इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अभियोजन एजेंसियों द्वारा वकीलों को निशाना बनाने की प्रवृत्ति की निंदा की

Shahadat

14 July 2025 10:56 AM IST

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अभियोजन एजेंसियों द्वारा वकीलों को निशाना बनाने की प्रवृत्ति की निंदा की

    कड़े शब्दों में लिखे गए कई आदेशों में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में उन आरोपों को गंभीरता से लिया, जिनमें कहा गया कि उत्तर प्रदेश के पुलिस अधिकारियों ने 90 वर्षीय याचिकाकर्ता को धमकाया और अतिक्रमण का आरोप लगाते हुए दायर लंबित जनहित याचिका (PIL) के संबंध में उसके वकील को धमकाने का प्रयास किया।

    जस्टिस जेजे मुनीर की पीठ ने वकीलों द्वारा अपने पेशेवर कर्तव्यों का पालन करने के लिए उनकी जांच करने की प्रवृत्ति की निंदा की और चेतावनी दी कि ऐसा आचरण न्यायिक व्यवस्था की नींव पर प्रहार करता है। यदि यह साबित हो जाता है तो आपराधिक अवमानना के तहत कठोरतम दंड दिया जाना चाहिए।

    एकल जज ने टिप्पणी की,

    "हाल ही में देश भर में वकीलों द्वारा अदालत में बहस किए जाने वाले मामलों में जांच किए जाने का यह चलन देखा गया। यह न्यायिक व्यवस्था के अस्तित्व पर आघात करता है। इतना गंभीर है कि यदि यह साबित हो जाता है तो आपराधिक अवमानना के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए और कठोरतम दंड दिया जाना चाहिए। इसे बहुत कठोर दंड दिया जाना चाहिए।"

    यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के हालिया प्रथम दृष्टया इस विचार की पृष्ठभूमि में आई है कि अभियोजन एजेंसियों/पुलिस द्वारा मुवक्किल की जानकारी या दी गई सलाह के संबंध में कानूनी पेशेवरों को तलब करना अस्वीकार्य है और कानूनी पेशे की स्वायत्तता के लिए खतरा है।

    सुप्रीम कोर्ट ने मुवक्किलों को दी गई कानूनी राय के संबंध में जांच एजेंसियों द्वारा वकीलों को तलब करने के मुद्दे पर स्वतः संज्ञान लेते हुए मामला भी शुरू किया।

    इस मामले की सुनवाई 14 जुलाई को होगी।

    बता दें, हाईकोर्ट जौनपुर जिले के बड़गांव गांव में एक गांव सभा की भूमि पर अतिक्रमण का आरोप लगाने वाली एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा था।

    3 जुलाई, 2025 को सुनवाई के दौरान, याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि उनके मुवक्किल को पुलिस ने धमकाया था और एक कांस्टेबल ने याचिकाकर्ता के बेटे को लगभग गिरफ्तार कर लिया था और उसे पुलिस स्टेशन ले जा रहा था, तभी ग्राम प्रधान ने हस्तक्षेप करके उसे बचा लिया।

    यह उत्पीड़न कथित तौर पर याचिकाकर्ता को संबंधित जनहित याचिका वापस लेने के लिए मजबूर करने के लिए किया गया था।

    आरोपों पर गौर करते हुए पीठ ने मामले को 'बेहद गंभीर' बताते हुए 3 जुलाई को जौनपुर के पुलिस अधीक्षक से हलफनामा मांगा था।

    पीठ ने इस प्रकार टिप्पणी की:

    "जौनपुर के पुलिस अधीक्षक इस मामले में अपना हलफनामा दाखिल करें। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि यदि याचिकाकर्ता के आरोपों में ज़रा भी सच्चाई है, जिसे इस न्यायालय के पास असत्य मानने का कोई कारण नहीं है तो यह न्यायालय इस मामले को आपराधिक अवमानना मामलों की सुनवाई कर रही पीठ के समक्ष प्रस्तुत करने का निर्देश देने के लिए बाध्य होगा..."

    अब 8 जुलाई को न्यायालय ने जौनपुर के पुलिस अधीक्षक द्वारा दायर हलफनामे पर विचार किया और पाया कि अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (ग्रामीण) ने मामले की जांच की थी और उन्होंने संबंधित कांस्टेबल को क्लीन चिट दे दी थी।

    रिपोर्ट में याचिकाकर्ता और प्रतिद्वंद्वी पक्ष के बीच चल रहे भूमि विवाद का हवाला दिया गया। कहा गया कि पुलिस केवल जल निकासी विवादों से संबंधित शिकायतों पर कार्रवाई कर रही थी।

    हालांकि, न्यायालय हलफनामे से संतुष्ट नहीं है, क्योंकि उसने जनहित याचिका दायर करने वाले याचिकाकर्ता (गौरी शंकर सरोज) और उनके पोते (रजनीश सरोज) के बयानों को रिकॉर्ड में लिया, जो व्यक्तिगत रूप से उपस्थित हुए और उन्होंने पुलिस द्वारा उनके साथ किए गए उत्पीड़न के बारे में एक जैसे बयान दिए।

    उनके बयानों पर विचार करते हुए न्यायालय प्रथम दृष्टया आश्वस्त था कि संबंधित थाने की पुलिस, जिसमें 112 पुलिस हेल्पलाइन सुविधा पर तैनात पुलिस भी शामिल है, उसने राज्य के अधिकार का दुरुपयोग करके याचिकाकर्ता, जो सेना से सेवानिवृत्त नब्बे वर्ष का है, उसको अपनी याचिका वापस लेने के लिए मजबूर करने की एक 'पूर्व-नियोजित योजना' बनाई थी।

    यह भी उल्लेख किया गया कि कांस्टेबल पंकज मौर्य सहित पुलिस अधिकारियों ने गिरफ्तारी की धमकी देकर याचिकाकर्ता के पोते से कथित तौर पर पैसे वसूले।

    इस प्रकार, न्यायालय ने अपर पुलिस अधीक्षक द्वारा की गई जांच को महत्वहीन मानते हुए खारिज कर दिया और पुलिस अधीक्षक, जौनपुर को पुनः जांच करने तथा 11 जुलाई, 2025 तक व्यक्तिगत हलफनामा प्रस्तुत करने का निर्देश दिया।

    अनुपालन में 11 जुलाई को पुलिस अधीक्षक डॉ. कौस्तुभ ने हलफनामा प्रस्तुत किया, जिसमें पुलिसकर्मियों की गलती स्वीकार की गई।

    हालांकि, इस समय याचिकाकर्ता के वकील [वकील विष्णु कांत तिवारी] ने अदालत को सूचित किया कि पुलिस ने 9 जुलाई की रात उनके घर पर छापा मारा और उनके पिता के साथ कथित तौर पर दुर्व्यवहार किया, उनके ठिकाने के बारे में पूछताछ की और यह भी पूछा कि वे जौनपुर मुख्यालय क्यों गए।

    अपने व्यक्तिगत हलफनामे में वकील तिवारी ने निम्नलिखित बातें कहीं:

    "इसके बाद, मुंगरा बादशाहपुर के थाना प्रभारी दिलीप कुमार सिंह के नंबर से फ़ोन आने लगे... जब उन्होंने फिर भी फ़ोन नहीं उठाया तो पुलिस बल के साथ सीधे उनके घर पहुंच गई... वे रात में उन्हें गिरफ़्तार करने के लिए उन पर दबाव बनाने के लिए बलपूर्वक उनके घर पर छापा मार रहे हैं।"

    इस पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पीठ ने कहा कि उसने देश भर में यह चलन देखा कि जिन मामलों में वकील अदालत में बहस कर रहे हैं, उनमें उनकी जांच की जा रही है।

    इस बात पर ज़ोर देते हुए कि यह प्रथा न्यायिक व्यवस्था के अस्तित्व पर आघात करती है। आपराधिक अवमानना के तहत कार्रवाई की मांग करती है, न्यायालय ने निर्देश दिया कि अपर मुख्य सचिव (गृह), उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ को इस मामले में प्रतिवादी बनाया जाए।

    न्यायालय ने अपर मुख्य सचिव (गृह) और पुलिस अधीक्षक, जौनपुर, दोनों को 15 जुलाई, 2025 तक अपने व्यक्तिगत हलफनामे दाखिल करने का भी आदेश दिया।

    इसके अलावा, वकील तिवारी और उनके परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय ने व्यापक निरोधक आदेश पारित किया:

    "हम पुलिस को चाहे वह किसी भी प्रतिष्ठान की हो, वकील मिस्टर विष्णु कांत तिवारी या उनके परिवार के किसी भी सदस्य से टेलीफोन पर संपर्क करने, उन्हें किसी भी तरह से धमकाने या परेशान करने, उन्हें कहीं भी गिरफ्तार करने या हिरासत में लेने, मिस्टर तिवारी के घर में घुसने, या आवश्यक कार्य से घर से बाहर निकलते समय उन्हें या उनके परिवार के किसी भी सदस्य को परेशान करने से रोकते हैं।"

    न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि वकील तिवारी या उनके परिवार के साथ भविष्य में पुलिस की कोई भी बातचीत केवल न्यायालय की पूर्व अनुमति से ही की जानी चाहिए।

    अब इस मामले की अगली सुनवाई 15 जुलाई, 2025 को होगी।

    Case title - Gauri Shankar Saroj vs. State Of U.P. And 5 Others [PUBLIC INTEREST LITIGATION (PIL) No. - 1118 of 2025]

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