"जाति महिमा मंडन 'राष्ट्रविरोधी', संविधान का सम्मान ही 'सच्ची देशभक्ति': इलाहाबाद हाईकोर्ट ने FIR व सार्वजनिक स्थलों से जाति संदर्भ हटाने का दिया निर्देश"
Praveen Mishra
20 Sept 2025 11:03 AM IST

हाल ही के एक महत्वपूर्ण निर्णय में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने समाज में जाति महिमा मंडन की प्रवृत्ति पर कड़ी आपत्ति जताई और उत्तर प्रदेश सरकार को व्यापक निर्देश दिए कि एफआईआर, पुलिस दस्तावेज़, सार्वजनिक रिकॉर्ड, मोटर वाहनों और सार्वजनिक बोर्ड से जाति संदर्भ हटाए जाएं।
जस्टिस विनोद दिवाकर की पीठ ने कहा कि ऐसा जाति महिमा मंडन "राष्ट्रविरोधी" है और संविधान के प्रति श्रद्धा ही "सच्ची देशभक्ति" और "राष्ट्र सेवा का सर्वोच्च रूप" है।
महत्वपूर्ण रूप से, एकल न्यायाधीश ने कहा कि यदि भारत को 2047 तक वास्तव में विकसित राष्ट्र बनना है तो समाज से गहराई तक जड़ें जमा चुकी जाति प्रथा का उन्मूलन आवश्यक है।
अदालत ने कहा,"यह लक्ष्य सरकार के सभी स्तरों से निरंतर और बहुस्तरीय प्रयासों की मांग करता है—प्रगतिशील नीतियों, मजबूत भेदभाव-रोधी कानूनों और परिवर्तनकारी सामाजिक कार्यक्रमों के माध्यम से।"
अदालत ने यह भी नोट किया कि जाति व्यवस्था और उसके सामाजिक प्रभाव को समाप्त करने के लिए कोई व्यापक कानून नहीं है।
FIR और पुलिस रिकॉर्ड में जाति दर्ज करने पर आपत्ति
अदालत ने FIR, रिकवरी मेमो और जांच दस्तावेज़ों में जाति दर्ज करने की प्रथा पर सख्त टिप्पणी की और कहा कि यह "संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन" है।
अदालत धारा 482 CrPC याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें आरोपी की जाति FIR और जब्ती मेमो में लिखी गई थी। इस पर कड़ा रुख अपनाते हुए अदालत ने चेतावनी दी—
"आरोपी की जाति लिखना या घोषित करना—जब इसका कोई कानूनी महत्व न हो—तो यह पहचान-आधारित प्रोफाइलिंग है, न कि निष्पक्ष जांच। यह पूर्वाग्रह को बढ़ावा देता है, जनमत को भ्रष्ट करता है, न्यायिक सोच को दूषित करता है, मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और संवैधानिक नैतिकता को कमजोर करता है।"
DGP की दलील खारिज
अदालत ने उल्लेख किया कि इससे पहले उसने DGP से इस प्रथा का औचित्य पूछा था। DGP ने इसे पहचान भ्रम से बचने का साधन बताते हुए सरकारी प्रारूपों का हवाला दिया। लेकिन अदालत ने इसे "कानूनी भ्रांति" कहा और कहा कि जब आधार, फिंगरप्रिंट, मोबाइल नंबर और माता-पिता के विवरण जैसे आधुनिक साधन उपलब्ध हैं तो यह तर्क अप्रासंगिक है।
जस्टिस दिवाकर ने DGP की दलील पर टिप्पणी करते हुए कहा कि संवेदनशीलता दिखाने की बजाय DGP "आइवरी-टॉवर पुलिसमैन" की तरह व्यवहार कर रहे थे, जो संवैधानिक नैतिकता से अलग हैं और अंततः "सिर्फ वर्दी में नौकरशाह" बनकर सेवानिवृत्त हुए।
अदालत के प्रमुख निर्देश (UP सरकार को):
• FIRs, रिकवरी मेमो, गिरफ्तारी और सरेंडर मेमो, पुलिस अंतिम रिपोर्ट और थानों के नोटिस बोर्ड से जाति कॉलम हटाएं।
• पिता/पति के नाम के साथ पहचान के लिए माता का नाम जोड़ें।
• मोटर वाहन नियमों में संशोधन कर निजी और सार्वजनिक वाहनों से जाति पहचान और नारे हटाएं।
• गांवों, कस्बों या कॉलोनियों को जातिगत क्षेत्र घोषित करने वाले बोर्ड हटाएं।
• सोशल मीडिया पर जाति महिमा मंडन वाली सामग्री के खिलाफ IT Rules, 2021 के तहत कार्रवाई करें और इसके लिए निगरानी व रिपोर्टिंग तंत्र बनाएं।
संवैधानिक मूल्यों पर टिप्पणी
डॉ. भीमराव अंबेडकर के कथन—"जातियां राष्ट्रविरोधी हैं क्योंकि वे जातियों के बीच ईर्ष्या और द्वेष पैदा करती हैं"—का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि नागरिक का गर्व जाति में नहीं बल्कि चरित्र में होना चाहिए, और विरासत में नहीं बल्कि समानता व बंधुत्व में होना चाहिए।
अदालत ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने जिसे कब्र में डाल दिया था, वह जाति व्यवस्था फिर से "अपना कुरूप सिर उठाने" की कोशिश कर रही है और यह "धर्मनिरपेक्षता व राष्ट्रीय एकता के लिए गंभीर खतरा" है।
पीठ ने कहा कि जातिविहीन समाज बनाना संविधान का अंतिम लक्ष्य है और चेतावनी दी—
"जो इतिहास से सबक नहीं सीखते, वे फिर से पीड़ित होने को अभिशप्त होते हैं। इसलिए भारत के लोगों के लिए आवश्यक है कि वे संविधान का अक्षरश: और भावनात्मक रूप से पालन करें।"
सोशल मीडिया और जाति महिमा मंडन
अदालत ने कहा कि गाड़ियों, बोर्डों और सामाजिक स्थानों में जाति महिमा मंडन "सामाजिक शक्ति की सांकेतिक अभिव्यक्ति" है, जो भारत के संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है और "राष्ट्रविरोधी" है।
इंस्टाग्राम, यूट्यूब शॉर्ट्स और फेसबुक रील्स जैसे डिजिटल प्लेटफार्मों का जिक्र करते हुए अदालत ने कहा कि ये युवा जातिगत व्यक्तियों को प्रदर्शन का मंच दे रहे हैं। अदालत ने कहा—
"ये रीलें अक्सर जाति आक्रामकता और वर्चस्व, ग्रामीण मर्दानगी और प्रतिगामी ऑनर कोड का रोमानीकरण करती हैं।"
अदालत ने यह भी कहा कि सोशल मीडिया "हाइपर-मर्दानगी, ऐतिहासिक पुनर्लेखन और जाति आधारित डिजिटल पहचान" का गढ़ बन चुका है, जो "आधुनिक असुरक्षा और परंपरा के हथियारबंद रूप" का उदाहरण है।
जन-जागरूकता पर जोर
अदालत ने अफसोस जताया कि जातिगत पूर्वाग्रह के खिलाफ कोई राष्ट्रव्यापी अभियान नहीं है, जैसा स्वच्छता या लैंगिक समानता पर चलाया गया।
पीठ ने कहा—"कानून अकेले दिल और दिमाग नहीं बदल सकता।" और सरकार से शिक्षा व जागरूकता कार्यक्रम शुरू करने का आग्रह किया, जो स्कूलों से लेकर अधिकारियों, सामुदायिक केंद्रों और मीडिया प्लेटफार्मों तक फैले हों।
संवैधानिक नैतिकता पर अंतिम टिप्पणी
अदालत ने कहा कि उसका उद्देश्य संवैधानिक नैतिकता का आह्वान करना और उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के विवेक में करुणा व न्याय की भावना जगाना है।
पीठ ने कहा कि राष्ट्र की गरिमा वंश या जातिगत पहचान से नहीं, बल्कि संवैधानिक नैतिकता और राष्ट्रीय चरित्र निर्माण से आती है।
"वंश या सामाजिक पहचान पर गर्व संविधान में निहित समानता, न्याय और बंधुत्व का विकल्प नहीं हो सकता। सच्चा सम्मान और सच्ची सेवा इन्हीं सिद्धांतों का पालन करने में है। संविधान के प्रति श्रद्धा ही सर्वोच्च देशभक्ति है और राष्ट्र सेवा का सच्चा रूप है।"
याचिका का निपटारा
जहाँ तक याचिकाकर्ता की शराब तस्करी से संबंधित आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग थी, अदालत ने उसमें प्रथम दृष्टया मामला पाया और आवेदन खारिज कर दिया।

