। याचिकाकर्ता बरी होने तक हिरासत में रहा। याचिकाकर्ता द्वारा यह प्रमाण पत्र देने का कोई सवाल ही नहीं था कि जिस अवधि में वह निलंबित था, उस दौरान वह कहीं भी लाभकारी रूप से कार्यरत नहीं था। जमानत पर चल रहे विचाराधीन कैदी और जेल में बंद सजायाफ्ता व्यक्ति के बीच अंतर समझना चाहिए।''
तथ्यात्मक पृष्ठभूमि
रूटीन ग्रेड क्लर्क के रूप में काम करते समय याचिकाकर्ता को आपराधिक अपराध के सिलसिले में आरोपी बनाया गया। वह 9 अगस्त, 2009 से 1 अगस्त 2010 तक जेल में रहा। उसके बाद याचिकाकर्ता 2016 तक हिरासत में रहा। हिरासत की अवधि के दौरान, याचिकाकर्ता को निलंबित कर दिया गया। आपराधिक मामले में बरी होने के बाद उसे बहाल कर दिया गया।
याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक/विभागीय जांच नहीं की गई। उसे केवल हिरासत में रखने के कारण निलंबित कर दिया गया। यह तर्क दिया गया कि निलंबन आदेश रद्द होने पर याचिकाकर्ता निलंबन की पूरी अवधि के लिए वेतन पाने का हकदार हो गया, जिसे प्रतिवादी ने अस्वीकार कर दिया।
यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता की हिरासत उसके नियंत्रण से परे की परिस्थिति थी, जिसने उसे अपने कर्तव्यों से मुक्त होने से रोका। यह तर्क दिया गया कि जब हिरासत उसके नियंत्रण से बाहर थी तो 'काम नहीं तो वेतन नहीं' के आधार पर वेतन को अस्वीकार नहीं किया जा सकता और यह वैध अपेक्षा है कि याचिकाकर्ता जेल/नजरबंदी से रिहा होते ही काम फिर से शुरू कर देगा।
प्रतिवादी के वकील ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता द्वारा कर्तव्यों का निर्वहन न करने के लिए विभाग को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि वह हिरासत में था। चूंकि याचिकाकर्ता हिरासत में था, इसलिए यह आवश्यक है कि उसे निलंबित किया जाए। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि चूंकि याचिकाकर्ता को बाइज्जत बरी नहीं किया गया, इसलिए वह निलंबन की अवधि के लिए वेतन पाने का हकदार नहीं था।
हाईकोर्ट का फैसला
न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्ता को उसकी हिरासत के कारण साधारण निलंबन के तहत रखा गया। याचिकाकर्ता को निलंबित करने के लिए उसके खिलाफ कोई विभाग/अनुशासनात्मक जांच नहीं की गई।
न्यायालय ने माना कि यदि निलंबन के समर्थन में कोई आंतरिक जांच हुई हो तो "सम्मानपूर्वक बरी किए जाने" के संबंध में तर्क मान्य है। ऐसा नहीं किये जाने पर निलंबन केवल याचिकाकर्ता की हिरासत के कारण था।
कहा गया,
“किसी भी विभागीय कार्यवाही के अभाव में एकमात्र निष्कर्ष, जो निकाला जा सकता है, वह यह है कि याचिकाकर्ता को उसकी हिरासत के कारण कर्तव्यों के निर्वहन से रोका गया।
किसी आपराधिक मामले के संबंध में जेल में बंद होने की स्थिति को उसके नियंत्रण से परे माना जाएगा। अंततः उक्त आपराधिक मामले में बरी होने के माध्यम से उसकी बेगुनाही साबित हो जाएगी तो उसे दंडित नहीं किया जाना चाहिए।
अदालत ने माना कि चूंकि याचिकाकर्ता हिरासत में था और निलंबन की अवधि के दौरान उसे जमानत पर रिहा नहीं किया गया। इसलिए उसे यह साबित करने के लिए प्रमाण पत्र पेश करने की आवश्यकता नहीं है कि वह ऐसी अवधि के दौरान लाभकारी रूप से नियोजित नहीं था। न्यायालय ने माना कि भले ही यह साधारण दोषमुक्ति है, लेकिन उसकी हिरासत की परिस्थितियां उसके नियंत्रण से बाहर थीं।
राज नारायण बनाम भारत संघ और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा करते हुए अदालत ने प्रतिवादी को याचिकाकर्ता को उसकी हिरासत की अवधि के लिए बकाया वेतन का भुगतान करने का निर्देश दिया।
केस टाइटल: अनिल कुमार सिंह बनाम यूपी राज्य और 4 अन्य [WRIT - A नंबर - 11555/2021]