सुप्रीम कोर्ट के कई अहम फैसलों की दृष्टि से वर्ष 2017 काफी महत्त्वपूर्ण रहा. इसमें निजता के अधिकार संबंधी उसका फैसला बहुत ही चर्चित और व्यापक प्रभाव वाला माना जा रहा है। उम्मीद की जाती है कि आधार कार्ड और धारा 377 से जुड़े मामलों पर इस फैसले का असर पड़ेगा। लाइव लॉ वर्ष 2018 में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आने वाले को बहुत ही अहम मामलों पर एक नजर डाल रहा है। ये मामले हैं :
वो मामले जिनकी सुनवाई कर रही है सुप्रीम कोर्ट की कई संवैधानिक पीठ
दिल्ल्ली सरकार और उप राज्यपाल के बीच जोर आजमाइश : दिल्ली सरकार और दिल्ली के दिल्ली के उप राज्यपाल के बीच अधिकारों और कार्यक्षेत्रों को लेकर जोर आजमाइश चल रही है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है जिसकी पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ सुनवाई कर रही है। इस पीठ की अध्यक्षता कर रहे हैं सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और इसके अन्य चार सदस्य हैं न्यायमूर्ति एके सीकरी, न्यायमूर्ति एएम खानविल्कर, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति अशोक भूषण। इस मामले की सुनवाई पूरी हो चुकी है और पीठ ने 6 दिसंबर को अपना फैसला सुरक्षित कर लिया। पीठ ने दैनिक मामलों में प्रशासन दिल्ली सरकार का चलेगा या दिल्ली के उप राज्यपाल का इस बारे में दायर याचिकाओं की सुनवाई की। सुनवाई 15 दिनों तक चली। दिल्ली की एएपी सरकार ने कई अपील दायर की जिसमें उसने दिल्ली हाई कोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी जिसमें कहा गया था कि राष्ट्रीय राजधानी का प्रशासनिक प्रमुख उप राज्यपाल है। वरिष्ठ एडवोकेट गोपाल सुब्रमण्यम ने दिल्ली सरकार की पैरवी की। इसके अलावा पी चिदंबरम, राजीव धवन, शेखर नफाड़े और इंदिरा जयसिंह ने भी दिल्ली सरकार का पक्ष पेश किया। अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल मनींदर सिंह ने केंद्र की ओर से दलील पेश की।
क्या “जीने” की इजाजत मिलनी चाहिए? : एनजीओ कॉमन कॉज की याचिका पर पांच दसस्यों की संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है। यह याचिका इस बात से संबंधित है कि अगर किसी व्यक्ति को इस तरह की बीमारी है कि उसकी मौत सुनिश्चित है तो क्या वह इस बात का अग्रिम निर्णय कर सकता है कि उसे लाइफ सपोर्ट पर रखा जाए या नहीं। इस याचिका की पैरवी एडवोकेट प्रशांत भूषण कर रहे हैं। एनजीओ का मानना है कि इस तरह की बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति को अपना “लिविंग विल” करने की अनुमति होनी चाहिए। इस तरह के व्यक्ति को अगर उसके ज़िंदा रहने की उम्मीद कम है तो यह इस बात के निर्णय की छूट होनी चाहिए कि वह लाइफ सपोर्ट पर रहना चाहता है कि नहीं। एनजीओ का कहना था कि शांति से मरने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीने के अधिकार का हिस्सा है।
सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में पैसिव यूथेनेसिया के पक्ष में फैसला दिया था।
आधार को संवैधानिक मान्यता : इस मामले पर सुनवाई 18 जनवरी को दुबारा शुरू होगी।15 दिसंबर को अपने अंतरिम आदेश में मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अगुआई वाली पीठ ने मोबाइल समेत कई सेवाओं को आधार से लिंक करने की समय सीमा को बढ़ाकर 31 मार्च 2018 कर दिया। इस पीठ में शामिल अन्य जज हैं न्यायमूर्ति एके सीकरी, एएम खानविल्कर, डीवाई चंद्रचूड़ और अशोक भूषण। इससे पहले यह सीमा 6 फरवरी थी। सरकार ने वित्त मंत्रालय द्वारा जारी एक अधिसूचना का हवाला दिया था जिसने प्रिवेंशन ऑफ़ मनी लौंडरिंग (मेंटेनेंस ऑफ़ रिकार्ड्स) रूल्स, 2005 के रूल 9(17) के प्रावधानों को संशोधित कर 31 दिसंबर की समय सीमा को समाप्त कर दिया था। इस अधिसूचना में रूल 9(17)(c) को बदल दिया था जिसमें कहा गया था कि अगर बैंक अकाउंट को 31 दिसंबर तक आधार से जोड़ा नहीं गया तो उसे बंद कर दिया जाएगा। पीठ ने कहा कि चूंकि समय सीमा को बढ़ाकर मार्च कर दिया गया है इसलिए आधार योजना से संबंधित 24 अलग-अलग याचिकाओं की सुनवाई अब जनवरी में होगी। बाद में कोर्ट ने 17 जनवरी 2018 को इसकी सुनवाई की तिथि निर्धारित की।
रामजन्मभूमि–बाबरी मस्जिद मामला : इस मामले की अगली सुनवाई 8 फरवरी निर्धारित है। 5 दिसंबर को हुई इसकी सुनवाई में संविधान पीठ की अगुवाई कर रहे न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने मस्जिद-समर्थक सुन्नी वक्फ बोर्ड और बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी के इस आग्रह को टाल दिया की मामले की सुनवाई जुलाई 2019 के बाद की जाए। वरिष्ठ वकील कपिल सिबल ने कोर्ट में कहा कि इस मामले का देश के राजनीति पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा और इस मामले की जल्दी जल्दी में सुनवाई एक ऐसे व्यक्ति के कहने पर हो रही है जो कि इस मामले में पक्षकार भी नहीं है। उनका इशारा भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की ओर था। उन्होंने कहा कि पार्टी के घोषणापत्र में किए वादे को पूरा करने के लिए ऐसा किया जा रहा है। कोर्ट ने उम्मीद जतायी कि इस मामले के पक्षकार सुनवाई में तैयार होकर आएँगे और मामले के स्थगन की मांग नहीं करेंगे।
रोहिंग्या मामला : इस मामले पर सुनवाई 31 जनवरी को फिर शुरू होगी। 5 दिसंबर को मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुआई वाली पीठ ने मुसलमान रोहिंग्या को वापस भेजने से संबंधित सभी याचिकाओं पर 31 जनवरी को सुनवाई करने का आदेश दिया। इस मामले में मुख्य याचिकाकर्ता की पैरवी एडवोकेट प्रशांत भूषण कर रहे हैं और इस मामले की तयारी के बारे में कोर्ट ने उनसे जानकारी ली।
भूषण ने कोर्ट से कहा : हो सकता है कि सरकार रोहिंग्या शरणार्थियों को अभी वापस भेजने का प्रयास न करे। पर वह कोई सर्वे कर रही है। 13 अक्टूबर को कोर्ट ने रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस अपने देश भेजने पर प्रतिबंध लगाते-लगाते रह गया पर उसने केंद्र से कहा कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा और शरणार्थियों के मानवाधिकारों के बीच संतुलन बनाए।
हादिया मामला : इस मामले की अगली सुनवाई फ़रवरी के तीसरे सप्ताह में होना है। 27 नवंबर को हुई सुनवाई में कोर्ट ने हादिया को उसके माँ-बाप के नियंत्रण से मुक्त कर दिया। हादिया ने आरोप लगाया था कि उसके माँ-बाप ने उसे पिछले 11 महीने से “गैरकानूनी ढंग से नजरबंद” कर रखा है। हादिया के पति शफिन जहाँ ने केरल हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। हाई कोर्ट ने उनकी शादी को गैरकानूनी करार दिया था और हादिया को अपने पिता के पास भेज दिया था।
कोर्ट ने इस मामले में लव जिहाद के आरोपों की एनआईए द्वारा की जा रही जांच को अभी खुला रखा है।
अनुच्छेद 35A को समाप्त करने का मामला : 30 अक्टूबर को न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के नेतृत्व में दो सदस्यीय पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 35A की वैधता को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं को पांच सदस्यों की संवैधानिक पीठ सुनवाई करेगी। यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर को विशेष स्टेटस प्रदान करता है। बाद में अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल के यह कहने पर कि सरकार ने इस मामले में एक वार्ताकार नियुक्त किया है, कोर्ट ने मामले की सुनवाई स्थगित कर दी। वेणुगोपाल ने इस मामले की सुनवाई को छह माह के लिए स्थगित करने का अनुरोध किया ताकि इस बारे में किसी दृढ विचार पर पहुंचा जा सके। पर कोर्ट ने सरकार को आठ सप्ताह का वक्त दिया।
संविधान के अनुच्छेद 35A और जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 6, जो कि राज्य के ‘स्थाई निवासी’ के बारे में है, को इस याचिका में चुनौती दी गई है। इनमें राज्य की किसी महिला के राज्य के बाहर के किसी पुरुष से शादी करने पर संपत्ति का अधिकार नहीं देने के प्रावधान को चुनौती दी गई है।
धारा 377 का गैर-अपराधीकरण : नाज फाउंडेशन द्वारा दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने एलजीबीटी समुदाय को आशावादी संदेश दिया है। कोर्ट ने इस फैसले पर दुबारा विचार करने का आग्रह मान लिया है। तीन गण्यमान्य लोगों ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर धारा 377 को समाप्त किए जाने की मांग की है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में निजता को मौलिक अधिकार मानने के बाद एलजीबीटी के अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोगों को आशा की किरण दिखाई दी है। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जेएस खेहर की अगुआई वाली आरके अग्रवाल, एस अब्दुल नज़ीर और डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि “निजता का अधिकार और सेक्सुअल ओरिएंटेशन की सुरक्षा अनुच्छेद 14 के तहत मौलिक अधिकारों की बुनियाद है। इस निर्णय ने दिसंबर 2013 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले को बहुत बड़ा झटका दिया। इस फैसले में समान लिंग के लोगों के बीच यौन संबंधों को अपराध करार दे दिया गया था।
निर्भया मामले में पुनर्विचार याचिका : इस मामले की अगली सुनवाई 22 जनवरी को होनी है। 12 दिसंबर को इस मामले की हुई सुनवाई में न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के नेतृत्व में तीन सदस्यीय विशेष पीठ ने इस मामले की समीक्षा सुनवाई शुरू की। यह मामला इस अपराध में मौत की सजा पाए चार अभियुक्तों की सजा के फैसले की समीक्षा से संबंधित है। सुप्रीम कोर्ट ने 5 मई को इन अभियुक्तों को सुनवाई अदालत द्वारा मिली मौत की सजा और दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा इसको सही ठहराने का अनुमोदन किया था।