गैर-जमानती अपराध से जुड़े शिकायत मामले में केवल समन जारी होने पर अग्रिम ज़मानत याचिका स्वीकार नहीं की जा सकती: इलाहाबाद हाईकोर्ट
Shahadat
4 Aug 2025 10:13 AM IST

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) के तहत अग्रिम ज़मानत के दायरे को स्पष्ट करते हुए कहा कि गैर-ज़मानती अपराध के आरोप से जुड़े किसी शिकायत मामले में केवल समन जारी होने पर अग्रिम ज़मानत याचिका स्वीकार नहीं की जा सकती, क्योंकि ऐसे मामले में पुलिस द्वारा बिना वारंट के गिरफ़्तारी की कोई आशंका नहीं होती।
जस्टिस अरुण कुमार सिंह देशवाल की पीठ ने कहा,
"...जब ज़मानती वारंट जारी किया जाता है तो हालांकि अभियुक्त को ज़मानती वारंट के अनुसरण में गिरफ़्तारी का डर हो सकता है, लेकिन उसे ज़मानत देने की तत्परता पर रिहा कर दिया जाएगा। इसलिए ऐसे मामलों में भी अग्रिम ज़मानत स्वीकार नहीं की जा सकती क्योंकि गिरफ़्तारी और नज़रबंदी की कोई आशंका नहीं होती।"
न्यायालय के समक्ष प्रश्न
अदालत आशीष कुमार द्वारा दायर अग्रिम ज़मानत याचिका पर विचार कर रही थी, जिन्होंने एक शिकायत मामले में सम्मन जारी होने के बाद हाईकोर्ट का रुख किया था।
हालांकि, उन्हें 18 जून, 2025 को अंतरिम ज़मानत पर रिहा कर दिया गया, लेकिन पीठ ने इस पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया कि क्या शिकायत मामले में जहां आरोप एक गैर-ज़मानती अपराध से संबंधित है, केवल सम्मन जारी होने पर अग्रिम ज़मानत स्वीकार्य है।
इस मामले में, एडिशनल एडवोकेट जनरल ने प्रारंभिक आपत्ति दर्ज करते हुए कहा कि अग्रिम ज़मानत याचिका स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि यह केवल एक शिकायत मामले में सम्मन जारी होने के आधार पर दायर की गई थी।
उन्होंने तर्क दिया कि सम्मन जारी होने पर आवेदक के पास यह मानने का कोई 'कारण' नहीं है कि उसे तब तक गिरफ्तार किया जा सकता है, जब तक कि गैर-ज़मानती वारंट जारी न किया जाए। उन्होंने तर्क दिया कि अदालत की हिरासत को पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के बराबर नहीं माना जा सकता।
इस विशेष तर्क का आवेदक के वकील ने विरोध किया, जिन्होंने तर्क दिया कि चूंकि शिकायत में गैर-जमानती अपराध का आरोप लगाया गया, इसलिए आवेदक को उचित आशंका है कि अदालत में पेश होने पर उसे हिरासत में लिया जा सकता है, जो 'गिरफ्तारी की आशंका' के अंतर्गत भी आएगा।
हाईकोर्ट की टिप्पणियां:
आरंभ में न्यायालय ने BNSS की धारा 482 के तहत अग्रिम जमानत के दायरे का सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया और कहा कि इस प्रावधान के तीन मुख्य तत्व हैं:
(क) यह मानने का कारण कि किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है।
(ख) गैर-जमानती अपराध करने के आरोप पर,
(ग) ऐसे आरोप पर पुलिस अधिकारी द्वारा बिना वारंट के गिरफ्तार किए जाने पर, उसे जमानत देने के लिए तैयार होने पर रिहा कर दिया जाएगा।
अब गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य, 1980 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले का हवाला देते हुए न्यायालय ने दोहराया कि 'मात्र भय' 'विश्वास करने का कारण' नहीं है। यह विश्वास 'उचित आधार पर आधारित' होना चाहिए और 'न्यायालय द्वारा निष्पक्ष रूप से जांचे जाने योग्य होना चाहिए'।
उल्लेखनीय रूप से, न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि 'गिरफ्तारी' और 'हिरासत' दो अलग-अलग चीजें हैं। इसने कहा कि BNSS की धारा 482 में प्रयुक्त 'गिरफ्तारी' शब्द की तुलना 'हिरासत' शब्द से नहीं की जा सकती, जिसे पुलिस गिरफ्तारी के बाद लेती है या न्यायालय किसी अभियुक्त के आत्मसमर्पण करने या उसे अपने समक्ष पेश करने पर ले सकता है।
भारतीय विधि आयोग की 41वीं रिपोर्ट का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि अग्रिम जमानत का प्रावधान लागू करने का उद्देश्य "पुलिस द्वारा मनमानी गिरफ्तारी से सुरक्षा" प्रदान करना है।
इस प्रकार, पीठ ने यह मत व्यक्त किया कि यदि किसी सम्मन के प्रत्युत्तर में उपस्थित होने पर न्यायालय द्वारा हिरासत ली जाती है तो इसे पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के समान नहीं माना जा सकता। इसलिए ऐसे मामले में अग्रिम जमानत लागू नहीं होती।
न्यायालय ने कहा,
"BNSS की धारा 482 (CrPC की 438) के तहत अग्रिम जमानत का उद्देश्य पुलिस या अन्य अभियोजन एजेंसी द्वारा बिना वारंट के अवांछित और मनमानी गिरफ्तारी से सुरक्षा प्रदान करना है, न कि उस हिरासत के विरुद्ध जो गैर-जमानती अपराध करने के आरोप में संबंधित न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने पर न्यायालय द्वारा ली जा सकती थी।"
इसके बाद न्यायालय ने इस प्रश्न की जांच की: यदि गैर-जमानती अपराध करने के आरोप में दायर किसी शिकायत मामले में न्यायालय अभियुक्त की उपस्थिति के लिए उसके विरुद्ध गिरफ्तारी वारंट या उद्घोषणा जारी करता है तो क्या उस स्थिति में अग्रिम जमानत स्वीकार्य होगी, भले ही अभियुक्त को गिरफ्तारी की आशंका हो?
इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए खंडपीठ ने श्रीकांत उपाध्याय बनाम बिहार राज्य, लाइव लॉ (SC) 232 में सुप्रीम कोर्ट के 2024 के निर्णय का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया कि जहां गिरफ्तारी का वारंट या उद्घोषणा जारी की जाती है, वहां आवेदक अग्रिम ज़मानत के असाधारण उपाय का सहारा लेने का हकदार नहीं है।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि 'असाधारण' परिस्थितियों में न्यायालय गैर-ज़मानती वारंट या उद्घोषणा जारी होने पर भी अग्रिम ज़मानत दे सकता है।
इस पृष्ठभूमि में हाईकोर्ट ने इस प्रकार टिप्पणी की:
"इसलिए यदि कोई न्यायालय किसी शिकायत मामले में समन या ज़मानती वारंट जारी करता है तो यह नहीं माना जा सकता कि उस व्यक्ति को पुलिस या अभियोजन एजेंसियों द्वारा गिरफ्तार किए जाने की उचित आशंका है, भले ही शिकायत में गैर-ज़मानती अपराध करने का आरोप हो।"
इस प्रकार, हाईकोर्ट ने तीन विशिष्ट निष्कर्ष निकाले:
1. गैर-जमानती अपराध के आरोप से संबंधित शिकायत मामले में समन जारी होने पर अग्रिम ज़मानत मान्य नहीं होती, क्योंकि बिना वारंट के पुलिस द्वारा गिरफ़्तारी की कोई आशंका नहीं होती।
2. उपर्युक्त शिकायत मामले में जब ज़मानती वारंट जारी किया जाता है तो हालांकि अभियुक्त को ज़मानती वारंट के अनुसरण में गिरफ़्तारी का डर हो सकता है, लेकिन उसे ज़मानत देने की तत्परता पर ज़मानत पर रिहा कर दिया जाएगा। इसलिए ऐसे मामलों में भी अग्रिम ज़मानत मान्य नहीं होती, क्योंकि गिरफ़्तारी और नज़रबंदी की कोई आशंका नहीं होती।
3. उपर्युक्त शिकायत मामले में जारी गैर-ज़मानती वारंट या उद्घोषणा की स्थिति में, अग्रिम ज़मानत आमतौर पर मान्य नहीं होती। हालाँकि, श्रीकांत उपाध्याय (सुप्रा) मामले के फ़ैसले के मद्देनज़र, न्यायालय न्याय के हित में असाधारण परिस्थितियों में गिरफ़्तारी-पूर्व ज़मानत दे सकता है।
इस पृष्ठभूमि में न्यायालय ने वर्तमान मामले के तथ्यों की जांच की और पाया कि चूंकि आज तक कोई भी वारंट, चाहे वह ज़मानती हो या गैर-ज़मानती, जारी नहीं किया गया, इसलिए आवेदक के विरुद्ध केवल समन जारी करने से पुलिस द्वारा गिरफ़्तारी की आशंका नहीं मानी जाएगी।
तदनुसार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उसकी अग्रिम ज़मानत स्वीकार्य नहीं होगी।
हालांकि, न्यायालय ने आवेदक को 15 दिनों के भीतर नियमित ज़मानत याचिका दायर करने की स्वतंत्रता प्रदान की, जिस पर निचली अदालत कानून के अनुसार विचार करेगी।
Case title - Asheesh Kumar vs. State of U.P. and Another 2025 LiveLaw (AB) 293

