इलाहाबाद हाईकोर्ट ने Livelaw के रिपोर्टर को लाइव रिपोर्टिंग से रोका, प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर उठे सवाल

Shahadat

27 Jun 2024 5:56 AM GMT

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट ने Livelaw के रिपोर्टर को लाइव रिपोर्टिंग से रोका, प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर उठे सवाल

    कांग्रेस (Congress) नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से सांसद के रूप में चुनाव को चुनौती देने वाली जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लाइव लॉ के रिपोर्टर को न्यायालय की कार्यवाही की रिपोर्टिंग बंद करने और तुरंत न्यायालय परिसर छोड़ने को कहा।

    लाइव लॉ के एसोसिएट एडिटर स्पर्श उपाध्याय, जो न्यायालय में मौजूद एकमात्र पत्रकार हैं और अपने मोबाइल फोन से लाइव लॉ के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर लाइव अपडेट पोस्ट कर रहे थे, उनको जस्टिस आलोक माथुर और जस्टिस अरुण कुमार सिंह देशवाल की पीठ ने यह कहते हुए कोर्ट रूम से जाने के लिए।

    खंडपीठ ने लाइव लॉ के रिपोर्टर से कहा,

    "आप बाहर जाकर अपनी रिपोर्टिंग करिए।"

    खंडपीठ ने लाइव लॉ के रिपोर्टर को न्यायालय की कार्यवाही की रिपोर्टिंग बंद करने और कोर्ट रूम छोड़ने को कहा

    यह प्रकरण पत्रकारिता की स्वतंत्रता और न्यायालय की कार्यवाही के बारे में जनता को सूचित किए जाने के अधिकार के लिए इसके व्यापक निहितार्थों के बारे में प्रश्न उठाता है, विशेष रूप से ऐसे मामलों में जो आम जनता के हित में हों और कभी-कभी उन्हें प्रभावित करते हों।

    लोकतंत्र के स्तंभों में से एक होने के नाते न्यायपालिका को कानून के शासन को बनाए रखने और न्याय सुनिश्चित करने का काम सौंपा गया है। इसकी कार्यवाही आम तौर पर पारदर्शिता और जवाबदेही बनाए रखने के लिए जनता के लिए ओपन होती है।

    हालांकि, ऐसी घटनाओं के होने से न्यायपालिका प्रेस की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी की उपलब्धता के बावजूद अपनी कार्यवाही पर रिपोर्ट करने की मीडिया की क्षमता पर अंकुश लगाकर जनता के विश्वास और जवाबदेही को खत्म करने का जोखिम उठाती है।

    यह उल्लेख किया जाना चाहिए कि प्रेस या पत्रकार का यह अधिकार केवल विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि मौलिक आवश्यकता है, क्योंकि वास्तविक समय के अपडेट और अंतर्दृष्टि प्रदान करके रिपोर्टर यह सुनिश्चित करते हैं कि न्याय न केवल किया जाए बल्कि बड़े पैमाने पर जनता के साथ न्याय होता हुआ भी दिखे, यह एक सिद्धांत है, जो न्यायिक प्रणाली में विश्वास बनाए रखने के लिए आवश्यक है।

    हालांकि, आगे बढ़ने से पहले आइए समझते हैं कि वास्तव में कोर्ट रूम के अंदर क्या हुआ। जनहित याचिका पर सुनवाई दो सत्रों (लंच से पहले और बाद में) में आयोजित की गई।

    लंच से पहले और बाद के सेशन का विवरण नीचे संक्षेप में दिया गया है:

    दोपहर के भोजन से पहले का सत्र:

    खंडपीठ ने ठीक 10:15 बजे सुनवाई शुरू की। याचिका आइटम नंबर 18 पर थी। मामले की सुनवाई लगभग 12:19 बजे शुरू हुई। कोर्ट रूम लगभग 70% भरा हुआ था, जिसमें मुख्य रूप से वकील (और उनके क्लर्क और कुछ इंटर्न) अपने मामलों की प्रतीक्षा कर रहे थे। रिपोर्टर, इंटर्न और लॉयर्स क्लर्कों के लिए बनी तीन-सीटर बेंच (कोर्ट के दाईं ओर रखी गई) के पास खड़ा होकर कार्यवाही का लाइव-ट्वीट कर रहा था।

    इस सत्र के दौरान, अदालत ने मुख्य रूप से वकील अशोक पांडे पर ध्यान केंद्रित किया, जिन्होंने जनहित याचिका याचिकाकर्ता विग्नेश शिशिरा का प्रतिनिधित्व किया। अदालत ने सवाल किया कि पांडे ने याचिका के साथ 25,000 रुपये का डिमांड ड्राफ्ट (डीडी) क्यों नहीं दाखिल किया, जैसा कि 2016 के हाईकोर्ट के आदेश में अनिवार्य है।

    इस सेशन में न्यायालय ने याचिकाकर्ता शिशिरा को मंच के पास वकील के बहुत करीब खड़े होने के लिए फटकार भी लगाई। हालांकि, न्यायालय मामले को दूसरे दिन के लिए स्थगित करना चाहता था, लेकिन वकील पांडे ने आग्रह किया कि इस पर उसी दिन सुनवाई की जाए। उनके आग्रह पर न्यायालय ने मामले को लंच के बाद फिर से लेने का फैसला किया। यह सेशन लगभग 12:46 बजे समाप्त हुआ।

    लंच के बाद का सेशन:

    लंच के बाद का सत्र लगभग 4:27 बजे शुरू हुआ, जो न्यायालय के पुनः बैठने के दो घंटे बाद (दोपहर 2:30 बजे) हुआ। न्यायालय ने वकील पांडे से फिर से पूछताछ शुरू की। फिर से हाईकोर्ट के 2016 के आदेश के बारे में पूछा, जिसके अनुसार उन्हें प्रत्येक याचिका के साथ 25,000/- रुपये का डीडी दाखिल करना आवश्यक है।

    वकील पांडे ने अपनी दलील के दौरान आवश्यक डीडी जमा किए बिना याचिका दाखिल करने के अपने अधिकार का दावा किया।

    सुनवाई के 5 मिनट बाद लगभग 4:32 बजे जस्टिस आलोक माथुर का लाइव लॉ के रिपोर्टर की ओर गया, जो तीन सीटों वाली बेंच के पास खड़ा था और कार्यवाही का लाइव-ट्वीट कर रहा था।

    जस्टिस माथुर ने निर्देश दिया,

    "यह रिपोर्टिंग आप बाहर जाकर करें।"

    पुष्टि के लिए रिपोर्टर ने पूछा कि क्या निर्देश वास्तव में उसके लिए था।

    जस्टिस माथुर ने पुष्टि की,

    "हां, आप। आप बाहर जाएं और वहां जाकर रिपोर्टिंग करें।"

    इस निर्देश के बाद रिपोर्टर कोर्ट रूम से बाहर चला गया। रिपोर्टर द्वारा लाइव लॉ के ट्विटर हैंडल से (लगभग 4:36 बजे) ट्वीट पोस्ट किया गया, जिसमें कहा गया कि बेंच ने रिपोर्टर को कोर्ट रूम से बाहर जाने के लिए कहा है।

    रिपोर्टर के कोर्ट रूम से बाहर निकलने के बाद लंच के बाद का सत्र लगभग 12-15 मिनट तक चला।

    इसमें कोई संदेह नहीं है कि कोर्ट के पास अदालती कार्यवाही में बाधा डालने वाले व्यक्तियों को निष्कासित करने का पूर्ण अधिकार है। हालांकि, इस मामले में रिपोर्टर कोई ऐसा व्यवधान नहीं पैदा कर रहा था, जिसके लिए ऐसी कार्रवाई की आवश्यकता हो। वह केवल अपने मोबाइल फोन से लाइव लॉ के ट्विटर हैंडल पर कोर्ट की कार्यवाही के लाइव अपडेट पोस्ट कर रहा था और कोर्ट रूम में शांत और विनीत उपस्थिति बनाए रख रहा था।

    यह मामला तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब सुप्रीम कोर्ट हाल के वर्षों में ओपन का कट्टर समर्थक रहा है, जो न्यायिक कार्यवाही के मूलभूत सिद्धांतों के रूप में पारदर्शिता, जवाबदेही और सार्वजनिक पहुंच पर जोर देता है।

    सुप्रीम कोर्ट का मानना ​​है कि न्यायालयों को भौतिक और प्रतीकात्मक अर्थों में खुला होना चाहिए, सिवाय बंद कमरे में कार्यवाही के, क्योंकि न्यायालयों तक खुली पहुंच "मूल्यवान संवैधानिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आवश्यक है"।

    इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कदमों में से स्वप्निल त्रिपाठी बनाम सुप्रीम कोर्ट (2018) के मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय और संवैधानिक महत्व के मामलों की लाइव स्ट्रीमिंग के लिए रास्ता साफ कर दिया था।

    न्यायालय की कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग की अनुमति देते हुए पीठ ने कहा,

    "सूर्य का प्रकाश सबसे अच्छा कीटाणुनाशक है।"

    सुप्रीम कोर्ट के कामकाज को जनता को देखने की अनुमति देकर सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक प्रक्रियाओं की अधिक से अधिक सार्वजनिक भागीदारी और समझ के लिए अपने दरवाजे खोल दिए।

    सुप्रीम कोर्ट के 'जनता के प्रति खुलेपन' को भारत के चुनाव आयोग बनाम एमआर विजया भास्कर एलएल 2021 एससी 244 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2021 के फैसले से और मजबूती मिली, जिसमें यह स्पष्ट रूप से माना गया कि अदालती कार्यवाही की रिपोर्टिंग करने की मीडिया की स्वतंत्रता भी न्यायपालिका की अखंडता और समग्र रूप से न्याय के उद्देश्य को बढ़ाने की प्रक्रिया का एक हिस्सा है।

    इस मामले में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एमआर शाह की खंडपीठ ने मद्रास हाईकोर्ट की मौखिक टिप्पणियों के खिलाफ भारत के चुनाव आयोग (ECI) की याचिका खारिज की थी कि ECI "COVID-19 की दूसरी लहर के लिए अकेले जिम्मेदार है" और "संभवतः उस पर हत्या के आरोप लगाए जाने चाहिए" (चुनाव आयोग बनाम एमआर विजया भास्कर)।

    मौखिक टिप्पणियों की मीडिया रिपोर्टिंग को रोकने की ECI की याचिका को तथ्यहीन बताते हुए खारिज करते हुए न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि अदालती सुनवाई का मीडिया कवरेज प्रेस की स्वतंत्रता का हिस्सा है। इसका नागरिकों के सूचना के अधिकार और न्यायपालिका की जवाबदेही पर भी असर पड़ता है।

    महत्वपूर्ण बात यह है कि शीर्ष न्यायालय ने यह भी कहा कि न्यायालय की कार्यवाही की रिपोर्टिंग करने की मीडिया की स्वतंत्रता भी न्यायपालिका की अखंडता और समग्र रूप से न्याय के उद्देश्य को बढ़ाने की प्रक्रिया का एक हिस्सा है।

    निर्णय में कोर्ट रूम रिपोर्टिंग में नए युग के विकास का भी उल्लेख किया गया, जैसे कि ट्विटर और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सुनवाई के लाइव अकाउंट दिए जाना।

    इससे हमें 2022 में सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा दिए गए एक बयान की भी याद आती है, जब उन्होंने कहा था कि हाईकोर्ट और अधीनस्थ न्यायपालिका के न्यायाधीशों की मानसिकता बदलनी चाहिए, जो न्यायालय कक्षों के अंदर फोन के उपयोग को प्रोत्साहित नहीं करते हैं।

    जस्टिस चंद्रचूड़ ने एक घटना का वर्णन किया, जिसमें उन्होंने पाया कि कोई व्यक्ति उनके कोर्ट रूम में कही जा रही बातों को रिकॉर्ड कर रहा था। उन्होंने टिप्पणी की कि इस मुद्दे पर पारंपरिक दृष्टिकोण अपनाने के बजाय, उन्होंने यह प्रतिबिंबित किया कि यदि कोई बात खुली अदालत में कही जा रही है तो उसे रिकॉर्ड करने में कोई बुराई नहीं है।

    सीजेआई ने कहा,

    "कल, मैंने अपने न्यायालय में किसी को मोबाइल डिवाइस का उपयोग करते हुए देखा, संभवतः वह हमारी बातें रिकॉर्ड कर रहा था। मैंने (खुद से) कहा, अगर मैं ओपन कोर्ट में कुछ कह रहा हूं और अगर कोई इसे रिकॉर्ड करना चाहता है तो इसमें बड़ी बात क्या है? वैसे भी हम इसे ओपन कोर्ट में अपनी बात कह रहे हैं।"

    यह दिलचस्प हो सकता है कि जिस रिपोर्टर को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कोर्ट रूम से बाहर जाने के लिए कहा, वह याचिका (वर्तमान में हाईकोर्ट के समक्ष लंबित) में याचिकाकर्ताओं में से एक है, जिसमें हाईकोर्ट, अधीनस्थ न्यायालयों और न्यायाधिकरणों सहित उत्तर प्रदेश राज्य भर में न्यायालय की कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग और लाइव रिपोर्टिंग की अनुमति मांगी गई है।

    इस याचिका पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मई 2021 में देखा कि इसका प्रशासनिक पक्ष व्यापक सार्वजनिक पहुंच के लिए न्यायालय की कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग और लाइव रिपोर्टिंग के सभी पहलुओं पर काम कर रहा है।

    जस्टिस पंकज नकवी और जस्टिस जयंत बनर्जी की खंडपीठ ने कहा था,

    "कोई भी आपके अधिकार पर विवाद नहीं कर रहा है। वे मामले के सभी पहलुओं पर काम कर रहे हैं, हमें उन्हें कुछ समय देना होगा।"

    मध्य प्रदेश के समक्ष ऐसी ही याचिका में, जिसमें लाइव लॉ के दो पत्रकार (नूपुर थपलियाल और स्पर्श उपाध्याय सहित) याचिकाकर्ता थे, न्यायालय ने जून 2021 में मौखिक रूप से टिप्पणी की थी कि यह "निर्विवाद है कि पत्रकारों को अदालती कार्यवाही की लाइव रिपोर्टिंग करने और उस तक पहुंचने का अधिकार है।"

    जस्टिस प्रकाश श्रीवास्तव और जस्टिस वीरेंद्र सिंह की खंडपीठ ने मौखिक रूप से कहा था कि पत्रकारों के अदालती कार्यवाही की लाइव रिपोर्टिंग करने के अधिकार पर विवाद नहीं किया जा सकता। बाद में मामले में बहस पूरी होने के 10 दिनों के भीतर मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने याचिका का निपटारा करते हुए अपनी वेबसाइट पर वीसी लिंक शेयर करना शुरू करने का फैसला किया।

    कोर्ट रूम से लाइव रिपोर्टिंग पत्रकारों को समय पर और सटीक जानकारी देने में सक्षम बनाती है, जिससे गलत सूचना के प्रसार को रोका जा सकता है और यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि जनता विश्वसनीय समाचार स्रोतों तक पहुंच सके।

    न्यायालय की कार्यवाही की लाइव रिपोर्टिंग करने के पत्रकारों के अधिकार को प्रतिबंधित करके, न्यायपालिका अनजाने में खुले न्याय के सिद्धांतों और न्यायालय की कार्यवाही के बारे में जनता को सूचित किए जाने के अधिकार को कमजोर कर रही होगी।

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