'सामाजिक दबाव में स्वतंत्रता पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता': इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अंतरधार्मिक जोड़े को रिहा किया
Shahadat
18 Oct 2025 9:08 PM IST

पुलिस द्वारा अंतरधार्मिक जोड़े को हिरासत में लिए जाने को 'अवैध' और "संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन" बताते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक अंतरधार्मिक जोड़े (मुस्लिम पुरुष और हिंदू महिला) को रिहा कर दिया, जो इस सप्ताह की शुरुआत में अदालती सुनवाई में शामिल होने के बाद लापता हो गए थे और पुलिस द्वारा हिरासत में लिए गए थे।
जस्टिस सलिल कुमार राय और जस्टिस दिवेश चंद्र सामंत की खंडपीठ ने अधिकारियों को अलीगढ़ तक सुरक्षित पहुँच सुनिश्चित करने और जोड़े की निरंतर सुरक्षा सुनिश्चित करने का निर्देश दिया। बता दें, उक्त खंडपीठ ने ने व्यक्ति के भाई द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनवाई के लिए एक गैर-कार्य दिवस पर विशेष बैठक बुलाई थी।
अदालत ने अलीगढ़ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) को घटना की जाँच करने और 28 नवंबर, 2025 तक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। अदालत ने उस तिथि पर उनकी व्यक्तिगत उपस्थिति का भी अनुरोध किया।
दंपत्ति को हाईकोर्ट में पेश किया गया
संक्षेप में मामला
शुक्रवार को अदालत ने इस मामले को 'अति आवश्यक' माना, क्योंकि यह आरोप लगाया गया कि दंपत्ति उच्च न्यायालय में सुनवाई के बाद गायब हो गए और पुलिस को उन्हें आज पीठ के समक्ष पेश करने का निर्देश दिया।
अदालत के आदेश के अनुपालन में अलीगढ़ पुलिस के उप-निरीक्षक ने याचिकाकर्ता नंबर 2 (शाने अली) और उसकी हिंदू साथी प्रतिवादी नंबर 6 की बेटी दोनों को शनिवार को अदालत में पेश किया।
सरकारी वकील ने खंडपीठ को सूचित किया कि लड़की को 17 अक्टूबर को अलीगढ़ के न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया, जहां उसकी उम्र की पुष्टि की गई और वह बालिग पाई गई।
खंडपीठ को यह भी बताया गया कि मजिस्ट्रेट ने उसका स्वैच्छिक बयान दर्ज किया, जिसमें उसने स्पष्ट रूप से कहा कि वह याचिकाकर्ता (शाने आलम) के साथ जाना चाहती है, जिसके परिणामस्वरूप उसे रिहा कर दिया गया। मजिस्ट्रेट के आदेश, जिसमें उसे रिहा किया गया, उसको उच्च न्यायालय के समक्ष रखा गया और रिकॉर्ड में दर्ज किया गया।
बंद कमरे में हुई बातचीत के दौरान, खंडपीठ ने सीधे जोड़े से बात की, जहां लड़की ने बताया कि वह 21 साल की है, उसने शाने अली से शादी की और अब उसके साथ रहना चाहती है।
उसने यह भी कहा कि न्यायिक मजिस्ट्रेट और हाईकोर्ट के समक्ष दिए गए उसके पहले के बयान बिना किसी दबाव के दिए गए और उसे कभी भी शादी के लिए मजबूर नहीं किया गया।
इस प्रकार, यह देखते हुए कि विवाह की वैधता बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के निर्णय के लिए 'प्रासंगिक' नहीं है, खंडपीठ ने कहा कि बालिग होने के नाते, वह जिसके साथ चाहे जा सकती है।
इसके अलावा, जोड़े ने हाईकोर्ट के समक्ष दावा किया कि 15 अक्टूबर, 2025 को हाईकोर्ट परिसर से निकलने के बाद लड़की के पिता और उनके साथ आए कुछ लोगों ने पुलिस की सहायता से उनका अपहरण कर लिया और उन्हें अलीगढ़ ले जाया गया।
उनके बयान के अनुसार, लड़की को 'वन स्टॉप सेंटर' भेज दिया गया, जबकि पुरुष को पुलिस स्टेशन में हिरासत में रखा गया। अंततः उन्हें 17 अक्टूबर को दोपहर लगभग 3:00 बजे न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया, जिन्होंने लड़की को रिहा करने का आदेश दिया और अंततः उसे हाईकोर्ट के समक्ष पेश किया गया।
हाईकोर्ट की टिप्पणियां
केस डायरी की जांच करते हुए अदालत ने पाया कि लड़की ने BNSS की धारा 183 के तहत अपने बयान में स्पष्ट रूप से कहा कि वह याचिकाकर्ता के साथ स्वेच्छा से गई थी और उसके साथ रहना चाहती है।
इसके बावजूद, खंडपीठ ने आगे कहा कि जांच अधिकारी जोड़े के धार्मिक मतभेदों और ज़िला मजिस्ट्रेट को उनके विवाह के बारे में सूचित न करने की कथित विफलता की जांच जारी रखे हुए हैं।
अदालत ने कहा,
"ऐसी किसी जांच की आवश्यकता नहीं थी"।
साथ ही यह भी कहा कि न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा लड़की को रिहा करने के बाद पुलिस की भूमिका केवल उसे उसके चुने हुए गंतव्य तक सुरक्षित पहुंचाना था।
अदालत द्वारा यह पूछे जाने पर कि जोड़े को 15 अक्टूबर के बाद क्यों हिरासत में रखा गया, सरकारी वकील ने कहा कि पुलिस ने अंतर-धार्मिक विवाह के कारण क्षेत्र में 'सामाजिक तनाव' के कारण कार्रवाई की, और यह हिरासत और निरंतर जाँच दोनों को उचित ठहराता है।
इस औचित्य को खारिज करते हुए खंडपीठ ने कहा:
"यह तर्क कि लड़की को 'वन स्टॉप सेंटर' में रखा जाना था और याचिकाकर्ता नंबर 2 को दोनों पक्षों के अलग-अलग धर्मों के कारण क्षेत्र में सामाजिक तनाव के कारण पुलिस स्टेशन में हिरासत में रखा गया, स्वीकार्य नहीं है। हिरासत को उचित नहीं ठहराया जा सकता... किसी व्यक्ति को पुलिस या अन्य राज्य प्राधिकारियों द्वारा केवल कानून के तहत ही हिरासत में लिया जा सकता है।"
खंडपीठ ने आगे कहा कि पुलिस द्वारा दोनों पक्षकारों की हिरासत अवैध थी और यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत लड़की और याचिकाकर्ता नंबर 2 के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
कड़े शब्दों में अदालत ने कहा:
"सामाजिक दबाव में लेकिन कानून के अधिकार के बिना हिरासत को वैध नहीं बनाता, बल्कि हिरासत की अवैधता को और बढ़ाता है। कानून के शासन द्वारा शासित लोकतांत्रिक देश में राज्य सरकार और उसके कानून-प्रवर्तन तंत्र से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी शक्ति का उपयोग नागरिक की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए करें और सामाजिक दबावों के आगे न झुकें।"
इस प्रकार, 15 अक्टूबर से सुनवाई के समय तक हिरासत को 'अवैध' घोषित करते हुए अदालत ने उन्हें रिहा कर दिया। इसमें यह भी कहा गया कि जो अधिकारी दंपत्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने में अपने कर्तव्य का पालन करने में विफल रहे, उनके विरुद्ध विभागीय कार्रवाई की जा सकती है।
सुनवाई पूरी करने से पहले खंडपीठ ने जांच अधिकारी को दंपत्ति को उनके इच्छित गंतव्य तक पहुंचाने का आदेश दिया। साथ ही प्रयागराज के पुलिस आयुक्त और अलीगढ़ तथा बरेली के सीनियर पुलिस अधीक्षकों को उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने और उनके साथ में किसी भी तरह के हस्तक्षेप को रोकने का निर्देश दिया।
अलीगढ़ के सीनियर पुलिस अधीक्षक को भी घटना की जांच कर एक महीने के भीतर रिपोर्ट देने को कहा गया।

