सीआरपीसी की धारा 195(1)(b)(ii) उन मामलों में एफआईआर दर्ज करने पर रोक नहीं लगाती, जहां दस्तावेजों में कथित जालसाजी अदालत के बाहर हुई हो: इलाहाबाद हाईकोर्ट
Shahadat
28 March 2024 12:35 PM IST
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 195 (1)(b)(ii) ऐसे मामले में एफआईआर दर्ज करने पर रोक नहीं लगाती, जहां अदालत के बाहर दस्तावेज़ में कथित जालसाजी की गई हो। उसके बाद किसी न्यायालय में लंबित मामले की न्यायिक कार्यवाही में कथित जाली दस्तावेज़ दायर किया गया हो।
संदर्भ के लिए सीआरपीसी की धारा 195(1)(b)(ii) में प्रावधान है कि कोई भी अदालत जालसाजी आदि के अपराधों का संज्ञान नहीं लेगी, जब ऐसा अपराध किसी कार्यवाही में प्रस्तुत या साक्ष्य के रूप में दिए गए दस्तावेज़ के संबंध में किया गया हो।
जस्टिस सुरेंद्र सिंह-प्रथम की पीठ ने फैसला सुनाया,
"सीआरपीसी की धारा 195(1)(b) ऐसे जाली दस्तावेजों से संबंधित आपराधिक मामले के रजिस्ट्रेशन पर कोई रोक नहीं लगाती, यह केवल यह रोकती है कि मजिस्ट्रेट ऐसे जाली दस्तावेजों के संबंध में किसी अपराध का संज्ञान नहीं लेगा, जब तक कि जिस न्यायालय में, जालसाजी की गई, सीआरपीसी की धारा 340 के प्रावधान के अनुसार शिकायत मामला दर्ज करें।“
न्यायालय सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत पुनर्विचारकर्ता की याचिका खारिज करने वाले सिविल जज (सीनियर डिवीजन), एफटीसी, बस्ती के आदेश को चुनौती देते हुए दायर आपराधिक पुनर्विचार से निपट रहा था। इस याचिका में स्टेशन हाउस ऑफिसर (एसएचओ) को धोखाधड़ी और जालसाजी के लिए विरोधी पक्षों (नंबर 2 और 3) के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने और जांच करने का निर्देश देने की मांग की गई।
पुनर्विचारकर्ता ने आरोप लगाया कि सिविल जज (सीनियर डिवीजन), बस्ती द्वारा विवादित वसीयत रद्द करने के बावजूद, प्रतिवादी नंबर 2 और 3 ने तहसीलदार के न्यायालय, सदर में झूठे शपथ पत्र और जाली दस्तावेज प्रस्तुत करके राजस्व रिकॉर्ड में अपना नाम शामिल करने में कामयाबी हासिल की।
लागू आदेश में सिविल जज की अदालत ने कहा कि अदालती कार्यवाही में जाली दस्तावेज दाखिल करने के संबंध में एफआईआर का रजिस्ट्रेशन सीआरपीसी की धारा 195(1)(b)(i) के तहत वर्जित है।
ट्रायल कोर्ट ने यह भी तर्क दिया कि कथित अपराधों के लिए केवल अदालत द्वारा शिकायत मामला शुरू किया जा सकता है, जिसकी न्यायिक कार्यवाही में गलत हलफनामा या जाली दस्तावेज दायर किए गए हैं। इसलिए कथित अपराधों के लिए सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत एफआईआर दर्ज करने का कोई आदेश नहीं दिया गया।
जब मामला एचसी तक पहुंचा तो एकल न्यायाधीश ने कहा कि यह संशोधनवादी का मामला है कि हलफनामे और वसीयत में कथित जालसाजी नहीं हुई, जबकि ये दस्तावेज़ पहले से ही एक अलग अदालत में दायर किए गए। कथित झूठा हलफनामा या जाली दस्तावेज अदालत के बाहर तैयार किया गया। बाद में इसे अन्य चल रहे मामले में न्यायिक कार्यवाही के दौरान प्रस्तुत किया गया।
इस प्रकार, न्यायालय ने कहा कि किसी आपराधिक मामले का संज्ञान लेने पर रोक सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत आवेदन में दिए गए तथ्यों और परिस्थितियों में लागू नहीं होगी।
इस संबंध में न्यायालय ने सचिदा नंद सिंह और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य 1998 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें यह माना गया कि सीआरपीसी की धारा 195(1)(b)(ii) में निहित रोक यह उस मामले पर लागू नहीं होता है, जहां दस्तावेज़ की जालसाजी अदालत में दस्तावेज़ पेश किए जाने से पहले की गई।
इसे देखते हुए न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि आक्षेपित आदेश पारित करते समय मजिस्ट्रेट ने अवैधता की। कानून के अनुसार, उसमें निहित क्षेत्राधिकार का प्रयोग नहीं किया। इसलिए संशोधनकर्ता की याचिका स्वीकार करते हुए उक्त आदेश रद्द किया गया।
इसके अलावा, न्यायालय ने संबंधित मजिस्ट्रेट को पुनर्विचारकर्ता/आवेदक को सुनवाई का अवसर देने के बाद सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत दायर पुनर्विचारकर्ता के आवेदन पर नया आदेश पारित करने का निर्देश दिया।
केस टाइटल- विश्वनाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 2 अन्य लाइव लॉ (एबी) 194/2024 [आपराधिक संशोधन नंबर- 185/2023]