आईपीसी की धारा 174-ए के तहत अपराध केवल संबंधित न्यायालय की लिखित शिकायत के आधार पर संज्ञेय; पुलिस एफआईआर दर्ज नहीं कर सकती: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Shahadat

9 Jan 2024 8:26 AM GMT

  • आईपीसी की धारा 174-ए के तहत अपराध केवल संबंधित न्यायालय की लिखित शिकायत के आधार पर संज्ञेय; पुलिस एफआईआर दर्ज नहीं कर सकती: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना है कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 174ए के तहत किसी अपराध का संज्ञान केवल संबंधित न्यायालय की लिखित शिकायत पर ही लिया जा सकता है। पुलिस के पास ऐसे मामले में एफआईआर दर्ज करने की कोई शक्ति नहीं है।

    आईपीसी की धारा 174ए का उल्लेख किया गया, जिसे 2005 में पेश किया गया था। उक्त धारा निर्दिष्ट स्थान और समय पर घोषित अपराधियों की गैर-उपस्थिति को अपराध मानती है।

    हाईकोर्ट के फैसले के अनुसार, आईपीसी की धारा 174ए के तहत अपराध का संज्ञान केवल अदालत की लिखित शिकायत के आधार पर लिया जा सकता है, जिसने आरोपी के खिलाफ सीआरपीसी की धारा 82 के तहत कार्यवाही शुरू की थी।

    जस्टिस अंजनी कुमार मिश्रा और जस्टिस अरुण कुमार सिंह देशवाल की खंडपीठ ने सीआरपीसी की धारा 195(1)(ए)(i) के आदेश का हवाला दिया, जो अदालत को आईपीसी की धारा 172 और 188 के तहत दंडनीय किसी भी अपराध का संज्ञान लेने से रोकता है।

    कोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 174-ए को 2005 में धारा 172 से 188 के बीच संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया था। इसलिए यह स्पष्ट है कि आईपीसी की धारा 174-ए सीआरपीसी की धारा 195(1)(ए)(i) में उल्लिखित अपराधों का हिस्सा है, जिसके लिए अदालत को शिकायत के अलावा संज्ञान लेने से रोक दिया गया।

    कोर्ट ने कहा,

    “इसलिए एक बार सीआरपीसी की धारा 195(1)(ए)(i) सीआरपीसी लिखित शिकायत के आधार को छोड़कर आईपीसी की धारा 174-ए के तहत अपराध का संज्ञान लेने पर रोक लगा देती है, फिर एफआईआर दर्ज करने की अनुमति देती है। आईपीसी की धारा 174-ए के तहत यह संबंधित व्यक्ति के लिए न्याय का मखौल होगा, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कानून के अनुसार छोड़कर वंचित नहीं किया जा सकता है।''

    इसके साथ ही, कोर्ट ने यह भी माना कि मोती सिंह सिरकरवार बनाम यूपी राज्य और अन्य में इलाहाबाद हाईकोर्ट का 2015 का फैसला सही नहीं है। आईपीसी की धारा 174-ए सपठित सीआरपीसी की धारा 195(1)(ए)(i) की व्याख्या के संबंध में सही कानून नहीं बनाया।

    मोती सिंह (सुप्रा) मामले में, एचसी ने माना था कि आईपीसी की धारा 174-ए एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध है। इसलिए वर्ष 2006 में आईपीसी में धारा 174-ए पेश करते समय इसने सीआरपीसी की धारा 195(1)(ए)(i) में कोई संशोधन नहीं किया। इसलिए इसमें आईपीसी की धारा 174-आईपीसी शामिल की जाएगी। हालांकि, सभी गैर-संज्ञेय अपराधों के बीच आईपीसी की धारा 172 से 188 आईपीसी तक जमानती है।

    संक्षेप में मामला

    वर्तमान मामले में आरोपी-याचिकाकर्ताओं पर पुलिस द्वारा भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 395, 412 के तहत आरोप पत्र दायर किया गया, जिस पर मजिस्ट्रेट ने संज्ञान लिया। उसके बाद याचिकाकर्ताओं के खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी किया। बाद में सीआरपीसी की धारा 82 के तहत उद्घोषणा की गई। इसके बाद आईपीसी की धारा 174-ए के तहत एफआईआर दर्ज की गई। पुलिस द्वारा याचिकाकर्ताओं के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। इसे चुनौती देते हुए याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट का रुख किया।

    हाईकोर्ट की टिप्पणियां

    सीआरपीसी की धारा 195(1)(ए) का अवलोकन करते हुए न्यायालय ने कहा कि आईपीसी की धारा 172 से 188 के तहत दंडनीय अपराध अदालत द्वारा तभी संज्ञेय होते हैं, जब संबंधित लोक सेवक या उसके अधीनस्थ द्वारा लिखित में शिकायत दर्ज की जाती है और आईपीसी की धारा 21 के अनुसार, "लोक सेवक" में प्रत्येक न्यायाधीश शामिल है, जिसमें किसी भी न्यायिक कार्य का निर्वहन करने के लिए कानून द्वारा सशक्त कोई भी व्यक्ति शामिल है।

    अदालत ने कहा,

    इसलिए, जो मजिस्ट्रेट सीआरपीसी की धारा 82 के तहत कार्यवाही जारी करता है, उसे सीआरपीसी की धारा 195 के अर्थ के तहत लोक सेवक माना जाएगा।

    कोर्ट ने आगे कहा कि आईपीसी में धारा 174-ए डालने के समय विधायिका को सीआरपीसी की धारा 195(1)(ए)(i) के तहत अपराधों की श्रेणी के बारे में अच्छी तरह से पता था, तब भी सीआरपीसी की धारा 195(1) )(ए)(i) को जानबूझकर अछूता रखा गया, क्योंकि विधायिका का इरादा सीआरपीसी की धारा 195(1)(ए)(i) में उल्लिखित अपराधों के लिए अदालत की ओर से संज्ञान की रोक प्रदान करने के लिए और संज्ञेय अपराध यानी शिकायत को छोड़कर आईपीसी की धारा 174-ए शामिल करना था।

    न्यायालय ने यह भी कहा कि इस प्रावधान को सीआरपीसी की धारा 195(1)(ए) (i) के तहत शामिल किया गया, जिससे पुलिस को आरोपी को अनावश्यक परेशान करने से रोका जा सके, क्योंकि पुलिस पहले से ही सीआरपीसी की धारा 82 के तहत उसके खिलाफ कार्रवाई कर रही है।

    कोर्ट ने कहा,

    “इसलिए आईपीसी की धारा 174-ए को सीआरपीसी की धारा 195(1)(ए)(आई) में उल्लिखित अपराध की श्रेणी में रखकर विधायिका का एकमात्र उद्देश्य सीआरपीसी की धारा 82 के तहत प्रक्रिया का सम्मान नहीं करने और आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अनावश्यक उल्लंघन की रक्षा करने के लिए भी आरोपी के कृत्य को दंडनीय बनाना है, क्योंकि पुलिस पहले से ही सीआरपीसी की धारा 82 की कार्यवाही के साथ-साथ लंबित एनबीडब्ल्यू के तहत आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र है।”

    इसके साथ ही कोर्ट ने विवादित एफआईआर रद्द कर दी।

    हालांकि, कोर्ट ने संबंधित अदालत के लिए यह खुला रखा कि अगर कोई कानूनी बाधा नहीं है तो सीआरपीसी की धारा 195(1) के तहत याचिकाकर्ताओं के खिलाफ आईपीसी की धारा 174-ए के तहत लिखित शिकायत दर्ज की जा सकती है।

    अपीयरेंस

    आवेदक के वकील: अखिलेश श्रीवास्तव और सक्षम श्रीवास्तव।

    प्रतिवादी के वकील: जीए

    केस टाइटल - सुमित और अन्य बनाम यूपी राज्य और 2 अन्य।

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