अनुशासनात्मक कार्यवाही में अनियमितताओं के आरोपों को साक्ष्य के साथ प्रमाणित किया जाना चाहिए: इलाहाबाद हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

7 May 2024 10:25 AM GMT

  • अनुशासनात्मक कार्यवाही में अनियमितताओं के आरोपों को साक्ष्य के साथ प्रमाणित किया जाना चाहिए: इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि याचिकाकर्ता अनुशासनात्मक प्रक्रिया के दरमियान केवल अनियमितता का आरोप लगाकर, यह दिखाने की जिम्मेदारी से नहीं बच सकता कि उसके साथ पक्षपात हुआ है। न्यायालय ने माना कि अनुशासनात्मक कार्यवाही को केवल दोषी कर्मचारी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका या संभावना के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है। हाईकोर्ट ने ये टिप्पण‌ियां 1998 से लंबित एक रिट पीटिशन पर सुनवाई करते हुए की।

    न्यायालय ने माना कि इस प्रकार की याचिकाओं पर विचार करने का उसका क्षेत्राधिकार सीमित है। उन्होंने बी.सी. चतुर्वेदी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य पर भरोसा किया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा था, “न्यायिक पुनर्विचार किसी निर्णय के खिलाफ अपील नहीं है, बल्कि निर्णय लेने के तरीके पर पुनर्विचार है। न्यायिक पुनर्विचार की शक्ति यह सुनिश्चित करने के लिए है कि व्यक्ति को उचित उपचार मिले, न कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्राधिकारी जिस निष्कर्ष पर पहुंचता है वह न्यायालय की नजर में आवश्यक रूप से सही है।''

    कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता ने जांच या अपीलया उसकी ओर से किए गए वैधानिक संशोधन के दरमियान प्रक्रियात्मक अनियमितता के संबंध में कोई आपत्ति नहीं उठाई थी। याचिका दायर करने के लगभग 22-23 साल बाद संशोधन के माध्यम से ही इस आधार पर विचार किया गया। न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्ता ने जांच कार्यवाही में भाग लिया था और लगभग सात विभागीय गवाहों से जिरह भी की थी और उक्त कार्यवाही के दौरान पक्षपात की कोई रिपोर्ट नहीं थी।

    न्यायालय ने भारतीय स्टेट बैंक बनाम राम दास पर भरोसा किया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने यह माना, “यह कानून का एक स्थापित दृष्टिकोण है कि जहां एक पक्ष मध्यस्थ के अधिकार क्षेत्र में दोष, पूर्वाग्रह या द्वेष के बारे में जानकारी होने के बावजूद किसी भी प्रकार की आपत्ति के बिना कार्यवाही में भाग लेता है वहां वह अपने आचरण से खुद को बाद की कार्यवाही इस तरह के प्रश्न उठाने से वंचित कर देता है।"

    कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता के मामले में जांच अधिकारी की नियुक्ति 1969 के नियमों के अनुसार थी और याचिकाकर्ता ने कार्यवाही के दौरान उनकी नियुक्ति पर कोई आपत्ति नहीं जताई थी। कोर्ट ने आगे हरियाणा वित्तीय निगम बनाम कैलाश चंद्र आहूजा पर भरोसा किया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने माना कि दोषी कर्मचारी को रिपोर्ट की आपूर्ति न करने से वास्तव में कार्यवाही शून्य जाती है और सजा गैर-स्थायी और अप्रभावी हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यह साबित करने का भार दोषी कर्मचारी पर ही था कि ऐसी रिपोर्ट न देने से अन्याय होगा।

    अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता को उत्तरदाताओं द्वारा प्रस्तुत जवाबी हलफनामे के अनुसार सभी रिकॉर्ड उपलब्ध कराए गए थे और उन्हें निरीक्षण की अनुमति दी गई थी। इसे याचिकाकर्ता ने 21.08.1996 को जवाबी हलफनामा प्राप्त करके स्वीकार किया था।

    न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्ता एक अनुशासित सशस्त्र बल का सदस्य था और उसने ऐसे तरीके से कार्य किया जिसकी ऐसे कैडर के सदस्य से अपेक्षा नहीं की जाती थी। न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्ता को उसके आचरण के मद्देनजर सार्वजनिक सेवा में बने रहने देना सार्वजनिक हित के खिलाफ होगा। यह पाए जाने पर कि याचिकाकर्ता चुनौती के तहत आदेश में किसी भी अवैधता, विकृति या अस्पष्टता को इंगित करने में विफल रहा है, कोर्ट ने रिट याचिका खारिज कर दी।

    केस टाइटल: मोहम्‍मद असगर अली बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, होम सेक्रेटरी के माध्यम से और अन्य [रिट - ए नंबर- ​​4562/1998]

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