इलाहाबाद हाईकोर्ट: केवल धारा 313 CrPC के बयान के आधार पर दोषसिद्धि अवैध, 24 साल बाद डकैती के आरोपी को बरी किया
Praveen Mishra
23 Dec 2025 9:42 PM IST

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में डकैती के एक मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे व्यक्ति की दोषसिद्धि को रद्द करते हुए अहम टिप्पणी की कि केवल धारा 313 CrPC के अंतर्गत दिए गए कथित स्वीकारोक्ति/बयान के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, खासकर तब जब अभियोजन पक्ष कोई भी पुष्टिकरण या आपराधिक साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रहा हो।
यह फैसला जस्टिस जे.जे. मुनीर और जस्टिस संजीव कुमार की खंडपीठ ने दिया। अदालत ने मामले के “दुखद पहलू” पर जोर देते हुए कहा कि अपीलकर्ता आजाद खान लगभग 24 वर्षों तक जेल में बंद रहा, जबकि उसके खिलाफ कोई ठोस साक्ष्य मौजूद नहीं था। अदालत के अनुसार, धारा 313 CrPC के तहत उसका कथित स्वीकार जीवन के भय से प्रेरित प्रतीत होता है, न कि किसी स्वेच्छिक स्वीकारोक्ति से।
मामला की पृष्ठभूमि:
फरवरी 2002 में, मैनपुरी के विशेष न्यायाधीश/अपर सत्र न्यायाधीश ने आजाद खान को धारा 395 (डकैती) और धारा 397 IPC (डकैती/लूट के दौरान जानलेवा प्रयास) के तहत दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा दी थी। अभियोजन का आरोप था कि वर्ष 2000 में आजाद खान 10–15 लोगों के साथ शिकायतकर्ता के घर में घुसा, परिवारजनों पर हमला किया, नकदी व आभूषण लूटे और फायरिंग में तीन लोग घायल हुए।
ट्रायल के दौरान, आजाद खान द्वारा कथित स्वीकार आवेदन दिए जाने के बाद उसका मामला सह-आरोपियों से अलग कर दिया गया। ट्रायल कोर्ट ने यह मानते हुए कि अभियुक्त ने धारा 313 CrPC के बयान में अपराध स्वीकार किया है, उसे दोषी ठहरा दिया—जबकि अभियोजन ने न तो शिकायतकर्ता को पेश किया और न ही किसी तथ्यात्मक गवाह की परीक्षा कराई।
हाईकोर्ट के अहम अवलोकन
अदालत ने सबसे पहले रेखांकित किया कि अपराध सिद्ध करने का भार अभियोजन पर होता है, और यहाँ अभियोजन ने केवल एक कांस्टेबल (औपचारिक गवाह) को ही पेश किया। कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि तकनीकी रूप से अभियोजन द्वारा अपराध सिद्ध करने हेतु कोई साक्ष्य प्रस्तुत ही नहीं किया गया।
मुख्य प्रश्न यह था कि क्या केवल धारा 313 CrPC के बयान के आधार पर दोषसिद्धि संभव है। अदालत ने इसका उत्तर नकारात्मक में देते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसलों—राज कुमार सिंह @ राजू @ बट्या बनाम राज्य राजस्थान (2013) और प्रेमचंद बनाम महाराष्ट्र राज्य (2023)—पर भरोसा किया। अदालत ने कहा कि धारा 313 के तहत अभियुक्त के बयान साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत “साक्ष्य” नहीं होते, और इन्हें अभियोजन के साक्ष्यों के साथ जोड़कर ही देखा जा सकता है; इनके आधार पर अकेले दोषसिद्धि नहीं हो सकती।
हाईकोर्ट ने ट्रायल रिकॉर्ड की जांच में यह भी पाया कि आजाद खान ने सात बार स्वीकार आवेदन दिए थे, जिनमें उसने आशंका जताई थी कि रिहा होने पर पुलिस से मिलीभगत कर शिकायतकर्ता उसे मार देगा। उसने वस्तुतः जान बचाने के लिए जेल में ही रहने की प्रार्थना की थी। ऐसे में, अदालत ने माना कि उसका कथित स्वीकार भय या दबाव से मुक्त नहीं था। ट्रायल जज द्वारा इस पहलू को नजरअंदाज करना गंभीर त्रुटि बताया गया।
निष्कर्ष
हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन अपराध से अभियुक्त को जोड़ने में पूरी तरह विफल रहा। “इस मामले का दुखद पक्ष यह है कि अभियुक्त लगभग 24 वर्ष जेल में रहा, जबकि उसके खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं था,” अदालत ने कहा। परिणामस्वरूप, अपील स्वीकार करते हुए दोषसिद्धि और सजा रद्द की गई और आजाद खान को सभी आरोपों से बरी कर तत्काल रिहा करने का निर्देश दिया गया।
अपीलकर्ता की ओर से हाईकोर्ट विधिक सेवा समिति के पैनल अधिवक्ता यनेन्द्र पांडेय उपस्थित रहे।

