मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति की इच्छा तय नहीं हो पाने पर कोर्ट बनाएगा प्रतिनिधि: इलाहाबाद हाईकोर्ट
Praveen Mishra
7 Jun 2025 12:15 PM IST

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी की है कि मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम में एक कानूनी खालीपन है, क्योंकि यह यह स्पष्ट नहीं करता कि किसी मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति की “इच्छा और प्राथमिकताओं” को कैसे निर्धारित किया जाए, जब उसके लिए प्रतिनिधि नियुक्त किया जाना हो। ऐसे मामलों में अदालतें "परेंस पैट्राए" के रूप में करती हैं और मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति के सर्वोत्तम हितों को ध्यान में रखते हुए प्रतिनिधि नियुक्त करती हैं।
मानसिक रूप से विकलांग मौसी के लिए उनके भतीजे को प्रतिनिधि नियुक्त किए जाने की याचिका पर सुनवाई करते हुए, जस्टिस राजन रॉय और जस्टिस ओम प्रकाश शुक्ला की खंडपीठ ने कहा, “मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम में 'सर्वोत्तम हित' निर्धारित करने के लिए कुछ मानदंड और विचार करने योग्य कारक जरूर बताए गए हैं, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया कि किसी व्यक्ति की 'इच्छा और प्राथमिकता' क्या मानी जाएगी।”
यहां तक कि धारा 14(1) के प्रावधान में, जहां पूर्ण समर्थन दिए जाने के कारकों की बात की गई है, वहां भी इन बातों का अभाव स्पष्ट रूप से दिखता है।
इसके साथ ही, अदालत ने यह भी कहा, “मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम में न तो वित्तीय मामलों के प्रबंधन के संबंध में कोई प्रावधान है, न ही अभिभावक नियुक्त करने अथवा मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति की चल-अचल संपत्ति की देखरेख का कोई तरीका निर्धारित किया गया है। इसलिए, यह एक स्पष्ट कानूनी खालीपन को दर्शाता है।”
विपक्षी पक्ष संख्या 4 के पिता मध्यांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड, अयोध्या में नोटर और ड्राफ्टर के पद पर कार्यरत थे। सेवानिवृत्त होने के बाद वे पेंशन प्राप्त कर रहे थे। विपक्षी पक्ष संख्या 4 की माता का पहले ही देहांत हो चुका था। पिता के निधन के पश्चात विपक्षी संख्या 4 ने परिवार पेंशन के लिए आवेदन किया, क्योंकि वह मध्यम बौद्धिक अक्षमता से पीड़ित है। उन्हें ₹14,400 प्रति माह की पारिवारिक पेंशन मंजूर की गई, जो उनकी विवाह या मृत्यु तक दी जाएगी।
याचिकाकर्ता, जो कि विपक्षी संख्या 4 का भतीजा है, ने मानसिक स्वास्थ्य पुनरावलोकन बोर्ड, बाराबंकी के समक्ष मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 2017 की धारा 14 के अंतर्गत आवेदन किया कि वह उनकी देखभाल करना चाहता है, क्योंकि परिवार का कोई अन्य सदस्य आगे नहीं आया।
यह आवेदन दो आपराधिक मामलों की लंबितता के आधार पर खारिज कर दिया गया।
याचिकाकर्ता ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी, यह कहते हुए कि केवल आरोप लगने से वह दोषी नहीं हो जाता, जब तक कि अदालत द्वारा सिद्ध न हो जाए। उसने यह भी तर्क दिया कि उसका अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) इस अस्वीकृति से उल्लंघन हुआ है।
हाईकोर्ट का फैसला:
कोर्ट ने प्रारंभिक तौर पर नोटिस जारी करते हुए यह माना कि विपक्षी संख्या 4 वर्तमान में याचिकाकर्ता के साथ रह रही है और उसके पिता के अन्य उत्तराधिकारियों ने भी याचिकाकर्ता को देखभालकर्ता बनाए जाने पर अनापत्ति प्रमाण पत्र दिया है।
बोर्ड द्वारा दाखिल हलफनामे में कहा गया कि हालांकि याचिकाकर्ता पर लगे अपराध जघन्य नहीं हैं, परन्तु वे नैतिक पतन से जुड़े हैं।
कोर्ट ने इस दलील को खारिज कर दिया और कहा कि पहले दिए गए कारणों को बाद में हलफनामे द्वारा नहीं बदला जा सकता।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि आरोपित अपराध नैतिक पतन की श्रेणी में नहीं आते।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि आरोपित अपराध नैतिक पतन की श्रेणी में नहीं आते।
कोर्ट ने आगे कहा, "मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 2017 की धारा 4 के अनुसार, हर व्यक्ति, जिसमें मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति भी शामिल है, को यह मान लिया जाता है कि वह अपनी मानसिक स्वास्थ्य देखभाल या उपचार के संबंध में निर्णय लेने की क्षमता रखता है।”
इसी अधिनियम की धारा 5(1)(c) में कहा गया है कि, "हर व्यस्क व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह एक लिखित पूर्व निर्देश में यह तय करे कि किस व्यक्ति को वह अपना नामित प्रतिनिधि बनाना चाहता है।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि विपक्षी संख्या 4, जो 75% विकलांग है, ने कोई पूर्व निर्देश नहीं दिया है, इसलिए उनका मामला धारा 14(4)(d) के अंतर्गत आता है, जिसके अनुसार यदि कोई नामित प्रतिनिधि नहीं है, तो बोर्ड किसी उपयुक्त व्यक्ति की नियुक्ति कर सकता है।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 14(4)(b) के अनुसार, किसी रिश्तेदार को अन्य व्यक्तियों की तुलना में वरीयता दी जानी चाहिए, और केवल तभी किसी और को नियुक्त किया जा सकता है जब रिश्तेदार तैयार न हो।
चूंकि ऐसे मामलों में नामांकन की कोई ठोस प्रक्रिया नहीं है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने भी कई मामलों में “परेंस पैट्राए” के रूप में प्रतिनिधि या अभिभावक नियुक्त किए हैं।
चूंकि विपक्षी संख्या 4 अपनी “इच्छा और प्राथमिकता” स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में असमर्थ थी, इसलिए हाईकोर्ट ने “परेंस पैट्राए” के रूप में हस्तक्षेप कर याचिकाकर्ता को उसका प्रतिनिधि नियुक्त किया।
इस प्रकार, याचिका स्वीकार कर ली गई।

