सिविल जज को धारा 92 सीपीसी या धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम, 1863 की धारा 2 के तहत दायर मुकदमे पर विचार करने का कोई अधिकार नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

1 Oct 2024 3:47 PM IST

  • सिविल जज को धारा 92 सीपीसी या धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम, 1863 की धारा 2 के तहत दायर मुकदमे पर विचार करने का कोई अधिकार नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि सिविल न्यायाधीश को धारा 92, सी.पी.सी. या धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम, 1863 के तहत दायर मुकदमे पर विचार करने का अधिकार नहीं है।

    जस्टिस सुभाष विद्यार्थी ने कहा कि,

    “उत्तर प्रदेश राज्य में धारा 92 सीपीसी और धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम, 1863 की धारा 2 के तहत मुकदमा केवल मूल अधिकार क्षेत्र वाले प्रधान सिविल न्यायालय यानी जिला न्यायाधीश के न्यायालय में ही दायर किया जा सकता है, किसी अन्य न्यायालय में नहीं। जिला न्यायाधीश स्वयं मुकदमे का फैसला कर सकते हैं या वे इसे अतिरिक्त जिला न्यायाधीश को हस्तांतरित कर सकते हैं।”

    धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम, 1863 की धारा 2 में सिविल न्यायालय को "उस जिले में मूल सिविल अधिकार क्षेत्र का प्रमुख न्यायालय या राज्य सरकार द्वारा उस अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर सशक्त कोई अन्य न्यायालय जिसके अंतर्गत मस्जिद, मंदिर या धार्मिक प्रतिष्ठान स्थित है" के रूप में परिभाषित किया गया है।

    पृष्ठभूमि

    याचिकाकर्ताओं ने सीपीसी की धारा 91 और 92 के तहत सिविल जज (वरिष्ठ प्रभाग) के समक्ष घोषणा और शाश्वत निषेधाज्ञा के लिए मुकदमा दायर किया था। याचिकाकर्ताओं ने ग्यारह सदस्यीय समिति के गठन और श्री राम जानकी मंदिर के लिए प्रबंधक के रूप में नियुक्ति की प्रार्थना की थी।

    ट्रायल कोर्ट ने मुकदमे को गैर-सहायक बताते हुए खारिज कर दिया। इसने आगे कहा कि याचिकाकर्ता ने कोई ट्रस्ट डीड दाखिल नहीं की और वाद में ट्रस्ट के ट्रस्टियों या प्रबंधक की पहचान का खुलासा नहीं किया गया। इसके अतिरिक्त, यह भी कहा गया कि ट्रस्ट के कोई उपनियम/नियम दाखिल नहीं किए गए थे और विवादित संपत्ति द्वारा प्रशासित किसी भी सार्वजनिक धर्मार्थ संस्था से संबंधित कोई दलील मौजूद नहीं थी।

    फैसला

    कोर्ट ने देखा कि सी.पी.सी. की धारा 92(1) और (2) का धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम, 1863 की धारा 2, 14, 15 और 18 के साथ संयुक्त पठन स्पष्ट रूप से दिखाता कि धर्मार्थ या धार्मिक प्रकृति के सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए बनाए गए किसी भी स्पष्ट या रचनात्मक ट्रस्ट के कथित उल्लंघन के मामले में धारा 92 सीपीसी के तहत मुकदमा दायर किया जा सकता है।

    कोर्ट ने जानकी प्रसाद बनाम कुबेर सिंह का हवाला दिया, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि लिखित दस्तावेज या प्रविष्टियों की अनुपस्थिति ट्रस्ट के अस्तित्व में न होने का निर्णायक सबूत नहीं है। यह माना गया कि एक ट्रस्ट मौखिक रूप से भी बनाया जा सकता है, जिसमें दान की गई संपत्ति का उपयोग धर्मार्थ और धार्मिक उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है जिसके लिए ट्रस्ट बनाया गया था।

    कोर्ट ने माना कि ट्रायल कोर्ट ने प्रवेश के चरण में मुकदमा खारिज करके स्पष्ट रूप से अवैधता की है क्योंकि ट्रस्ट डीड दायर नहीं की गई थी। यह माना गया कि ट्रस्टियों या ट्रस्ट मैनेजर का खुलासा न करना, कोई उप-नियम दायर न किया जाना, और वादी द्वारा मांगी गई राहत सी.पी.सी. की धारा 91 और 91 के अंतर्गत न आना, मुकदमे को खारिज करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं थे।

    इसके अलावा, न्यायालय ने पाया कि सिविल जज द्वारा मुकदमे को स्वीकार नहीं किया जा सकता था, क्योंकि उपर्युक्त धाराओं में कहा गया है कि ऐसे मुकदमे को मूल अधिकार क्षेत्र के प्रधान सिविल न्यायालय या राज्य सरकार द्वारा अधिकृत किसी अन्य न्यायालय में दायर किया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि इस वाक्यांश में सिविल जज शामिल नहीं है।

    'मूल अधिकार क्षेत्र के प्रधान सिविल न्यायालय' वाक्यांश का अर्थ जानने के लिए न्यायालय ने सामान्य खंड अधिनियम की धारा 3(17), सी.पी.सी. की धारा 2(4) और बंगाल, आगरा एवं असम सिविल न्यायालय अधिनियम, 1887 की धारा 3 एवं 18 का संदर्भ दिया।

    न्यायालय ने मुहम्मद अली खान बनाम अहमद अली खान मामले पर भरोसा किया, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ ने माना कि मूल अधिकार क्षेत्र के प्रधान सिविल न्यायालय के रूप में जिला न्यायाधीश को आवेदन पर मुतवल्ली को नामित करने का अधिकार है।

    कोर्ट ने कहा, विनोद कुमार बनाम डीएम, मऊ में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि प्रधान सिविल न्यायालय का अर्थ जिला न्यायाधीश का न्यायालय है। गंगादीन बनाम कन्हैया लाल मामले में, जिसे अशोक कुमार जैन बनाम गौरव जैन में दोहराया गया, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि सी.पी.सी. की धारा 92 और 1863 अधिनियम की धारा 2 में वर्णित मूल अधिकार क्षेत्र के प्रधान सिविल न्यायालय का अर्थ जिला न्यायाधीश और अतिरिक्त जिला न्यायाधीश होगा।

    यह माना गया कि धारा 92 सीपीसी और 1863 अधिनियम की धारा 2 के तहत मुकदमा जिला न्यायाधीश की अदालत में न्यायालय की अनुमति लेने के बाद ही दायर किया जा सकता है।

    सीता राम दास और अन्य बनाम राम चंद्र अरोड़ा और अन्य में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि जिला न्यायाधीश को केवल यह देखना है कि अनुमति देते समय प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं।

    तदनुसार, याचिका स्वीकार कर ली गई। साथ ही सिविल जज के आदेश को रद्द कर दिया गया, और याचिकाकर्ता को मूल अधिकार क्षेत्र के प्रमुख सिविल न्यायालय, यानि जिला न्यायाधीश के न्यायालय के समक्ष नया मुकदमा दायर करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई।

    केस टाइटल: ज्यांत्री प्रसाद एवं 9 अन्य बनाम श्री राम जानकी लक्ष्मण जी विराजमान मंदिर, प्रतापगढ़, राम शिरोमणि पांडे के माध्यम से और 2 अन्य [अनुच्छेद 227 संख्या - 4294/2024 के अंतर्गत मामले]

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