इलाहाबाद हाईकोर्ट ने SAHARA की सहकारी समितियों के खिलाफ ED जांच रद्द करने से किया इनकार
Shahadat
25 Oct 2025 2:38 PM IST

इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ पीठ) ने हाल ही में सहारा से जुड़ी चार सहकारी समितियों के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा शुरू की गई तलाशी और ज़ब्ती की कार्रवाई रद्द करने से इनकार किया।
जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की पीठ ने कहा कि प्रथम दृष्टया धोखाधड़ी का मामला बनता है और धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) के तहत कार्यवाही में केवल इसलिए हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, क्योंकि संबंधित अपराधों में से एक में क्लोजर रिपोर्ट दायर कर दी गई।
इस प्रकार, सिंगल जज ने मेसर्स हमारा इंडिया क्रेडिट कोऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड, मेसर्स सहारा क्रेडिट कोऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड, मेसर्स स्टार्स मल्टीपर्पस कोऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड और मेसर्स सहारायन यूनिवर्सल मल्टीपर्पस सोसाइटी लिमिटेड द्वारा CrPC की धारा 482/BNSS की धारा 528 के तहत दायर याचिका खारिज की।
याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट के समक्ष ED के कोलकाता क्षेत्रीय कार्यालय द्वारा जारी एक प्राधिकरण (दिनांक 2 जुलाई, 2024) के अनुसरण में उनके लखनऊ कार्यालयों में ED द्वारा की गई तलाशी और जब्ती कार्रवाई (3-5 जुलाई, 2024 के बीच) को चुनौती दी थी।
संक्षेप में मामला
31 मार्च, 2023 की प्रवर्तन मामला सूचना रिपोर्ट [ECIR], हमारा इंडिया क्रेडिट कोऑपरेटिव सोसाइटी के अधिकारियों के खिलाफ IPC की धारा 294, 506, 406, 409, 417, 420, 120-बी और 34 के तहत भुवनेश्वर में दर्ज FIR पर आधारित थी। यह FIR निवेशकों को उच्च रिटर्न का झूठा वादा करके लुभाने के आरोप में हमारा इंडिया क्रेडिट कोऑपरेटिव सोसाइटी के अधिकारियों के खिलाफ दर्ज की गई।
हालांकि, बाद में भुवनेश्वर पुलिस ने एक क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की (जिसे मजिस्ट्रेट ने 14 सितंबर, 2024 को स्वीकार कर लिया), ED ने यह देखते हुए अपनी जांच का विस्तार किया कि सहारा समूह की संस्थाओं के खिलाफ 500 से ज़्यादा FIR लंबित हैं, जिनमें 300 से ज़्यादा अनुसूचित अपराधों (ज्यादातर IPC की धारा 417, 420 और 467 के तहत) से संबंधित हैं।
इस आधार पर ED ने लखनऊ मुख्यालय सहित कई सहारा कार्यालयों में PMLA की धारा 17(1) और 17(1ए) के तहत तलाशी ली और कई रिकॉर्ड जब्त किए। ED की इस कार्रवाई को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट का रुख किया।
न्यायालय ने ED की प्रारंभिक आपत्ति खारिज की
शुरुआत में एडिशनल सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू ने विशेष वकील ज़ोहेब हुसैन और रिटेनर वकील रोहित त्रिपाठी तथा एडवोकेट अंकित खन्ना की सहायता से इस मामले में लखनऊ पीठ के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र पर आपत्ति जताई।
यह तर्क दिया गया कि संबंधित ECIR कोलकाता में रजिस्टर्ड थी, आय का स्तरीकरण वहीं हुआ था, न्यायाधिकरण भी वहीं स्थित था। इसलिए कोलकाता की अदालतों के पास कार्यवाही की वैधता की जांच करने का क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र होगा।
हालांकि, हाईकोर्ट ने इस प्रारंभिक आपत्ति को खारिज कर दिया, क्योंकि उसने कहा कि चूंकि तलाशी और ज़ब्ती लखनऊ में की गई, इसलिए वाद का एक हिस्सा लखनऊ पीठ की क्षेत्रीय सीमा के भीतर उत्पन्न हुआ।
जस्टिस विद्यार्थी ने यह भी कहा कि सहारा समूह के सभी खाते और रिकॉर्ड लखनऊ में रखे गए और मामले में ₹2.98 करोड़ लखनऊ से ज़ब्त किए गए। यहां तक कि समूह की बैठकें और धन प्रबंधन भी वहीं हुआ था।
कोर्ट ने यह भी कहा कि चूंकि याचिकाकर्ता व्यवसाय करते हैं। उनके कार्यालय लखनऊ में हैं, इसलिए वे लखनऊ में भी PMLA की धारा 42 के तहत अपील दायर कर सकते थे और यही सिद्धांत CrPC की धारा 482 याचिका पर भी लागू होता है।
इस प्रकार, हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि वह याचिका पर सुनवाई करने के लिए सक्षम है।
याचिकाकर्ताओं के तर्क
मामले के गुण-दोष के संबंध में सीनियर एडवोकेट विक्रम चौधरी ने, एडवोकेट नदीम मुर्तजा, अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी, बीएम त्रिपाठी, राम साजन यादव, संजीव कुमार मिश्रा और पार्थ आनंद की सहायता से तर्क दिया कि भुवनेश्वर FIR में संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा क्लोजर रिपोर्ट स्वीकार किए जाने के बाद PMLA की कोई कार्यवाही जारी नहीं रह सकती।
उन्होंने प्रस्तुत किया कि यह निवेश पर रिटर्न का भुगतान न करने का मामला था, जो अनियमित जमा योजना प्रतिबंध अधिनियम, 2019 (BUDS Act) के अंतर्गत आता है। याचिकाकर्ताओं के कथित कृत्य IPC के प्रावधानों के अंतर्गत नहीं आते।
उन्होंने यह भी दलील दी कि BUDS Act के तहत अपराध PMLA के तहत अनुसूचित अपराध नहीं है। इसलिए PMLA के तहत याचिकाकर्ताओं के खिलाफ पूरी कार्यवाही कानूनन टिकने योग्य नहीं है।
उन्होंने यह भी तर्क दिया कि ED द्वारा कोलकाता में दर्ज दूसरी ECIR फोरम शॉपिंग के समान है, क्योंकि इसी विषय पर एक पूर्व ECIR मुंबई में मौजूद थी।
उनका यह भी तर्क था कि सहारा समूह की संपत्तियां सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार पहले से ही SEBI द्वारा कुर्क की जा चुकी हैं। इसलिए ED द्वारा उन्हें पुनः कुर्क नहीं किया जा सकता। इसके अलावा, निवेशकों को भुगतान करने में सहारा की असमर्थता सुप्रीम कोर्ट के प्रतिबंध आदेश (नवंबर 2023) के कारण थी, न कि किसी धोखाधड़ी के इरादे से।
प्रवर्तन निदेशालय के तर्क
इन दलीलों के जवाब में ED ने एडिशनल सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू के माध्यम से दलील दी कि भारत भर में 315 से अधिक FIR दर्ज की गईं, जिनमें सहारा की संस्थाओं द्वारा अनुसूचित अपराधों से संबंधित मामले शामिल हैं। ED की रिपोर्ट किसी एक प्राथमिकी पर आधारित नहीं है, जिसमें समापन रिपोर्ट प्रस्तुत की गई हो।
उन्होंने दलील दी कि जब सहकारी समिति के जमाकर्ताओं ने नियत तिथि के बाद परिपक्वता भुगतान का अनुरोध करना शुरू किया और उन्हें भुगतान से वंचित कर दिया गया तो उन्हें एहसास हुआ कि उन्हें गुमराह किया गया है और समिति में अपना धन जमा करने के लिए धोखा दिया गया।
उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि FIR/आरोपपत्रों में उल्लिखित अपराध अनुसूचित अपराध हैं, इसलिए इन अपराधों से उत्पन्न अपराध की आय, धन शोधन से संबंधित अपराधों के साथ PMLA के तहत जांच की जानी चाहिए।
उन्होंने यह भी तर्क दिया कि कई FIR एक ECIR का आधार बन सकती हैं, जैसा कि दिल्ली हाईकोर्ट ने राजिंदर सिंह चड्ढा बनाम भारत संघ 2023 लाइवलॉ (दिल्ली) 1170 में कहा था।
उन्होंने आगे कहा कि भले ही वर्तमान मामले में BUDS Act के अपराध शामिल हों, उस अधिनियम की धारा 35 स्पष्ट करती है कि यह अन्य कानूनों के "अतिरिक्त है, न कि उनके उल्लंघन में", इसलिए IPC के प्रावधान भी साथ-साथ लागू हो सकते हैं।
हाईकोर्ट की टिप्पणियां
इन दलीलों की पृष्ठभूमि में पीठ ने शुरुआत में ही कहा कि एक ही FIR में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करने से ED को अनुसूचित अपराधों से संबंधित अन्य FIR की जाxच करने से नहीं रोका जा सकता।
अदालत ने याचिकाकर्ताओं के इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि निवेशकों को रिटर्न का भुगतान न करना BUDS Act के तहत अपराध होगा। इसमें भारतीय दंड संहिता (IPC) की धाराएं नहीं लगेंगी, क्योंकि पीठ ने कहा कि धारा 35 स्पष्ट करती है कि यह अधिनियम IPC के "अतिरिक्त है, न कि उसके अधीन"।
महत्वपूर्ण बात यह है कि अदालत ने ED के प्रति-शपथपत्र का हवाला देते हुए कहा कि सहारा समूह की सभी जमा स्वीकार करने वाली संस्थाओं ने मेसर्स सहारा इंडिया की समान शाखाओं, समान एजेंटों और बैंक खातों सहित अन्य बुनियादी ढांचे का उपयोग किया।
पीठ ने ED के इस स्पष्ट आरोप पर भी विचार किया कि धनराशि पुनः जमा करते समय बैंक खातों में कोई अंतरण नहीं किया गया। केवल विभिन्न संस्थाओं के खातों का समायोजन किया गया तथा सभी महत्वपूर्ण निर्णय लखनऊ स्थित मुख्यालय द्वारा लिए गए और सहकारी समिति या उसके सदस्यों के हित में कोई भी निर्णय नहीं लिया गया।
वास्तव में पीठ ने उल्लेख किया कि ED ने यह भी आरोप लगाया कि सहारा समूह की एक योजना की परिपक्वता राशि मौजूदा नई योजना में पुनः जमा कर दी गई। इसके लिए कोई बैंक खाता अंतरण नहीं किया गया और जमाकर्ताओं के पास अपनी दूसरी मौजूदा योजना में पुनः जमा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा, क्योंकि मेसर्स सहारा इंडिया का शाखा कार्यालय पुनर्भुगतान नहीं कर रहा था।
इस पृष्ठभूमि में जस्टिस विद्यार्थी ने कहा कि इन आरोपों से प्रथम दृष्टया याचिकाकर्ताओं द्वारा धोखाधड़ी का अपराध सिद्ध होता है, जिसके लिए उन पर मुकदमा चलाया जाना आवश्यक है।
अदालत ने आगे कहा कि आरोपों की सत्यता का ट्रायल केवल मुकदमे के दौरान ही किया जा सकता है, न कि CrPC की धारा 482 के तहत याचिका में।
परिणामस्वरूप, याचिका खारिज करते हुए जस्टिस विद्यार्थी ने इस प्रकार टिप्पणी की:
"उपर्युक्त तथ्य प्रथम दृष्टया याचिकाकर्ताओं द्वारा धोखाधड़ी का अपराध किए जाने का संकेत देते हैं, जिससे उन पर इस अपराध के लिए मुकदमा चलाया जाना उचित प्रतीत होता है। आरोपों की सत्यता की जांच इस न्यायालय द्वारा अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए नहीं की जा सकती और यह जांच विचारण न्यायालय द्वारा पक्षकारों को अपने-अपने मामले के समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर दिए जाने के बाद की जाएगी। इसलिए मैं याचिकाकर्ता के वकील के इस तर्क को स्वीकार करने में असमर्थ हूं।"

