वैवाहिक कार्यवाही में पत्नियों और बच्चों को अक्सर पतियों की तुलना में आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है, पति उनकी स्थिति का फायदा उठाते हैं: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Shahadat

16 Nov 2024 9:50 AM IST

  • वैवाहिक कार्यवाही में पत्नियों और बच्चों को अक्सर पतियों की तुलना में आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है, पति उनकी स्थिति का फायदा उठाते हैं: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि वैवाहिक कार्यवाही में पत्नियों और बच्चों को अक्सर पतियों की तुलना में आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है, क्योंकि उन्हें परिवार या आय से सीमित सहायता मिलती है। पति अक्सर उनकी स्थिति का फायदा उठाते हैं, जिससे उनके लिए ऐसी कार्यवाही का सामना करना मुश्किल हो जाता है।

    जस्टिस विवेक चौधरी और जस्टिस ओम प्रकाश शुक्ला की खंडपीठ ने कहा,

    “वैवाहिक कार्यवाही में पत्नी और बच्चों को पति या पिता के खिलाफ खड़ा किया जाता है, जैसा भी मामला हो और अधिकांश मामलों में वे समान स्तर पर नहीं होते हैं। कुछ को अपने माता-पिता, भाइयों और बहनों से आर्थिक सहायता मिलती है। कुछ अपवादस्वरूप काम करके कमाते भी हैं। हालांकि, सभी मामलों में महिलाएं और बच्चे अपनी आर्थिक तंगी के कारण वैवाहिक कार्यवाही का सामना करने में असमर्थ होते हैं, जिसका फायदा पति उठाते हैं।

    न्यायालय ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) की धारा 24 [लंबित अवधि तक भरण-पोषण और कार्यवाही का खर्च] का उद्देश्य वैवाहिक विवाद से उत्पन्न मामले के लंबित रहने के दौरान पत्नी को लंबित अवधि तक भरण-पोषण प्रदान करके वैवाहिक कार्यवाही में इसी वित्तीय असमानता को संतुलित करना है। न्यायालय ने कहा कि यह प्रावधान वैवाहिक कार्यवाही लंबित रहने तक पत्नी के जीवित रहने का प्रावधान करता है।

    न्यायालय ने कहा,

    "उक्त प्रावधान समानता की एक कल्पना को जन्म देता है, जिसमें पत्नी को पति के साथ कम से कम आर्थिक रूप से समान रूप से लाने का प्रयास किया जाता है, जिससे शुरू किए गए वैवाहिक मामले को दोनों पक्षों द्वारा उचित और समान रूप से आगे बढ़ाया जा सके।"

    न्यायालय ने यह भी कहा कि इस प्रावधान के तहत भरण-पोषण आदेशों का महत्व इसलिए उजागर होता है, क्योंकि ऐसे आदेश सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 51 और आदेश XXI के तहत सिविल न्यायालय के आदेशों की तरह लागू करने योग्य होते हैं। ये आदेश अस्थायी होते हैं और वैवाहिक कार्यवाही समाप्त होने के बाद समाप्त हो जाते हैं।

    संक्षेप में मामला

    अदालत ने ये टिप्पणियां पति द्वारा दायर अपील खारिज करते हुए कीं, जिसमें 1955 अधिनियम की धारा 24 के तहत एडिशनल प्रिंसिपल जज, फैमिली कोर्ट, लखनऊ द्वारा पारित आदेश को चुनौती दी गई। उक्त आदेश में उसे अपनी पत्नी (विपरीत पक्ष) को "कानूनी गतिविधियों (मुकदमेबाजी खर्च)" के रूप में एकमुश्त 50 हजार रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया गया।

    उसे मुकदमेबाजी खर्च के रूप में एकमुश्त 10 हजार रुपये और आदेश की तारीख से 30 दिनों के भीतर प्रति सुनवाई 500 रुपये का भुगतान करने का भी निर्देश दिया गया।

    फैमिली कोर्ट ने यह आदेश (इस वर्ष सितंबर में) पत्नी द्वारा दायर आवेदन पर पारित किया, जिसमें पति द्वारा 1955 अधिनियम की धारा 13 के तहत दायर तलाक के मुकदमे के संबंध में लंबित भरण-पोषण की मांग की गई।

    आदेश की आलोचना करते हुए अपीलकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि फैमिली कोर्ट इस बात पर विचार करने में विफल रहा कि प्रतिवादी-पत्नी बिना किसी वैध औचित्य के अपीलकर्ता-पति से अलग रह रही है।

    यह भी तर्क दिया गया कि फैमिली कोर्ट ने इस बात को नजरअंदाज कर दिया कि पति के विभाग ने पहले ही उसे अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए किश्तों में 67 हजार रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया, जिसे न्यायालय को पत्नी के आवेदन को स्वीकार करते समय ध्यान में रखना चाहिए था।

    हाईकोर्ट की टिप्पणियां

    इन दलीलों की पृष्ठभूमि में न्यायालय ने शुरू में ही यह टिप्पणी की कि फैमिली कोर्ट ने केवल उन खर्चों को मंजूरी दी है, जो पत्नी फैमिली कोर्ट के समक्ष तलाक के मुकदमे में करेगी।

    इस प्रकार, न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि बच्चों के भरण-पोषण के लिए विभाग के आदेश के तहत कोई राशि दी जा रही है तो वह किसी भी तरह से उन खर्चों को प्रभावित नहीं करती, जो पत्नी को फैमिली कोर्ट के समक्ष मुकदमे में करने की आवश्यकता है।

    न्यायालय ने यह भी कहा कि पति का अपनी पत्नी का भरण-पोषण करने का दायित्व विवाह के समय उत्पन्न होता है, जबकि बच्चों के प्रति ऐसा दायित्व उनके जन्म के समय उत्पन्न होता है। ये दायित्व कानून के संचालन द्वारा उस पर लगाए गए।

    न्यायालय ने आगे जोर देकर कहा कि सक्षम पति या पिता का, जैसा भी मामला हो, अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति सभी परिस्थितियों में भरण-पोषण करना एक पवित्र कर्तव्य है।

    1955 अधिनियम की धारा 24 के अंतर्गत निहित प्रावधान के महत्व को रेखांकित करते हुए विशेष रूप से पत्नी के लिए, न्यायालय ने कहा कि पत्नी के सर्वोपरि हित का निर्धारण इस प्रावधान में दिए गए मापदंडों के आधार पर किया जाना चाहिए, अर्थात क्या उसके पास अपने भरण-पोषण के लिए स्वतंत्र और पर्याप्त आय है या नहीं।

    इसके मद्देनजर, यह देखते हुए कि रिकॉर्ड पर कोई भी ऐसा तथ्य नहीं लाया गया, जिससे यह पता चले कि पत्नी के पास अपने भरण-पोषण के लिए आय का कोई स्वतंत्र स्रोत नहीं है। पति भारतीय सेना में कर्नल है तथा उसे अच्छा वेतन मिलता है, न्यायालय ने फैमिली कोर्ट का आदेश बरकरार रखा तथा पति की अपील खारिज की।

    केस टाइटल- अरुण पांडे बनाम नेहा पांडे

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